Friday 25 November 2016

लक्ष्य अगर गैर-भाजपा राज्य हैं, ऐसे में नोटबंदी कहीं राजनीति तो नहीं !


सरकार के प्रति पूर्ण निष्ठा रखते हुए यह आलेख लिख रहा हूं। मोदीजी के भक्त नाराज न हों। कांग्रेसी खुश न हों। बाकी के जितने दल हैं, वे बत्तीसी न चमकाएं।


कर्नाटक के बेल्लारी बंधुओं (जनार्दन रेड्डी, सोमशेखर रेड्डी और करुणाकरण रेड्डी) के घर हुई 500 करोड़ रुपए की शादी की खबर मीडिया में खूब उछाली गई थी। भाइयों-बहनों (मितरों) तब नोटबंदी की घोषणा हो चुकी थी। घोषणा 8 नवंबर को हुई और शादी 16 नवंबर को।

नोटबंदी के बावजूद जनार्दन रेड्डी की बेटी की शादी की भव्यता में पांच रुपए का भी फर्क नहीं आया था। कागजों में अरबपति और हकीकत में खरबपति जनार्दन रेड्डी अवैध खनन मामले के सबसे मशहूर आरोपी हैं। रेड्डी की बंफाड़ संपत्ति के पीछे उनके भाजपा से जुड़ाव को कारण बताया जाता है। कर्नाटक बीजेपी के तारणहार येदियुरप्पा के कालर के बटन हैं जनार्दन रेड्डी,  फिलहाल सुप्रीम कोर्ट से जमानत पर हैं, पूर्व में 40 महीने जेल में रहकर आए हैं।
40 का अंक येदियुरप्पा और रेड्डी के बीच संबंध बना रहा है।
 हाल में आए एक फैसले में रेड्डी के आराध्य नेता येदियुरप्पा को 40 करोड़ के अवैध खनन केस में सीबीआई की विशेष अदालत ने साजिशकर्ता नहीं माना है। अफवाह थी कि कर्नाटक भाजपा ने अपने नेताओं को जनार्दन रेड्डी की बिटिया की शादी में जाने से मना किया है, लेकिन येदियुरप्पा भाजपा के नेताओं को साथ लेकर गए। इसके  पांच दिन बाद इनकम टैक्स ने रेड्डी के माइनिंग ऑफिस में रेड की। तस्वीर को उल्टा कर देखें तो जनार्दन रेड्डी को पूरा मौका दिया गया।

इतना पुराण सुनाने के पीछे का मकसद है एक भूमिका खड़ी करना। भूमिका नोटबंदी के बाद जन-धन खाते में आ रहे करोड़ों-अरबों रुपए और इसके पीछे राजनीति होने के संदेह की।   इस गुरुवार तक पूरे देश के जन-धन खातों में 21 हजार करोड़ रुपए आ चुके हैं। इसमें कर्नाटक का नंबर दूसरा है। कर्नाटक से ही टेबुलाइड समाचार उठे थे-" नेता टेंट लगाकर पैसे बांट रहे गरीबों को।"

 जानते हैं जन-धन में धनवर्षा (अखबारी सरकारी सूत्र के हवाले से) में पहला नंबर किस राज्य का है?
पहला है बंगाल। बाबू मोशाय पहले इसको ‘पोश्चिम बोंगोल’ बोलते थे। अब खाली 'बोंगोल" है- "आमी सोनार बोंगोल।"
गुस्सैल ममता बनर्जी ने नोटबंदी के खिलाफ अराजक केजरीवाल और एटीएम कतार के कलाकार राहुल गांधी से अधिक मुखरता दिखाई है। दिल्ली में राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया। अगले दिन केजरीवाल के साथ भाषण में  कह रही थीं- "मेरे को हिंदी बोलना ठीक से नेई आता। सरकार का फैसला से गोरीब (गरीब)पोरेशान (परेशान) है।"
अब मैं ही लिखता रहूं कि आप चिंतन करेंगे, आपके चिंतन को दिशा दिए देता हूं-

> >बंगाल में बीजेपी की नजर मोदी के आने के बाद से है । वहां पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने बड़ा जोर मारा। परिणाम रहा 294 सीटों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को 211 सीटें और बीजेपी को मिली सिर्फ और सिर्फ 6, यानी मोदी लहर फेल, मोदी  फेल।
>> कर्नाटक में भाजपा को खड़ा करनेवाले येदियुरप्पा का जादू खत्म हुआ, यहां सत्ता गंवाकर बीजेपी सिकुड़ गई । साउथ में कर्नाटक बीजेपी का सेंटर है । पार्टी दक्षिण भारत में आगे बढ़ने की योजना पर कर्नाटक से काम कर रही है। वहां की 224 सीटों में 122 कांग्रेस के पास है, बीजेपी के पास हैं 40 सीटें। कर्नाटक की सरकार गंवाने का गम भाजपा को टीस रहा होगा।

मैं दोहरा रहा हूं कि सरकारी एजेंसियों ने जन-धन में पैसे आने की बाढ़ में इन दोनों राज्यों को आगे बताया है।
संभावना इसकी भी है कि बंगाल और कर्नाटक में वाकई फर्जीवाड़ा हो सकता है। ममता बनर्जी इसलिए ही नोटबंदी के विरोध में उतरी होंगी, उनकी पार्टी पर नोटबंदी से आंच आई होगी। कार्यकर्ताओं ने दबाव बनाया होगा। मोमता दीदी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ा गया होगा।
मोमता ने इधर मार्च निकाला, उधर सरकारी एजेंसियो ने सभी राज्यों के बैंकों से जन-धन खातों की रिपोर्ट मंगाई, और भाइयों-बहनों (मितरों) बंगाल टॉप कर गया। मोदीजी के लहजे में कहूं तो-" देखा.."

मैं इन राज्यों को उदाहरण मात्र के तौर पर बता रहा हूं। क्या सरकार कालेधन के नाम पर डरा रही है? क्या पहले यह कालेधन पर वार का ऐतिहासिक फैसला था और अब राजनीतिक होता जा रहा है? डर भाजपाशासित राज्यों में क्यों नहीं है? सरकारी एजेंसियों से खबरें उछाली जाती हैं " सारे खातों पर पैनी नजर है। जन-धन में आ रहे पैसों का हिसाब देना होगा। कोई नहीं बचेगा।"

डराया किसे जा रहा है, कालाधन रखनेवालों को! या गैरभाजपाशासी राज्यों की सरकारों को!
शक के बहुत से कारण हैं कि नोटबंदी सरकार का एक निष्पक्ष निर्णय नहीं था।  बंगाल की भाजपा इकाई ने नोटबंदी लगने से पहले तीन करोड़ रुपए बैंक में जमा कराए। नोट थे 500 और 1000 के। बिहार में भी जमीन खरीदी गई करोड़ों की। दूरदर्शन का पत्रकार कह रहा है "मोदी का आठ नवंबर वाला घोषणा भाषण लाइव नहीं था। "
भाजपा ने प्रचारित किया है- मोदी के अलावा कोई नहीं जानता था बड़े नोट बंद किए जाने का फैसला। वित्तमंत्री अरुण जेटली और आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल को भी नहीं मालूम था । क्या मजाक है? जेटली पूरे देश के नोट गिनने का ठेका रखनेवाला मंत्रालय संभालते हैं और उन नोटों पर हस्ताक्षर करने का अधिकार है उर्जित पटेल को। दोनों भोले-मासूमों को कानों-कान खबर नहीं मिली।  फिर उसी रात सिस्टम कैसे सक्रिय हो गया!  जैसे उसको पता हो कि  आज से काम पर लगना है।  चलिए ये जेटली और पटेल नहीं जानते थे, तो फिर मोदी भर के जान लेने से पूरी मशीनरी सक्रिय हो गई। मोदी ने अकेले ही सब कर लिया। नए नोट छपवा लिए। उनको बैंकों में जाने के लिए तैयार करवा लिया और अचानक आठ नवंबर को घोषणा कर दी।
नोटबंदी क्यों एक पॉलिटिकल स्टंटबाजी लग रही है।
अंत में गरीब के साथ होनेवाला खेल जानिए-
बिहार के बेगूसराय में मजदूर सुधीर कुमार को इनकम टैक्स का नोटिस मिला लिखा था कि उसके अकाउंट से साढ़े तीन अरब रुपए का ट्रांजेक्शन हुआ है। उस बेचारे मजदूर का सोचिए जिसने जिंदगी का पहला सरकारी परचा देखा होगा, और वो भी इनकम टैक्स का । सुधीर को जब सरकारी पुर्जा मिला, उसके अकाउंट में सिर्फ 416 रुपए थे।

मामला सामने आने के बाद इनकम टैक्स विभाग ने सफाई दी है कि बैंक से गलती हो सकती है। जांच होगी। भला हो नीतीश कुमार का, जो नोटबंदी का शुरुआती समर्थन  कर दिया था। नहीं तो सुधीर कुमार नप सकता था!!!! (यह एक अतिश्योक्तिपूर्ण बात है, पर सम्भव भी)
वैसे केंद्र के राडार पर नीतीश भी हैं! मैं बिहार और उत्तरप्रदेश के जन-धन खातों के आंकड़े जानने को बेसब्र हूं। देखते हैं सरकार कब अथेंटिक आंकड़े जारी करती है। यूपी में चुनाव आने को है। बूझिए आगे.. नोटबंदी का क्या फर्क आएगा वहां की राजनीति में।

( एक सूचना कॉम्प्लीमेंट्री- जनता परिवार से कांग्रेस में आए सिद्धारमैया कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस ने वहां बीजेपी शासनकाल के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा था। पिछले दिनों सिद्धारमैया पर आरोप लगा है कि उन्होंने एक इंजीनियर से 60 लाख की घड़ी ली)
 नए नोटों के लिए कतार में हैं ! तब तो बहुत वक़्त पड़ा है, सोचते रहिए...


Thursday 24 November 2016

मैं यदि नेता बनना चाहूं / संदर्भ: राजनीति में युवाओं की भागीदारी


नए नेता पुरानों से बेेहतर होते हैं। क्योंकर पुराने नेताओं की मृत्यु के बाद हम उन्हें पूजते हैं। पुरानों की महानता का पूरा सम्मान करते हुए याद रखिए कि आप भी एक दिन पुराने होंगे। क्या हो कि नयापन वक्त से पहले ही पुराना हो जाए !(छत्तीसगढ़ की राजनीति में युवाओं के अभाव पर यह आलेख केंद्रित है)
छत्तीसगढ़ का कोई एक वास्तविक युवा नेता बताइए जिससे आप उम्मीद लगा सकते हैं? आप फलां भैया जिंदाबाद से आगे की सोच सकते हैं क्या?
वास्तविक युवा से तात्पर्य उम्र भी है, और स्वतंत्र पहचान भी। गोद में बैठे बच्चे कभी-कभी दाढ़ी मूड़ जाया करते हैं। बच्चों की मार्केटिंग जो न करा जाए वो कम।

हमारे नए युवा नेताओं को भाषण तक देना नहीं आता और यह उनका अपरिपक्व होना नहीं है। उन्हें बोलने ही नहीं दिया जाता। वे कहां बोलेंगे! वे मंचों के पीछे व्यवस्था में लगे हैं। मंच की सीढिय़ों पर ऊपर जाते कदमों की धूल उनके सफेद लिबास पर पड़ रही हैं। वे एक ओवर बजट फिल्म के स्पॉट ब्वॉय का प्रतिरूप हैं। सभी कतारबद्ध होकर मीडिया के हर उस बंदे से संपर्क रखते हैं जो उन्हें सिंगल कालम के समाचार में नाम लिख जाने तक की जगह दे सकता है। उन्हें संगठनों में पद चाहिए। वे इसके लिए खुद को तैयार नहीं करते। ऐसा करना चाहते हैं पर करने नहीं दिया जाता। मजबूरन वे परिपाटी का पालन करते हैं।

बड़े नेता के करीब जाओ। नारे लगाओ। उसके करीबी से करीबी हो जाओ। पहले के करीबी को रास्ते से हटाओ। ध्यान रखो कि यह प्रक्रिया तुम्हारे साथ कोई दूसरा न दोहराए। नेता के उठने का इंतजार करो। पद पाओ। स्वयं नेता बन जाओ। अपने नीचे उनको ही चुनो, जो तुम्हारा तरीका अपनाकर नेता बनना चाहते हैं। फिक्स पैटर्न।

सही है, मैं एक सीमा में बात कर रहा हूं, वरना पूरे देश की राजनीति ने इससे ज्यादा विकास नहीं किया। किसी राज्य के बनने से वहां के युवाओं को कम से कम राजनीति में अपने अवसर सुरक्षित हो जाने का भ्रम नहीं पालना चाहिए। मैंने छत्तीसगढ़ को एक सैंपल की तरह लिया है, कारण है कि यहां की राजनीति मैं बचपन से देख रहा हूं। आप सैंपल को देश का पूरा गो-डाउन मान सकते हैं। बुराई नहीं है।

सभी संदर्भों में आप पूर्व और वर्तमान मुख्यमंत्री के सपूतों से ध्यान हटाकर कहां तक देख सकते हैं, देख लीजिए। पूर्व-भूतपूर्व और वर्तमान मंत्रियों के बेटे भी अलग खड़े नजर नहीं आते। वे अपने पिता की परछाई होते हैं। राज्य में युवाओं को स्टार्टअप्स के लिए प्रेरित किया जा रहा है। मैं यदि नेता बनना चाहूं? युवा हूं, स्वतंत्र तथा सर्वहित के विचार रखता हूं, सेवा की भावना है। एक स्वाभाविक मनोभाव के तहत मैं मुख्यधारा की राजनीति में स्वयं को देखना चाहता हूं। युवाओं के पैरोकार जरा बताएं कि मुझे किस सरकारी योजना से ऋण मिलेगा, जिससे मैं स्वागत में बैनर-पोस्टर लगाऊं। सभाओं में भीड़ लाऊं। सडक़ों पर  गुलाब बिछाऊं। जन्मदिन में अखबारों को विज्ञापन दूं!

मुख्यमंत्रीजी मैं आपको पहले बड़े गौर से सुनता था। आजकल नहीं सुन पा रहा हूं। हर जगह की तरह यहां भी शोर बहुत है। मन की बात। रमन के गोठ। कितना सुनंू। मैंने सुनना छोड़ दिया है। दिल्ली में जेएनयू है। हमारे यहां भी एक दिन होगा। दुआ करता हूं कि दिल्ली का डुप्लीकेट न हो। हालात बदलते हैं। हम और आप उस समय अपनी आज की स्थिति में न रहें, यह दूसरा विषय है। पहले सभाओं में रिपोर्टिंग करते हुए मैं आपकी सहजता से प्रभावित था। आप नया लेकर नहीं आएंगे, लग जाता था पर साथ में जिज्ञासा रहती थी कि आप पुराने दौर को याद रखते हुए नया सोच पाएंगे। आज आप क्यूं मुझे डॉक्टर, इंजीनियर नहीं बन पाने पर स्वयं का व्यवसाय खड़ा करने को प्रेरित कर रहे हैं। राजनीति में आने के लिए मेरा इंटरव्यू लेने में संवैधानिक आपत्ति लग सकती है क्या? क्योंकर आपके पास ही सर्वाधिकार सुरक्षित हैं? आप विधानसभा में चाणक्य को उद्धृत करते हैं, किंतु चंद्रगुप्त नहीं खोजते। सोलह साल में किसी वास्तविक गरीब के बेटे को नीति बनाने लायक पद मिला है?


आप उसी परिपाटी पर चल रहे हैं जिसने कभी आपके लिए विषम परिस्थितियां पैदा की थीं। आप सत्ता प्रमुख हैं, इसलिए संबोधन आपको है। आपके स्थान पर अजीत जोगी, भूपेश बघेल या कोई और (जो निश्चित ही युवा नहीं होगा) होंगे, तब भी मैं यही सवाल करुंगा। मैं बीजेपी-कांग्रेसी या अन्य में नहीं हूं। मैं निरपेक्षों की लुप्तप्राय प्रजाति से हूं। संभावनाएं मुखिया तय करता है। मुखिया बदलाव ला सकता है। मेरा सवाल इसलिए आपसे है।

आपसे हटकर पाता हूं कि छत्तीसगढ़ की राजनीति फंसी हुई है। असल में यह राज्य के बनने की प्रक्रिया के कारण हुआ। पेड़ का सेब अधिकारपूर्वक तोडऩे और उसे छील-काटकर खिलाने में फर्क है। हमें सेब मिल गया। स्वीकारने में सहर्षता होनी चाहिए कि हमने राज्य के लिए संघर्ष नहीं किया। मैं एक धारा का बताया सूत्र जानता हूं। यह धारा वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच बहती है। सूत्र कहता है ‘संघर्ष जुबानी नहीं होता। नारेबाजी नहीं होता। अभिमत, प्रस्ताव अथवा विधेयक नहीं होता। वह राजनीति चमकाने का मकसद तो किसी सूरत में नहीं होता और संघर्ष कभी अमीर या गरीब नहीं देखता।' 

मोटे हिसाब में पिछले साल तक के आंकड़े कहते हैं कि देश की जीडीपी में हमारा 17वां नंबर आता है। सकल घरेलू उत्पाद के मामले में हमारी ताकत 1. 85 लाख करोड़  रुपए की है। आंकड़ों का खेल समझ नहीं आता, मगर सवाल बनता है कि इसमें युवाओं की भागीदारी के लिए किसी प्रकार का सर्वेक्षण राज्य सरकार अपने स्तर पर करा सकती है क्या? ठीक है उसे सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए, परंतु अपनी जानकारी और जिम्मेदारी के वास्ते यह करने में हर्ज नहीं ।
जीडीपी के आंकलन में फाइनल प्रोडक्ट मुख्य है। जीडीपी के नार्म्स से बिल्कुल ही अलग फाइनल प्रोडक्ट में पूर्ण विचारित-विकसित युवा भी हो सकता है। सनद रहे, फाइनल प्रोडक्ट के रूप में मैंने केवल एक शब्द उठाया है। इसे अर्थव्यवस्थावाली जीडीपी से जोड़े नहीं। सजीवता-निर्जीवता की बात कहकर यहां विषय विवाद नहीं बनना चाहिए।

हमने संघर्ष नहीं किया यह सत्य है। हमने राज्य की कीमत नहीं जानी, यह उससे भी बड़ा सच है। हम सत्ता को कलेक्टरी से अधिक समझ नहीं पाए यह भयावह सत्य है। इसलिए हम जिम्मेदारी नहीं दिखा पाए। हम दूसरे राज्यों की राजनीति के अनुकरण में लगे रहे। देशव्यापी परिपाटी ने हमें रियायत नहीं दी। हमने मांगी ही नहीं।
बिना लड़े पाओगे, सो खोने का दर्द कहां से होगा! याद है, नए राज्य की नवेली राजनीति का पहला पड़ाव विद्याचरण शुक्ल और अजीत जोगी के बीच मुख्यमंत्री होने की होड़ था। अजीत जोगी इस झड़प में जीते। पड़ाव आज तक वहीं का वहीं पड़ा है। तंबू का मालिक बदल गया है। जोगी इस दौर में भी छत्तीसगढिय़ा राजनीति की घड़ी के स्थाई पुर्जे हैं। कभी वे घंटे का कांटा थे। आगे मिनट का हुए। अब सेकंड का हैं। उनकी गति बदल रही है, वे चल रहे हैं। तब से लेकर आज तक, और अगले डेढ़-दो साल बाद जब फिर चुनाव लौटेगा। अभी अगले चुनाव में वे लोगों को महाभारत सीरियल की तर्ज पर कह सकते हैं- ‘मैं समय हूं।’ वे कौरव-पांडव किसे बताएंगे, इसका अनुमान आप लगाते रहिए।
सोचिए जरा, कांग्रेस ने वीसी और जोगी के घमासान में उस पब्लिक से रायशुमारी की थी क्या, जो राज्य बनने से अभिभूत से अधिक आश्चर्यचकित थी।


पॉलिटिक्स को समझनेवाले जानते हैं कि राजनीति में स्थायित्व कभी जनता के हित में नहीं होता। एक पीढ़ी पिछड़ जाती है और कई बार कई पीढिय़ां भी। जड़ता तंत्र को बूढ़ा और ढर्रे का बना देती है। सकारात्मकता कुर्सियां तोड़ते हुए दीवार पर घड़ी देखना नहीं है। आपने कभी मंत्रालय का दौरा किया है। नया रायपुर में सरकार का कारोबार जंगल में मोर नाचने की तरह है। मेरे विद्वान मित्र विभाष कहते हैं ‘जानते तो तापस, हमें राज्य बनने के बाद झूठ बोलते नए लोग मिले और एक नकली शहर, जिसका नाम है नया रायपुर।’ मैं उनसे सहमत नहीं था। किंतु असहमति के लिए भी अधिक गुंजाइश नहीं थी। सहमत मैं इस मामले में था कि कांग्रेस ने ही क्या कर लिया?

हम आज भी अजीत जोगी और विद्याचरण के उस बीते संघर्ष में जी रहे हैं। मेज वही है, आमने-सामने की कुर्सियों के चरित्र वही हैं। चेहरे बदल गए। अजीत जोगी, आज वीसी की भूमिका में हैं। क्या लगातार तीसरी पारी खेल रहे डा. रमन सिंह को हम अगला जोगी मान सकते हैं। इतिहास खुद को दोहराता है। दोहरा सकता है।

इतिहास से अनभिज्ञ नए लडक़े बदलाव की सडक़ की भीड़ हो चले हैं। वे अपनी बारी का इंतजार करते रहते हैं। उन्हें कॉलेजों के सामने घेरेबंदी, रटा हुआ राष्ट्रवाद, संशययुक्त धर्मनिरपेक्षता और फलां भैया जिंदाबाद ही आता है। वे जानते हैं कि बड़े नेता युवापन अपने बेटों और रिश्तेदारों में ही देखते हैं। बड़े नेता अपने नीचे युवा नेता चुनते हुए समाजवादी (मुलायम की पार्टी) हो जाते हैं, बाकी समय अपनी-अपनी पार्टियों के।

मुखालफत युवाओं से शुरू होती है। मंगल पांडे, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, खुदीराम बोस की तरह अनेक क्रांतिकारी जिस अवस्था में बागी हुए थे। गांधीजी भी युवापन से बगावती थे, उनकी बगावत में अहिंसा थी, ज्यादा मारक और असरकारक। आज सुनते रहते हैं- 'देश की 65 फीसदी आबादी युवाओं की है।' यह नहीं बताया जाता कि हमारा युवा कारपोरेट एक्सट्रीमिस्ट है। अपने नेता की जीत पर पार्टियां कर हमारे युवा जनता की संवेदना को पैग दर पैग उतारते रहते हैं। उन्हें मुखालफत और बगावत के अर्थों का अंतर मालूम नहीं है!
इतिहास की तरह मैं खुद का लिखा दोहराता हूं ‘वास्तविक युवा से तात्पर्य उम्र भी है, और स्वतंत्र पहचान भी। ’


- तापस ( इस पर आगे और भी लिख सकता हूं.. पसंद आया तो !!)

Friday 18 November 2016

काला धन पुराना विषय; नया है विषयविहीन यह लेख

 काले धन पर मुझे लिखना नहीं था। विषय पुराना पड़ गया है। विश्लेषण का युग है। मैं युगधर्म निभा रहा हूं। पढक़र आप कहेंगे ‘अरे वाह क्या लिखा है, सच लिखते हो’
मैं झेंपकर कहूंगा ‘अरे..भाई साहब ये तो मेरा फर्ज था। ’
विश्लेषण यह है कि हम दोनों ही जान रहे होंगे कि हम झूठ कह रहे हैं।


मार्डन व्यवहारिकता में विषय रचे जाने से पहले उनका विश्लेषण हो जाता है। आपस की दौड़ में हम विश्लेषण पहले बना लेते हैं। यह ज्ञानी होने की निशानी है। यह पुरुष के गर्भधारी होने की पुष्टि के समान है। पुरुष गर्भधारण नहीं कर सकता, वैश्विक व जाना-पहचाना सत्य है। हम विश्लेषण यों देंगे मानो पुरुष को सातवें महीने से लेबर पेन के प्रति सजग हो जाना चाहिए।

एक और उदाहरण भी है (यह पहले से भी ज्यादा हल्के स्तर का है), जैसे हम किसी दोस्त को शराब की पार्टी में बुलाकर उसके सामने सफाई देते रहें ‘आजकल मैंने  पीनी छोड़ दी है, तेरा साथ देने को पी रहा हूं।’
हालांकि फोकट की गटकने आए दोस्त ने पार्टी का विषय आपसे नहीं पूछा होता है। आप ही विश्लेषण में लग जाते हैं। दोस्त भी आपकी पैरलल इकॉनामी जानता रहता है । उसे आपकी पोंगा-पंथी समझ आ जाती है। वो सामने से कहता है ‘कोई बात नहीं यार, दोस्त के लिए नहीं पिएगा तो किसके लिए।’

दो पैग के बाद वही दोस्त अपना विश्लेषण देना शुरू कर देता है ‘देख भाई, अपन तो रुटीन में पीते हैं नहीं, तूने बुला लिया सो चले आए। अपनी फिलॉसपी में दारू पीयो, जमकर पीयो, बट लिमिट में पियो। अपना यही फार्मूला है। आधे घंटे में अद्धी अंदर उतार लें, मजाल है इधर-उधर कोई बात हो जाए। लिमिट इज मस्ट मैन।’

तीन पैग के बाद आपकी और दोस्त की लिमिट पार हो जाती है। बोतल के अंत के संग वायदा किया जाता है ‘ अब हर वीकेंड बैठेंगे। देखते हैं कौन बोलता है। अपने बाप के पैसे की पी रहे हैं, ब्लैक मनी नहीं लगी है इसमें।’

दारू की रात में बातें सोडा होती हैं। विश्लेषण नींबू चांटना होता है। चखना पैराग्राफ बदलने का संकेत बन जाता है।
काले धन पर इसी प्रजाति का विषयविहीन विश्लेषण पढि़ए (विषय है, शक नहीं। मैं विषय के बाहर चला जाऊं तो मुआफ कीजिएगा, विषयहीनता यही है)-

दो पैग मारकर सरकार कहती है ‘देश में पैरलल इकॉनामी है ब्लैक मनी की।’

 नींबू काटते हुए जनता पूछती है ‘यही बाबा..यही.. अपन लोग भी यही मानते हैं। चुनाव के टाइम में बोतल के साथ नोट आता है, हम तुरंत पकड़ लेते हैं, माल ब्लैक का है। अपन बोतल में जीभ डालकर उसकी बूंद-बूंद सुटक लेते हैं और नोट चला देते हैं। आज समझ आया चुनाव में मिले दारू और पैसे से पैरलल इकॉनामी खड़ी हो जाती है। ’
सरकार कहती है ‘यहीं गलती करते हो। चुनाव का पैसा चुनाव के बाद वापस कर दिया करो। तुम खरच देते हो। देखो आज पैरलल इकॉनामी खड़ी हो गई। ’

जनता कहती है ‘गलती हुई सरकार अब क्या करें?’

सरकार कहती है ‘जीव-जंतु सब रो रै होंगे.. .आधी रात सब नोट पे सो रै होंगे.. रख दिल पे हाथ, हम साथ-साथ.. .. बोलो क्या करेंगेऽऽऽऽऽ??????’

जनता कोरस में गा उठती है ‘हवन करेंगे.. .हवन करेंगे.. हवन करेंगे.. .’

सरकार जोर-जोर से कहती है ‘यह महायज्ञ है। सबको आहुति देनी होगी। नोटों की बदली होगी। वासेपुर से बदलापुर तक सबके नोट बदले जाएंगे। ’

जनता हर्षनाद करती है ‘हवन करेंगे.. .हवन करेंगे.. .हवन करेंगे.. . ’

और यज्ञ-हवन शुरू होता है। सनकी ट्रम्फ को पेल रहे महारथियों को विश्लेषण का अवसर सुलभ होता है।
पैरलल इकॉनामी पर ज्ञान माला शुरू होती है। काला धन कहां से आता है? कहां को जाता है? (कोशिश होती है घाट-घाट घूमे आदमी को सुहागरात का मतलब बताने की)

काले धन पर विश्लेषणों की सर्जिकल स्ट्राइक होने लग जाती है। (आजकल सर्जिकल स्ट्राइक बड़ा फैशन में है। बवासीर की बीमारी लेकर डॉक्टर के पास पहुंचा व्यक्ति कहता है- बड़ा दर्द है साहब, सर्जिकल स्ट्राइक कर दो )

विश्लेषकों को सुनकर जनता कोरस में गाते-गाते  चिल्लाने लग जाती है ‘ हवन करेंगे.. हवन करेंगे.. . हवन करेंगे.. .’

सीरियसली आम आदमी से मजाक देखिए। अपने को आम आदमी मानते हुए जानिए कि आम आदमी से अच्छा कोई अर्थशास्त्री नहीं। उसे पता है काला धन कहां है? उसकी सहचरी सरकार भी जानती है काला धन कहां है? लेकिन निकलवा किससे रही है? आम आदमी से ही।
हवन हो रहा है। आहुति कौन डाल रहा है। आम आदमी।

पैरलल इकॉनामी क्या है? इसका विश्लेषण यही है कि यह तुमने खड़ी की है। हमने नहीं। हम कतारों में खड़े हैं। तुम्हारा पता नहीं। हमें पता है नेता के पास काला पैसा है। वो कतार में नहीं है।  उद्योगपति-व्यापारी के घर ब्लैक का बगुला, भगत बना पड़ा है। इनमें से कोई कतार में नहीं है।
एक ऊंचा आदमी गिरफ्तार नहीं हुआ। सब ईमानदार, पाक-साफ हैं। आश्चर्य है पैरलल इकॉनामी कहां से खड़ी हुई?

इकलौता पाकिस्तान बार्डर से इतने जाली नोट सप्लाई कर गया। पैरलल इकॉनामी बना गया। हमको देशभक्ति का सबूत देने कतारों में लगा गया।
 क्या सरकार, जनता और इनके बीच संवाद बनानेवाले (ज्यादातर मीडिया और बुद्धिजीविता से जुड़े विश्लेषक) नहीं जानते काला धन किनके पास है?

जानते हैं भूत नहीं है। ओझा ही ढोंगी है। लूट रहा है। वार भूत पर क्यों? जब वो है ही नहीं। ओझा भूत बनाता है, उसको पकड़ो।
पैरलल इकॉनामी का अर्थशास्त्र गरीब के लिए है। नोट वह बदलेगा। वेल सेटल्ड लोग अर्थशास्त्री और देशभक्त हैं। पैरलल इकॉनामी इनके बाप का विषय था। ज्ञान पेलने का अधिकार इन्हें विरासत में मिला। इनके खून के रिश्तेदार राजनीतिक दलों के खजांची हैं। सत्यवादी-दानवीर हरिशचंद्र ने इन्हें गोद लिया था।

हरीशचंद्र की वेल सेटल्ड दत्तक औलादें विश्लेषण दे रही हैं ‘चुनाव में पैरलल इकॉनामी नहीं होती। चुनाव के बाद पैरलल इकॉनामी होती है।’ सरकारों के- असरदारों के बोर्ड-होर्डिंग्स में काला पैसा नहीं लगा होता। वो खून पसीने की कमाई है। सभाओं की भीड़ जमा  करने वाले इतने ईमानदार हैं कि मेन इकॉनामी से धन जुटाते हैं। किसानी का पैसा सभा में लगाते हैं।

इस मुकाबले अनसैटल्ड आम आदमी की दारू पैरलल इकॉनामी से आती है। देसी पीकर नाली में नैसर्गिकता टटोल रहा नेता रातोंरात मेन इकॉनामी से  उधार पाकर जॉनी वॉकर ब्लैक लेबल पा जाता है। सेठ-साहूकार मेन इकानॉमी के तहत ब्याज का धंधा करते हैं।
पैरलल इकॉनामी चलाने वाले उनसे उधार लेते हैं, डबल ब्याज में।

तीनों सभाओं के सदस्य, सरकारी तंत्र के सारे अधिकारी, बाजार के बड़े व्यापारी और उद्योगों के पति, सभी व्हाइट हैं। हम ही काले हैं। पैरलल इकॉनामी वाले हैं।
देश का बच्चा-बच्चा (जो राम का भी है और रहीम का भी) जानता है काला धन कहां से आता है? किसके पास जाता है?
आप नहीं जानते सरकार, धन्य हैं। नोट बदलवाने की नौबत आ जाती है।
आई डोन्ट नो व्हाट इज पैरलल इकानॉमी. बट विद ऑल रिसपेक्ट आई वान्ट टू नो, हू इज रिस्पांसिबल फॉर इट?
डू यू टेल मी?
- इति विषयविहीन विश्लेषण




Monday 7 November 2016

न्यूट्रल आदमी


भावुक होना, जज्बाती होना, इमोशनल होना क्या है? अगर आप मेरे इस सवाल को समझ रहे हैं, और मन ही मन उत्तर दे रहे होंगे तो मौखिक बताइए बहकना क्या है?
मुझे आपकी आवाज नहीं आई। क्या मेरी आवाज आप तक पहुंच रही है। मैं न्यूट्रल आदमी हूं माई-बाप। मेरी आवाज दब गई है। कभी कोई पकड़ लेता है, कभी किसी को लगता है इसकी गर्दन मरोड़ दूं। इस चक्कर में अकेला पड़ गया हूं। पुराने न्यूट्रलिटियों ने हार मानकर चुन-चुनकर पक्ष चुन लिए हैं। इससे उनका पेट भर रहा है, जुबान चल रही है। इस बीच मैं भूखा-नंगा अपनी बात रखने की भरपूर कोशिश करता हूं और नकार दिया जाता हूं।

 बैन करने वाले और बैन का विरोध करने वाले कहते हैं- " तुम्हारा तो कोई पक्ष ही नहीं है।"  हर कोई पूछता है कि तुम किसके साइड हो। मैं कहता हूं " फैसला नहीं कर पा रहा।"  इतने में ही मेरी बखिया उधेड़ दी जाती है। कहा जाता है " कैसे आदमी हो कोई एक स्पष्ट गुट नहीं, पक्ष नहीं? तुम तो रीढ़हीन प्राणी हो।"

कई बार तो डर लगता है कि मेरे न्यूट्रल आदमी होने की वजह से कहीं आप लोगों ने मुझे पढऩा छोड़ दिया फिर क्या होगा? यही रोजी-रोटी है हे मेरे पाठक, मेरे दाता। पढऩा मत छोडि़एगा। मैं न्यूट्रल नहीं रहने की जी-तोड़ कोशिश में लगा हूं। डर लगा रहता है, कब कौन सी बात किस पक्ष को बुरी लग जाएगी! लिखते हुए हाथ कांपते हैं, पता नहीं पक्ष नहीं होने से लिखी बात समझ आएगी-नहीं आएगी। जिनको समझ आई ठीक, परंतु जिन्हें नहीं समझ आई वे तो अपनी विचारधारा लेकर मेरा मर्डर कर देंगे।

वर्तमान परिवेश में न्यूट्रल आदमी वो अवांछित तत्व है जो आर्टिफिशियल धाराओं में नहीं बह पाता। विचारधारा-पार्टी, आंदोलन, समर्थन-विरोध उसके पल्ले नहीं पड़ते। वह बात-बात पर सेंटी हो जाता है। समर्थन जताते हुए कब विरोधी हो जाता है और विरोध दर्ज कराते किस क्षण समर्थक हो जाता है, पता नहीं चलता।
डॉक्टर कहता है " यह दिल का मामला है। दिमाग पर दिल का भारी होना दिल की बीमारी है। इसे मेडिकल साइंस की भाषा में सेंटीरिया (सेंटी हो जाना)कहते हैं। कभी भी हार्ट-अटैक आ सकता है। "
डॉक्टर कहता है " सेंटी होकर आप बहक सकते हैं। बहक कर सेंटी भी हो सकते हैं। लेकिन बहकना, बहकना ही है। सेंटी होना न्यूट्रल आदमी के लिए कॉलेस्ट्राल बढ़ाना है। "

बहकने का सवाल ही नहीं पैदा होता। जिनके पास अपने पक्ष हैं वे बहकें फिक्र नहीं, उन्हें गुटबाजी का अधिकार मिला हुआ है। गनीमत है संविधान में बहकने को मौलिक-नागरिक अधिकारों की लिस्ट में नहीं रखा गया है। इमोशन चूंकि दिखता नहीं। जो चीज नजर न आए उस पर अनुच्छेद-धारा आदि-इत्यादि लागू नहीं होते। इस स्थिति में एक न्यूट्रल आदमी क्या करे? ऊपर से उसे सेंटीरिया ने जकड़ रखा है। गुटबाज कहेंगे 'एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा।' न्यूट्रल आदमी कहेगा " एक तो न्यूट्रल ऊपर से गुटबाजों से बहस में पड़ा।"

चलिए आप पढ़ रहे हैं तो न्यूट्रलिटी को थोड़ा और विवेचित करता हूं। जरूरी नहीं कि मैं जो कह रहा हूं वो आप मान लें। आप उसकी अच्छी जांच-पड़ताल करने के बाद ही निष्कर्ष पर पहुंचे। आपका यह बंदा फेसबुक और व्हाट्सएप की दुनिया में न्यूट्रल होने की वजह से जलील होता पड़ा रहता है। निष्कर्ष तक पहुंच जाएं तो आप अपना एक संदेश भेजकर मुझे जीवन रहते मोक्ष प्रदान कर सकते हैं। गौरतलब है कि मेरे फोन में एसएमएस भी स्वीकार किए जाते हैं।

लौटकर आते हैं न्यूट्रल आदमी पर। दुनिया बनानेवाले ने जो पहला आदमी बनाया था वो न्यूट्रल था। हम सब उसकी ही संतानें हैं। मतलब हमारा जींस न्यूट्रल है। हमारा डीएनए न्यूट्रल है। दुनिया के रचनाकार ने न्यूट्रल आदमी की रचना करने के बाद फुर्सत पा ली। उसने पक्ष-विपक्ष का नहीं सोचा और इस मुताबिक उसके फ्यूचर पर ध्यान नहीं दिया। न्यूट्रल आदमी ने परिवार नियोजन को धता बताते हुए जमकर संतानें पैदा कीं। वह भी सेंटीरिया से पीडि़त था। हो सकता है यह उसका जन्मजात रोग रहा हो। इसका एक लक्षण रोमांस है। रोमांस संतान उत्पत्ति का मुख्य स्रोत है। क्या अफ्रीका, क्या अमेरिका और क्या इंडिया। उस जमाने में देश थे भी नहीं। पूरी दुनिया ही न्यूट्रल थी। पहले न्यूट्रल आदमी ने संसार को रोमांस और अपने बच्चों से फुलफिल कर दिया।

न्यूट्रल आदमी के पोषित बच्चे आदमियत में खुश न रह पाए। बहक गए। उन्होंने बहकाऊ धाराएं बनाईं। कठोर विचारधाराएं बनाईं। और बंट गए। उन्होंने सेंटीरिया से मुक्ति का उपचार खोज लिया। सेंटीरिया के संक्रमण से बचने उन्होंने राजनीति का टीका लगवा लिया। कुपोषित न्यूट्रल संतानें देखती ही रह गईं।
न्यूट्रल विचारों को छोडक़र सभी विचारों ने अपनी दिशाएं बनाईं। दसों दिशाओं पर कठोर विचारधाराओं का कब्जा हो गया। दिशाओं के नाम के साथ 'पंथ' का प्रत्यय जोड़ दिया गया। ऐसा नहीं था कि न्यूट्रल आदमी की सारी औलादें ही गुटबाज हो गईं। उसकी थोड़ी-बहुत बची हुई वास्तविक इमोशनल संतानों ने निरपेक्षता को सिद्धांत मानकर जिंदगी आगे बढ़ाई। न्यूट्रल आदमी के वंशजों ने मिडिल क्लास का होना पसंद किया। आज के जमाने में हम मिडिल क्लास को गरीब कह सकते हैं (सातवें वेतनमान की विसंगतियों पर बाद में बात की जाएगी)। दुनिया के प्रारंभ में मिडिल क्लास नहीं था। इसे न्यूट्रल आदमी की संतानों ने ही बनाया है जिन्हें लगा न्यूट्रल रहकर खुश रहा जा सकता है।

दुनिया के सबसे निरपेक्ष देश में न्यूट्रल वर्ग बड़ा न्यूट्रल-न्यूट्रल सा चल रहा था कि फेसबुक आ गया, ट्विटर आ गया, इधर-उधर का सब इन दोनों में आ गया। वर्चुअल वर्ल्ड  बन गया। वर्चुअल वर्ल्ड  आदमी ने बनाया है,  भगवान ने नहीं, अतएव इसमें न्यूट्रीलिटी वर्जित कर दी गई। न्यूट्रल समाज के बचने के चांस जाते रहे। डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए। उन्होंने कहा-" इन्हें अब भगवान भी नहीं बचा सकते, क्योंकि भगवान पर भी कब्जा है। उन्हें गुटविशेष में शामिल कर लिया गया है बिना उनकी एनओसी के। "

आगे की कहानी है - भगवान की बनाई दुनिया में जिस तरह देश बने। मनुष्य के वर्चुअल वर्ल्ड  में भांति-भांति के पेज बने। हर पेज पर एक चौराहा बनाया गया। चौराहे के बीचोंबीच बोर्ड लगाकर सवाल चिपकाया गया- " आपको किधर जाना है? कौन सा पंथ आपका है? किस पार्टी की विचारधारा के हो? राष्ट्रवादी हो, नहीं हो?  देशभक्त हो, नहीं हो? सेक्युलर हो, नहीं हो? वामपंथी हो, नहीं हो? समाजवादी हो, नहीं हो? " न्यूट्रल आदमी के मुंह से  सारे सवालों का जवाब एक ही निकल गया " नहीं भैया इनमें मेरी कैटिगिरी नहीं है। मैं तो आम टाइप का आदमी हूं। आप न्यूट्रल कह सकते हैं।"  करारा जवाब मिला " नहीं हो, तो हम पक्ष को तुम्हारे अंदर इंजेक्ट कर देते हैं। बताओ क्या बनना चाहते हो। फेसबुक का हैश टैग चुन लो। ट्विटर का ट्रेंड  चुन लो। भाजपा चुन लो। कांग्रेस चुन लो। दोनों नहीं पसंद, ऐसे में आगे से राइट जाकर लेफ्ट चुन लो। लेफ्ट में कुछ राइट नहीं लगे तो बेझिझक बोलना हमारे पास नया माल है आम आदमी पार्टी। इसको चुनने में सनकी होने का खतरा है मगर पापुलारिटी कम नहीं है। हमारे पास हर प्रकार का इंजेक्शन है। बस न्यूट्रल मत बने रहो।"

न्यूट्रल आदमी ने पूछा " यह क्यों?"  चौराहे की जमीन पर लकीर खींच रहे गुटबाजों ने कहा " न्यूट्रीलिटी किसी कीमत पर बचनी नहीं चाहिए। न्यूट्रल आदमी कमजोर होता है। उसे मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। उसके बच जाने से न्यूट्रलिटी का संक्रमण फैल जाएगा। "

अंतत: नए सिरे से सॉफ्टवेयर पर मानव मूल्य उकेरे गए। लिखा गया, न्यूट्रल होना वर्चुअल वर्ल्ड में अपराध है। आप भावुक नहीं हो सकते किंतु पूरे अधिकार के साथ बहक सकते हैं। आपको एक पक्ष चुनना ही होगा। पक्ष आपको संकटों से बचाएगा। एक पक्ष आप को बैन करने का अधिकार देगा, दूसरा पक्ष आपको बैन से बचाएगा। अगर कोई एक पक्ष नहीं रखा तो न्यूट्रलिटी का बच्चा मारा जाएगा। उसकी लाश को वहां दफनाया जाएगा जहां से उसके शरीर से निकलता सेंटीरिया संक्रमण वहीं दबा रह जाएगा। न्यूट्रल होना किसी सूरत में नहीं स्वीकारा जाएगा।
 
इसलिए मैं न्यूट्रलिटी से निजात पाने का उपाय ढूंढ़ रहा हूं। मुझे सेंटीरिया से छुटकारा चाहिए। आप कुछ उपाय बताएं, ये कमबख्त दिल बड़ा न्यूट्रल है, दिमाग की सुनता नहीं।
ऐ (न्यूट्रल) दिल है मुश्किल

Saturday 5 November 2016

प्रतिबंध दिखता नहीं मगर सख्ती से लागू है


 एनडीटीवी पर केंद्र सरकार के एक दिन के प्रतिबंध से मच रहा हल्ला अपरोक्ष आपातकाल बताया जा रहा है। यह झूठ है। मीडिया पर इमरजेंसी राज्यों में बहुत पहले से लागू है।
पाखंड जब दिखने लगे.. और स्वीकारा भी जाने लगे तब स्थिति निर्णय की होती है। यहां पाखंड दोनों ओर है। फैसला नहीं कर सकते। देश से जुड़े हर मुद्दे को सरकार जनभावनाओं से जोड़ देती है। नई शब्दावली में राष्ट्रवाद यही है। एनडीटीवी भी पत्रकारिता में आवश्यक कम्युनिज्म की लकीर पीटता है।
राष्ट्रवाद सरकार का पाखंड है और कम्युनिज्म एनडीटीवी का। आलोचक कहते रहे हैं ‘वामपंथ पाखंड का शिकार हो गया। ’


यहां सरकार का पाखंड ज्यादा बड़ा है। वह एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था की संचालक है। उसे यह निर्णय करना चाहिए था कि मीडिया को बेलगाम किसने होने दिया। यह वही मोदी सरकार है जिसने मीडिया को माध्यम बनाकर अच्छे दिन आने का गुब्बारा फुलाया। मोदी को नए युग का इकलौता इच्छाशक्ति प्राप्त नेता बताने में देर नहीं की गई। भाजपा के कैंपेन के विज्ञापन एनडीटीवी में भी आए। आज मोदी सरकार के बनते ही तकरीबन हर क्षेत्र में एक नियंत्रण दिख रहा है। मीडिया की मुखरता चाटुकारिता में बदल गई। यह मुखरता यूपीए राज में चरम पर थी। मनमोहन सिंह के चुप रहने पर मीडिया ने हदें पार कीं। माहौल बदला, एकाएक जैसे सारे मीडिया समूह मोदी केंद्रित हो गए। कुछ बड़े अखबार समूहों ने अपनी विश्वसनीयता खो दी। बरसों की मेहनत से खड़े हुए बैनरों ने समर्पण किया। जबकि इस मेहनत में केवल मालिकों अथवा  उनके पसंदीदा संपादकों का हाथ नहीं था। फील्ड और डेस्क की टीमें बहुत हद तक इसकी जिम्मेदार थीं। एक समय सेंट्रल डेस्क की टीम को अखबार की धुरी माना जाता था। सेंट्रल डेस्क सरकारी विचारों को समझने की क्षमता रखता था। आज वह ले-आउट व समय-सीमा जानता है और एक बंधे-बंधाए फ्रेम से बाहर देखने का अधिकार खो चुका है।

मीडिया धोखे के पहाड़ों पर चढ़े कुछ अंधों के हाथों में है। वे स्वयं धोखे में हैं, दूसरों को भी धोखा दे रहे हैं। धोखे के पहाड़ खूब बिक रहे हैं। किराए पर भी मिलते हैं। वे सत्ता के हिसाब से जगह बदलते रहते हैं।

एक व्यवस्थावादी का कहना है- ‘मुझे कामरेडों का पहाड़ जवानी में अच्छा लगता था, वहां मुझे नाम मिला। अधेड़ावस्था में मैं दक्षिणपंथियों के पहाड़ पर शिफ्ट हो गया, मुझे काम मिला। बुढ़ापा मैं किसी सेक्युलर पहाड़ पर बिताना चाहता हूं, जहां मुझे पेंशन मिलेगी। ’

व्यवस्थावादी को छोडि़ए, मेरी सुनिए। मैं प्रतिबंध का मतलब नहीं जानता। मुझे लगता है कि जब कोई तथ्यपूर्ण सच से भरी हुई रिपोर्ट संपादक के सामने पेश होती है और संपादक उसे पढक़र किसी को फोन लगाता है, और तुरंत ही कह देता है ‘नहीं छप सकती’ तो यह भी प्रतिबंध है। मैं दूसरों को क्यों गलत कहूं। मैंने भी यह किया है। हर प्रकार का प्रतिबंध महीने के पहले सप्ताह से जुड़ा होता है। मुझे सिखाया गया था कि तनख्वाह पर प्रतिबंध न लगे इसलिए पाखंड का पालन करते हुए उसके पहले के प्रतिबंध स्वीकार लिए जाने चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी से बड़ी पेट की गुलामी है। क्रांति भूखे पेट नहीं होती और भरा पेट क्रांति के लिए मुफीद नहीं । आदमी पेट के बिना जी नहीं सकता। भरा हो या भूखा। इसलिए क्रांति से अच्छा है प्रतिबंध।
मैं एनडीटीवी देखता हूं अपने अंधेपन के बावजूद, मैं जी न्यूज भी देखता हूं यह साबित करने के लिए कि मैं अंधा हूं।

मैं हर उस अखबार को मोतियाबिंद के धब्बे के साथ पढ़ता हूं जिसके समाचारों का स्रोत मुझे पहले से ज्ञात होता है। मैं उस पॉलिसी को जानता हूं जो प्रतिबंध का आधुनिकीकरण है। जहां प्रतिबंध दिखता नहीं मगर सख्ती से लागू होता  है। जिसे प्रबंधन की कला कहते हैं और जहां पत्रकारिता एक नौकरी होती है। इस कला के अंधे महारथियों से भी मैं दो-चार होता रहता हूं जो जानते हैं कि वे उस रस्सी पर चल रहे हैं जिससे एक न एक दिन गिरना है, नितांत अंधेपन को दिव्यदृष्टि बताकर वे राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने लायक अभिनय करते हैं। उठते तक सभी प्रबंधनवादी होते हैं और गिरने के बाद यही लोग आलोचक बन जाते हैं। इन्होंने क्रांति को भी ‘जरूरत के अनुसार’ साबित कर दिया है।
मैं क्यों किसी चैनल पर प्रतिबंध लगने से अपना सिर फोड़ू। एक पक्की बात बोलूं- ‘आज तक एनडीटीवी ने मुझे या हमें दिया क्या है! रवीश कुमार के प्राइम टाइम के सिवा। जेएनयू के कन्हैया कुमार का इंटरव्यू कर रहे रवीश कुमार का चेहरा मुझे याद है। कन्हैया किस तरह विनम्रता की चौखट पर खड़ा था। उस चौखट के पीछे मकान नहीं था। केवल शोर था। आवाजें आ रही थीं- हमें चाहिए आजादी। रवीश कुमार अपनी ही शैली में उसे ऐतिहासिक क्रांतिकारी युवा में रूप में पेश कर रहे थे। ’
 एनडीटीवी छोड़ो किसी भी चैनल ने हमें दिया क्या है? तारे-सितारे, निर्मल बाबा और फैट कटर-ग्रीन टी की ऑनलाइन शापिंग के सिवा। पाखंड हर जगह है।

सच बोलिए, लिखिए। सच बताइए। यह कहना ही पाखंड है। क्या आपको नहीं मालूम घोषित और अघोषित प्रतिबंध का अंतर?
जहां मालिक हो वहां मीडिया नहीं होता। मालिक ही मीडिया हो, फिर प्रतिबंध नहीं लगता।

व्यवस्था में क्रांति प्रतिबंधित है। पत्रकारिता और प्रबंधन अलग-अलग कौशल हैं, इनमें बुनियादी फर्क है। समाजवाद और पंूजीवाद की तरह। किंतु इन्हें मिश्रित कर चल रही व्यवस्था को हम आजाद कहते  हैं। हम बाहर से अंग्रेजों के बनाए पत्थर के पुलों से सख्त बनने का पाखंड करते हैं। अंदर से पीडब्ल्यूडी की सडक़ों से पोपले हैं। क्यों विज्ञापनों के साथ आईं सिफारिशों को मजबूरी और पत्रकारिता को नौकरी करार दिया जाता है। इसकी पड़ताल क्यों नहीं की गई? क्या अनिवार्य है कि हम इन्हें स्वीकार करें, बिना तर्क। इसमें एक चैनल का एक दिन के लिए लुप्त होना, हमें बदल नहीं देगा। सोचें जरा, कौन सी खबर थी जिसने आपको बदल दिया।

मैं मोदी मिलन की आस लगाए बैठा रहूं। जुगाड़ लगाऊं। उस पर भी एनडीटीवी के बैन किए जाने पर चिल्लाऊं तो आत्मा गवाही नहीं देगी।
मैं घोषित चाटुकारों के लिए काम करूं और सत्ता की आलोचना फेसबुक पर करूं तो पचेगा नहीं।

 सच यह है कि आप या तो पत्रकार हैं या नौकर। सामंतवाद का विरोध पत्रकारिता है। सामंतवादियों की व्यवस्था का संचालन नौकरी।
पाखंड पोषण का युग काले लबादे फैलाकर फैल रहा है। एनडीटीवी के लिए आंसू बहानेवाले अपने पाखंड की चिंता करें।

मैंने आपातकाल नहीं देखा। सुना है, आपातकाल में संपादकीय का कालम खाली रखा जाता था। उसमें जूते का चित्र विरोध का प्रतीक होता था।
आज वह जूता गायब है। सरकार का जूता पत्रकारिता की नाक पर है। नाक के नीचे मुंह है। मुंह के अंदर जुबान है। यह जानते हुए भी हम गलतफहमियां लेकर जिंदा हैं। बरखा दत्त, रवीश कुमार, मनोरंजन भारती और प्रणब राय से हम क्रांति की उम्मीद लगाए बैठे हैं। उनकी अभिव्यक्तियों से हमारा भला नहीं होगा।
 एनडीटीवी के ही एक युवा एंकर का नाम है- क्रांति संभव।
एनडीटीवी को मोदी सरकार के बने रहते तक एक एंकर और रखना चाहिए, जिसका नाम हो- प्रतिबंध संभव।

एनडीटीवी के एक दिन के बंद पर मैं मूवी चैनलों में साउथ हिंदी डब भरपूर मारधाड़ से भरी फिल्में तलाश करुंगा जिनमें एक हीरो पूरी सत्ता पर भारी पड़ जाता है।

प्रतिबंध पर बौखलाए पत्रकार मित्रों के लिए दुष्यंत कुमार की दो पंक्तियां, इस आशा के साथ कि आप पत्रकारिता और नौकरी का अंतर जानेंगे-
मत कहो आकाश में कोहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है