Thursday, 24 November 2016

मैं यदि नेता बनना चाहूं / संदर्भ: राजनीति में युवाओं की भागीदारी


नए नेता पुरानों से बेेहतर होते हैं। क्योंकर पुराने नेताओं की मृत्यु के बाद हम उन्हें पूजते हैं। पुरानों की महानता का पूरा सम्मान करते हुए याद रखिए कि आप भी एक दिन पुराने होंगे। क्या हो कि नयापन वक्त से पहले ही पुराना हो जाए !(छत्तीसगढ़ की राजनीति में युवाओं के अभाव पर यह आलेख केंद्रित है)
छत्तीसगढ़ का कोई एक वास्तविक युवा नेता बताइए जिससे आप उम्मीद लगा सकते हैं? आप फलां भैया जिंदाबाद से आगे की सोच सकते हैं क्या?
वास्तविक युवा से तात्पर्य उम्र भी है, और स्वतंत्र पहचान भी। गोद में बैठे बच्चे कभी-कभी दाढ़ी मूड़ जाया करते हैं। बच्चों की मार्केटिंग जो न करा जाए वो कम।

हमारे नए युवा नेताओं को भाषण तक देना नहीं आता और यह उनका अपरिपक्व होना नहीं है। उन्हें बोलने ही नहीं दिया जाता। वे कहां बोलेंगे! वे मंचों के पीछे व्यवस्था में लगे हैं। मंच की सीढिय़ों पर ऊपर जाते कदमों की धूल उनके सफेद लिबास पर पड़ रही हैं। वे एक ओवर बजट फिल्म के स्पॉट ब्वॉय का प्रतिरूप हैं। सभी कतारबद्ध होकर मीडिया के हर उस बंदे से संपर्क रखते हैं जो उन्हें सिंगल कालम के समाचार में नाम लिख जाने तक की जगह दे सकता है। उन्हें संगठनों में पद चाहिए। वे इसके लिए खुद को तैयार नहीं करते। ऐसा करना चाहते हैं पर करने नहीं दिया जाता। मजबूरन वे परिपाटी का पालन करते हैं।

बड़े नेता के करीब जाओ। नारे लगाओ। उसके करीबी से करीबी हो जाओ। पहले के करीबी को रास्ते से हटाओ। ध्यान रखो कि यह प्रक्रिया तुम्हारे साथ कोई दूसरा न दोहराए। नेता के उठने का इंतजार करो। पद पाओ। स्वयं नेता बन जाओ। अपने नीचे उनको ही चुनो, जो तुम्हारा तरीका अपनाकर नेता बनना चाहते हैं। फिक्स पैटर्न।

सही है, मैं एक सीमा में बात कर रहा हूं, वरना पूरे देश की राजनीति ने इससे ज्यादा विकास नहीं किया। किसी राज्य के बनने से वहां के युवाओं को कम से कम राजनीति में अपने अवसर सुरक्षित हो जाने का भ्रम नहीं पालना चाहिए। मैंने छत्तीसगढ़ को एक सैंपल की तरह लिया है, कारण है कि यहां की राजनीति मैं बचपन से देख रहा हूं। आप सैंपल को देश का पूरा गो-डाउन मान सकते हैं। बुराई नहीं है।

सभी संदर्भों में आप पूर्व और वर्तमान मुख्यमंत्री के सपूतों से ध्यान हटाकर कहां तक देख सकते हैं, देख लीजिए। पूर्व-भूतपूर्व और वर्तमान मंत्रियों के बेटे भी अलग खड़े नजर नहीं आते। वे अपने पिता की परछाई होते हैं। राज्य में युवाओं को स्टार्टअप्स के लिए प्रेरित किया जा रहा है। मैं यदि नेता बनना चाहूं? युवा हूं, स्वतंत्र तथा सर्वहित के विचार रखता हूं, सेवा की भावना है। एक स्वाभाविक मनोभाव के तहत मैं मुख्यधारा की राजनीति में स्वयं को देखना चाहता हूं। युवाओं के पैरोकार जरा बताएं कि मुझे किस सरकारी योजना से ऋण मिलेगा, जिससे मैं स्वागत में बैनर-पोस्टर लगाऊं। सभाओं में भीड़ लाऊं। सडक़ों पर  गुलाब बिछाऊं। जन्मदिन में अखबारों को विज्ञापन दूं!

मुख्यमंत्रीजी मैं आपको पहले बड़े गौर से सुनता था। आजकल नहीं सुन पा रहा हूं। हर जगह की तरह यहां भी शोर बहुत है। मन की बात। रमन के गोठ। कितना सुनंू। मैंने सुनना छोड़ दिया है। दिल्ली में जेएनयू है। हमारे यहां भी एक दिन होगा। दुआ करता हूं कि दिल्ली का डुप्लीकेट न हो। हालात बदलते हैं। हम और आप उस समय अपनी आज की स्थिति में न रहें, यह दूसरा विषय है। पहले सभाओं में रिपोर्टिंग करते हुए मैं आपकी सहजता से प्रभावित था। आप नया लेकर नहीं आएंगे, लग जाता था पर साथ में जिज्ञासा रहती थी कि आप पुराने दौर को याद रखते हुए नया सोच पाएंगे। आज आप क्यूं मुझे डॉक्टर, इंजीनियर नहीं बन पाने पर स्वयं का व्यवसाय खड़ा करने को प्रेरित कर रहे हैं। राजनीति में आने के लिए मेरा इंटरव्यू लेने में संवैधानिक आपत्ति लग सकती है क्या? क्योंकर आपके पास ही सर्वाधिकार सुरक्षित हैं? आप विधानसभा में चाणक्य को उद्धृत करते हैं, किंतु चंद्रगुप्त नहीं खोजते। सोलह साल में किसी वास्तविक गरीब के बेटे को नीति बनाने लायक पद मिला है?


आप उसी परिपाटी पर चल रहे हैं जिसने कभी आपके लिए विषम परिस्थितियां पैदा की थीं। आप सत्ता प्रमुख हैं, इसलिए संबोधन आपको है। आपके स्थान पर अजीत जोगी, भूपेश बघेल या कोई और (जो निश्चित ही युवा नहीं होगा) होंगे, तब भी मैं यही सवाल करुंगा। मैं बीजेपी-कांग्रेसी या अन्य में नहीं हूं। मैं निरपेक्षों की लुप्तप्राय प्रजाति से हूं। संभावनाएं मुखिया तय करता है। मुखिया बदलाव ला सकता है। मेरा सवाल इसलिए आपसे है।

आपसे हटकर पाता हूं कि छत्तीसगढ़ की राजनीति फंसी हुई है। असल में यह राज्य के बनने की प्रक्रिया के कारण हुआ। पेड़ का सेब अधिकारपूर्वक तोडऩे और उसे छील-काटकर खिलाने में फर्क है। हमें सेब मिल गया। स्वीकारने में सहर्षता होनी चाहिए कि हमने राज्य के लिए संघर्ष नहीं किया। मैं एक धारा का बताया सूत्र जानता हूं। यह धारा वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच बहती है। सूत्र कहता है ‘संघर्ष जुबानी नहीं होता। नारेबाजी नहीं होता। अभिमत, प्रस्ताव अथवा विधेयक नहीं होता। वह राजनीति चमकाने का मकसद तो किसी सूरत में नहीं होता और संघर्ष कभी अमीर या गरीब नहीं देखता।' 

मोटे हिसाब में पिछले साल तक के आंकड़े कहते हैं कि देश की जीडीपी में हमारा 17वां नंबर आता है। सकल घरेलू उत्पाद के मामले में हमारी ताकत 1. 85 लाख करोड़  रुपए की है। आंकड़ों का खेल समझ नहीं आता, मगर सवाल बनता है कि इसमें युवाओं की भागीदारी के लिए किसी प्रकार का सर्वेक्षण राज्य सरकार अपने स्तर पर करा सकती है क्या? ठीक है उसे सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए, परंतु अपनी जानकारी और जिम्मेदारी के वास्ते यह करने में हर्ज नहीं ।
जीडीपी के आंकलन में फाइनल प्रोडक्ट मुख्य है। जीडीपी के नार्म्स से बिल्कुल ही अलग फाइनल प्रोडक्ट में पूर्ण विचारित-विकसित युवा भी हो सकता है। सनद रहे, फाइनल प्रोडक्ट के रूप में मैंने केवल एक शब्द उठाया है। इसे अर्थव्यवस्थावाली जीडीपी से जोड़े नहीं। सजीवता-निर्जीवता की बात कहकर यहां विषय विवाद नहीं बनना चाहिए।

हमने संघर्ष नहीं किया यह सत्य है। हमने राज्य की कीमत नहीं जानी, यह उससे भी बड़ा सच है। हम सत्ता को कलेक्टरी से अधिक समझ नहीं पाए यह भयावह सत्य है। इसलिए हम जिम्मेदारी नहीं दिखा पाए। हम दूसरे राज्यों की राजनीति के अनुकरण में लगे रहे। देशव्यापी परिपाटी ने हमें रियायत नहीं दी। हमने मांगी ही नहीं।
बिना लड़े पाओगे, सो खोने का दर्द कहां से होगा! याद है, नए राज्य की नवेली राजनीति का पहला पड़ाव विद्याचरण शुक्ल और अजीत जोगी के बीच मुख्यमंत्री होने की होड़ था। अजीत जोगी इस झड़प में जीते। पड़ाव आज तक वहीं का वहीं पड़ा है। तंबू का मालिक बदल गया है। जोगी इस दौर में भी छत्तीसगढिय़ा राजनीति की घड़ी के स्थाई पुर्जे हैं। कभी वे घंटे का कांटा थे। आगे मिनट का हुए। अब सेकंड का हैं। उनकी गति बदल रही है, वे चल रहे हैं। तब से लेकर आज तक, और अगले डेढ़-दो साल बाद जब फिर चुनाव लौटेगा। अभी अगले चुनाव में वे लोगों को महाभारत सीरियल की तर्ज पर कह सकते हैं- ‘मैं समय हूं।’ वे कौरव-पांडव किसे बताएंगे, इसका अनुमान आप लगाते रहिए।
सोचिए जरा, कांग्रेस ने वीसी और जोगी के घमासान में उस पब्लिक से रायशुमारी की थी क्या, जो राज्य बनने से अभिभूत से अधिक आश्चर्यचकित थी।


पॉलिटिक्स को समझनेवाले जानते हैं कि राजनीति में स्थायित्व कभी जनता के हित में नहीं होता। एक पीढ़ी पिछड़ जाती है और कई बार कई पीढिय़ां भी। जड़ता तंत्र को बूढ़ा और ढर्रे का बना देती है। सकारात्मकता कुर्सियां तोड़ते हुए दीवार पर घड़ी देखना नहीं है। आपने कभी मंत्रालय का दौरा किया है। नया रायपुर में सरकार का कारोबार जंगल में मोर नाचने की तरह है। मेरे विद्वान मित्र विभाष कहते हैं ‘जानते तो तापस, हमें राज्य बनने के बाद झूठ बोलते नए लोग मिले और एक नकली शहर, जिसका नाम है नया रायपुर।’ मैं उनसे सहमत नहीं था। किंतु असहमति के लिए भी अधिक गुंजाइश नहीं थी। सहमत मैं इस मामले में था कि कांग्रेस ने ही क्या कर लिया?

हम आज भी अजीत जोगी और विद्याचरण के उस बीते संघर्ष में जी रहे हैं। मेज वही है, आमने-सामने की कुर्सियों के चरित्र वही हैं। चेहरे बदल गए। अजीत जोगी, आज वीसी की भूमिका में हैं। क्या लगातार तीसरी पारी खेल रहे डा. रमन सिंह को हम अगला जोगी मान सकते हैं। इतिहास खुद को दोहराता है। दोहरा सकता है।

इतिहास से अनभिज्ञ नए लडक़े बदलाव की सडक़ की भीड़ हो चले हैं। वे अपनी बारी का इंतजार करते रहते हैं। उन्हें कॉलेजों के सामने घेरेबंदी, रटा हुआ राष्ट्रवाद, संशययुक्त धर्मनिरपेक्षता और फलां भैया जिंदाबाद ही आता है। वे जानते हैं कि बड़े नेता युवापन अपने बेटों और रिश्तेदारों में ही देखते हैं। बड़े नेता अपने नीचे युवा नेता चुनते हुए समाजवादी (मुलायम की पार्टी) हो जाते हैं, बाकी समय अपनी-अपनी पार्टियों के।

मुखालफत युवाओं से शुरू होती है। मंगल पांडे, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, खुदीराम बोस की तरह अनेक क्रांतिकारी जिस अवस्था में बागी हुए थे। गांधीजी भी युवापन से बगावती थे, उनकी बगावत में अहिंसा थी, ज्यादा मारक और असरकारक। आज सुनते रहते हैं- 'देश की 65 फीसदी आबादी युवाओं की है।' यह नहीं बताया जाता कि हमारा युवा कारपोरेट एक्सट्रीमिस्ट है। अपने नेता की जीत पर पार्टियां कर हमारे युवा जनता की संवेदना को पैग दर पैग उतारते रहते हैं। उन्हें मुखालफत और बगावत के अर्थों का अंतर मालूम नहीं है!
इतिहास की तरह मैं खुद का लिखा दोहराता हूं ‘वास्तविक युवा से तात्पर्य उम्र भी है, और स्वतंत्र पहचान भी। ’


- तापस ( इस पर आगे और भी लिख सकता हूं.. पसंद आया तो !!)

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