ये ‘मैं’ शब्द किसने बनाया होगा!
आदमी की अपनी आइडेंटिटी होती है। पर भी उससे सवाल पूछती है- तुम कौन हो? वो बताता है - जनाब, सर, महोदय, श्रीमान मैं, ‘मैं’ हूं।
‘मैं’ सभी का प्रिय शब्द है। मगर हर आदमी ‘मैं’ होकर भी दूसरे की नजर में केवल ‘तू कौन’ होता है? क्योंकि दूसरा भी अपने ‘मैं’ की गिरफ्त में होता है। कोशिश करें कि मैं दिनभर में ‘मैं’ नहीं बोलूंगा। कोशिश बेकार जाएगी। जुबान से नहीं पर मन में ‘मैं’ गंूजेगा।
ऊपरवाले सर्वशक्तिमान ने पहला मनुष्य बनाया। मनुष्य ने अपने से कई और मनुष्य बनाए। और ‘मैं’ हो गया। परमपिता ने उसे ‘मय’ होना बताया था। लाइक- करुणामय, दयामय, ममतामय। स्पेलिंग मिस्टेक हो गया भगवान। मय से ‘मैं’ हो गया। नीलेआसमान के शहंशाह ने तब से बारिश ही दी। कृपा नहीं दी। विश्लेषणशील मनुष्य परेशान हो गया। एप्रोच लगाकर वो ऊपरतक पहुंचा।
ऊपरवाले ने पूछा- ‘ओए. .. तू कौन? ’
दस्तकबाज ने कहा- ‘ओजी लोजी आप ही नहीं पहचान रहे। प्रभु ‘मैं’। देखिए ‘मैं’. . आपके सामने खड़ा हूं।’
मजाक के मूड में सवाल उछालकर दुनिया के रचयिता को जवाब में जो हकीकत मिली। उससे वे भयानक आश्चर्य में आ गए। किवाड़ बंद कर वे चिंतन में डूब गए।
‘मैं’ तो इकलौता मैं ही हूं पूरे सात आसमानों में?
इसके पहले की प्रभु अपने चिंतन को कन्क्लुजन तक पहुंचा पाते। एक और दस्तक हुई। ये ठक-ठक पिछली ठक-ठक से अलग थी। ‘नया बंदा।’ प्रभु दरवाजा खोलतेे उसके पहले आवाज आई-‘ दरवाजा खोलिए दीनानाथ.. . ‘मैं’ आया हूं। ’
इनवर्टेड कॉमा के अंदर इनवर्टेड कॉमा देखकर दीनानाथ ने उस दिन जो कपाट लगाए हैं। बस अब आगे मत पूछना।
अनंतकाल के शोध के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि इंसान को ‘मैं’ बनने के लिए सबूत चाहिए होते हैं।
पहला सबूत- लक। (आप कहां और किस परिवार में पैदा होते हैं। यह तकदीर है। यू नो कुंडली, घड़ी-नक्षत्र, वगैरह। इसे कंट्रोल नहीं किया जा सकता।)
दूसरा सबूत- परफारर्मेंस। (यहां अकार्डिंग टू दी सिचुएशन वाला नियम लागू होता है।)
तीसरा सबूत- अडाप्टेशन। (इसमें वे क्षेत्र और पद आते हैं जिनके जरिए हम रोटी-चावल का इंतजाम करते हैं और इस कैटिगिरी के हिसाब से दूसरे लोग हमें स्वीकारते हैं। सिंपल है कि बेटर विन्स। मतलब कि जो ज्यादा बड़ा है वही स्वीकार्य है।)
इन तीन सबूतों के आधार पर ‘मैं’ की डिग्री प्रदान की जाती है।
उदाहरण देखिए:
आप किसी मोहल्ले में जाएं। मोहल्ले के सारे लोग गेट पर जमा हैं। आप भीड़ में जाकर अपना परिचय देते हैं- ‘मैं.. .’
मोहल्लावासी आपसे चिपक जाने को आतुर हो जाएं तो जान लीजिए आपके ‘मैं’ में बड़ा दम है।
- ‘अरे आपको कौन नहीं जानता!’
ये ‘आपको कौन नहीं जानता’ वाला फील दुनिया में बेस्ट है। अतुलनीय।
आज के संदर्भ में कहें तो नरेंद्र मोदी या सलमान खान हो जाने वाला फील। मैं बहुत से ऐसे लोगों को जानता हूं। साधु-संतों को भी। जो ‘मैं’ को तजने कहते हैं। वे इस तरह आदेश देते हैं-
-‘मैं चाहता हूं तुम ‘मैं’ का त्याग कर दो।’
कुछ लोग इन महान मनुष्यों से बदतमीजी से पेश आते हैं।
- ‘ढोलकी के.. . मैं क्यूं ‘मैं’ छोड़ूं, तू ‘मैं’ छोड़।
महान मनुष्यों से होनेवाले इस अपव्यवहार से निराश होने की अनिवार्यता सामाजिक व्यवहार में नहीं है। ‘मैं’ को गेटआउट कह चुके लोग भी हैं दुनिया में। दुनिया ने उनके रस्ते लगा दिए यह दूसरा मसला है।
देखा जाए तो ‘मैं’ केवल कठोर नहीं होता। अहमसूचक नहीं होता। इसमें प्रेम भी होता है।
ये दो दृश्य परखिए।
क्लास की सबसे सुंदर लडक़ी को आई लव यू वाला मैसेज देने के बाद-
पहला सीन: लडक़ी- ‘किस कमीने ने यह मैसेज भेजा है?’
सन्नाटा। कोई आवाज नहीं। कोई ‘मैं’ नहीं।
दूसरा सीन: लडक़ी-‘ मैं जानना चाहती हूं कौन मेरे लिए अपनी जान तक दे सकता है।’
पूरी क्लास का एक-एक लडक़ा चिल्ला रहा होता है- ‘मैं.. . मैं..’
इस तरह से वे सभी अपने को ‘मैं’ साबित करने के लिए परफार्मेंस दे रहे होते हैं। (मैं होने का दूसरा सबूत।)
यह सच है कि ‘मैं’ से सच सामने नहीं आ पाता। सच ‘मैं’ नहीं होता। ‘मैं’ सच हो सकता है। ‘मैं’ का सच छिपाने के लिए ‘हम’ शब्द बनाया गया है।
एक टीम लीडर से पूछिए- ‘कप्तान साहब कौन है?’
गर्वभरी आवाज आएगी- ‘मैं हूं जी। ’
आप चमकाइए-‘तो काम इतना घटिया क्यों हो रहा है?’
डूबता स्वर सुनाई देगा- ‘हम कोशिश कर रहे हैं जी।’
‘मैं’ और हम में बस इतना फर्क है। बढिय़ा-बढिय़ा; ‘मैं-मैं’। बेकार-बेकार; ‘हम-हम’।
‘मैं’ को मिटाया नहीं जा सकता।
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