भारतीय समाज चाचाओं पर बड़ा बिलीव करता है। हमारे गांव-शहर के हर दूसरे घर का पहला आदमी चाचा होता है। सारी रिश्तेदारी बेईमान, अकेले चाचा का ईमान। मैं अपने प्यारे चाचा को याद करता हुआ न्यूज चैनल खोल लेता हूं। अरविंद केजरीवाल की झलक मिल जाती है। जैसे मेरे पिताजी के चाचा नेहरू थे। मेरे टाइम में केजरीवाल उपलब्ध थे। वैसे कन्फर्म बोल-ला हूं भैय्ये (कांग्रेसी माफी दे दें) केजरीवाल का चेहरा चाचा होने के ज्यादा करीब है। चिढ़ा हुआ, सिकुड़ा हुआ, सिंका हुआ और किस्तों में मुस्कुरानेवाला आदमी चाचा होता है।
केजरीवाल को देखकर मेरे अंदर से आवाज आती है ‘रेमटा कका।’ सुडक़ू। ‘एक मंदिर के दो दरवाजा..वहां से निकले..’ वाले। इतना डिफाइन करने के बाद केजरीवाल चाचा के ‘चचत्व’ के बारे में जानकारी देना अतिआवश्यक है। उनके चेहरे पर गौर फरमाइएगा जरा। ‘दुनिया में कितना झंझट है, मुझे ही कुछ करना होगा, कैसे करुं, यहां ये ठीक नहीं होगा, वहां वो बिगड़ेगा’ की मुद्रा उन पर सर्वदा विद्यमान रहती है। टिपिकल चाचा। मान लीजिए मैं आम आदमी पार्टी में शामिल हो जाऊं। केजरी चाचा मिलें तो उनके सामने पूरे उत्साह और मनोयोग से कहूं ‘मैं पार्टी के लिए काम करना चाहता हूं।’ वो कहेंगे ‘इतना आसान नहीं है। बहुत मेहनत करनी पड़ती है। तेल निकल जाता है। चारों ओर भ्रष्टाचार फैला है। अनशन करना पड़ता है। ये लड्डू नहीं है बेटा जो गपक लिए। रैली निकालनी पड़ती है। प्रैक्टीकल बनो।’
हो गया चाचा.. कर दी ना दिल तोडऩेवाली बात। ईमानदारी का टेंडर निकालो चाचा, हम भी फार्म भरेंगे। भ्रष्टाचार से लड़ेंगे।
मैं केजरीवाल को तब से जानता हूं जब वे नाना अन्ना हजारे और बड़ी मौसी किरण बेदी के साथ टेंट लगाकर राजनीति में वो क्या तो है?? हां.. . जबरन-लोकपाल; न.. .ना ... जनलोकपाल लाने का भाषण उगला करते थे। मुझे आदर्श-उसूल से भरा भाषण सुनकर समझ आ गया था, ये आदमी एक दिन चाचा बनेगा। हमारे यहां रिश्तेदारी की पहचान में यही चलता है। बिजली के नंगे तारों को जोडक़र चिपकाई जानेवाली काली टेप साइज की मूंछ के अलावा पूरा चेहरा क्लीन शेव्ड। निशानी है आम किस्म का चाचा होने की। चाचा भाषण पेलू हो तो खास हो जाता है। ठीक इसी तरह जिसकी दाढ़ी उसकी छाती से मिलने को बेताब हुई पड़ी हो वो बाबा या स्वामी बनता है। ये इंडिया का फैमिली कल्चर है। सबको अपना गेटअप सेट रखना पड़ता है।
मुझे याद आता है केजरीवाल चाचा के साथ एक 'चिकनी सूरत तू कहां था.. . अब तलक ये बता...' सादा मानव बैठा रहता था। मनीष सिसोदिया। बिल्कुल ताऊ। बड़े पापा। बड़े ददा। सिसोदिया का चेहरा एकदम चमकता है। उनका फोटू देखकर मेरे सेलून साथी ने बताया ‘देखा रोज फेसियल कराने का फायदा। तुम हो कि दो सौ के नाम पर नहीं बोल देते हो।’ अरे ये दूसरे रिश्तेदारों के चक्कर में मैं कहां भटक रिया हूं। चाचा पर आ जाते हैं। चाचा केजरीवाल को खांसी है। जिस माइक पर बोलता है, उसी पर बलगम छोड़ता है। सबके चाचा खांसते हैं। जो खांसे नहीं वो चाचा नहीं। जो बिना बात डांटे नहीं, चाचा नहीं। जो नसीहत न बांटे, चाचा नहीं। जो कम नंबर आने पर डांटे नहीं, चाचा नहीं। जो क्रांतिकारी न हो वो चाचा नहीं। .. और जो अपने सारे किए-कराए का हिसाब सिर्फ चाची को ही दे..समझो यही चाचा है सही।
केजरीवाल चाचा का चश्मा उनकी शराफत, ईमानदारी और उनका पकाऊ होना बयां करता है। कसम उड़ानझल्ले की इस भले मनुष्य ने कभी रे बैन फ्रेम ट्राई ही नहीं किया होगा। चाचा को यह प्लेन-पकाऊ चश्मा ही सूट करता है। वो थकेले लगते जरूर हैं, हैं नहीं। बेचारे चाचा गलत पॉलिटिक्स में आ गए हैं। सोचकर आए थे। ‘सरदार (ओ गुरु)खुश होगा। शाबासी देगा।’ सरदार शाबासी को भी घुमा-घुमाकर देता है। चाचा का कैल्कुलेटर खराब चल रहा है। सीट नहीं गिन पा रहे। पंजाब में जनसमर्थन परखने के नाम पर कपिल शर्मा का शो देखते हैं और सोचते हैं सरदार के पास जबर्दस्त समर्थन है। केजरीवाल चाचा को चांदनी चौक रोड की हालत दिख नहीं रही और पंजाब के खेतों में कैल्कुलेटेड रिस्क उठा रहे हैं। उनका कैल्कुलेटर ससुरा चाइनीज है। भगवंत मान ने खरीदा था। वो ही संसद का वीडियो बनानेवाला मान। पहले कामेडियन था। उसको दारुबाजी के लिए बदनाम कर रखा है। ठेके पर कोई लालबत्ती रुकी नहीं कि आवाज आती है.. ‘अंदर मान बैठा है।’ मैं भी उससे मिला हूं कभी बंदे ने सामने से नहीं कहा कि भाई मैंने ढकेल रखी है। चाचा को मान के बारे में पता है। लेकिन चाचा आजकल पहले वाला नहीं रहा। चाचा एडजेस्ट करने लगा है। कुदरत का सिद्धांत भूल गया चाचा।
चाचा को जब मन का मिल जाए तो वह चाचा नहीं रहता। बाप का भी बाप हो जाता है।
चाचा को राजनीतिज्ञ बनते देख अच्छा लगा था। नेता बनता देख बुरा लगता है। चाचा अपने लाल-नीले सरकारी मिडिल स्कूल के बच्चों जैसे स्वेटरों के बीच से गर्दन निकाले कैसा झांकते हुए जनलोकपाल-जनलोकपाल बोलता था। इधर अपन सोचते थे इसको अपने कॉलेज के लाइब्रेरियन का नाम कैसे पता! जनलोकपाल को उधर जंतर-मंतर और रामलीला मैदान बुलाकर कौन सा बुक छपवाएगा। उस टाइम कैसा चाचा टोपी में मफलर लपेटकर नीचे तक खींचता था। कैसा उसका टांग वो लाइट ग्रे ट्राउजर में झूलता था। चाचा अब भी उसी स्टाइल में डे्रस डिजाइन कराता है, ‘पण अंदर का चाचा बदल गया रे सर्किट। अंदर का चाचा बदल गया। मेरे को वो खटारा वैगन आर में नाक सुडक़ता बैठा चाचा अच्छा लगता था रे। ये इनोवा में चाचा नई जमता रे अपुन को।’
पाठकों से क्षमाप्रार्थना है। इस लेख को लिखते समय मुन्नाभाई एमबीबीएस चल रही थी। थोड़ी देर के लिए मुझमें मुन्ना आ गया था। केजरीवाल चाचा को मोदी फूफा से बैर नहीं पालना चाहिए। क्या कहा मोदी फूफा कैसे हुए? अरे हम कह रहे हैं कि हमारी कौन सी बुआ है। जो बुरा मान जाएगी। फूफा एक उपनाम है। फूफा रिश्तेदारों के बीच का डिक्टेटर होता है। बार-बार बुआ आकर समझाती रहती है ‘ तेरे फूफा बुरा मान जाएंगे, हनी सिंह का गाना धीरे बजा। लता मंगेशकर की कोई सीडी नहीं है? .. . समोसे लाया क्या? फूफाजी को इमली की चटनी पसंद नहीं। अलग से दही लाना .. . तेरे फूफा को पनियर चाय मत भिजवा देना, लाल हो जाएंगे.. . उनको सफारी पहनना ही पसंद है..उनका कहीं नाम लिखा हो तो खुश हो जाएंगे।’ मोदी का सूट देखकर फूफाजी यंू उछले थे, मानों हमारे दादा ने उनको शादी में सिंपल सियाराम कटपीस भिजवाकर अपराध कर दिया हो। रिश्तेदारी में फूफाजी स्पेशल आइटम हैं। अपने होकर भी पराए लगते हैं। पकड़-पकड़ कर बताते हैं ‘मैंने ये किया.. मैंने वो किया। देख लो मेरे गांव का हाल। विकास ही विकास है।’ विकास मेरे फुफेरे भाई का नाम भी है।
बैक टू केजरीवाल चाचा। उनकी पार्टी में एक सनकी मौसिया आया हुआ है। आशुतोष। बाल में सामने सफेदा घिस रखा है। लगता है एशियन पेंट्स का वो सामने बाल झुलाकर दीवार पोतने वाला लडक़ा बड़ा होकर पत्रकार बना और फिर बालों में सामने सफेदा रगडक़र आशुतोष। झन्नाटी सनकी है भाई वो। रिपोर्टर लोग को डांटते-डपटते रहता है। अब भी उसको लगता है कि उसका दिया हुआ असाइनमेंट पूरा नहीं हुआ। उसको बताना पड़ता है ‘ मौसा..तुम अब आईबी सेवन में नहीं हो। तुम आईबी चढ़ाए हुए लगते हो, झल्लाते हुए। छोटी मौसी को कहके तुम्हारे सामने की जुल्फों में काला कलर चढ़वाना पड़ेगा। तुम शहंशाह नहीं हो मौसा। तुम आम आदमी हो। आम आदमी डाई करता है। केजरीवाल चाचा को देखो।’
मेरे को वो स्पीच याद आ रही है चाचा। मेरी क्लास में सोशल कम पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर ने बोली थी-
ये देश स्वार्थी मानसिकताओं से भरा हुआ है। पूर्वाग्रह हमारे खून में है। हम शक करना छोड़ नहीं सकते। हमें हर ईमानदार आदमी डबल गेम खेलनेवाला लगता है। खोखला आदर्शवादी लगता है। ढोंगी लगता है। खोट हममें है। आजादी मिलने के बाद हमने अपने को पार्टियों के हवाले कर दिया। पार्टियों ने अंग्रेजों का छोड़ा हुआ सामंतवाद फैलाया। इस प्रथा का विरोध करनेवाला हमारे देश में नायक नहीं बन सकता। हमको नेता का बेटा नेता ही पसंद है। अमीर का बेटा अमीर ही पसंद है। ठेकेदार का बेटा ठेकेदार ही पसंद है। हम अपनी चाबियां पार्टियों को सौंप चुके हैं। वे हमें खोलते और बंद करते हैं। हम खुश रहते हैं कि हम उन्हें चुनते हैं। असल में उन्होंने हमारा चुनाव कर रखा है। वे हमें हमारी जाति-वर्ग, धर्म, रुझान और पैसे के हिसाब से चुनते हैं। खैर.. . उस प्रोफेसर को कॉलेज से निकाल दिया गया चाचा। छात्रसंघ चुनाव में दारु बांट रहे जिला अध्यक्ष के बेटे को उन्होंने रोका था। प्रोफेसर को सरेआम पीटा लडक़ों ने। उसका चश्मा तोड़ दिया। उसके चश्मे का टूटा फ्रेम मैंने उठा लिया था चाचा। प्रोफेसर को बचाने की हिम्मत नहीं थे मेरे में। तुम मेरे को उस प्रोफेसर की याद दिलाते हो चाचा। तुम इकलौते ऐसे हो चाचा जो हर बात को पकड़ते हो। राजनीति में यही एक गांधीवाद है चाचा। हर बात को पकडऩा। उससे होनेवाला अच्छा-बुरा देखना। धारा के विपरीत तैरनेवाला आदमी जुझारू हो जाता है। तुम जूझते रहो चाचा। अपने आसपास के माहौल को संभालो चाचा। तुम्हारी इमेज बिगड़ रही है। हम लोग को परिवारवादी नेताओं की चौखट चूमने की आदत लगी है। तुम जैसा कोई चाचा आकर कड़ाई से सही पर सबक सिखाता है। आड-ईवन मस्त है चाचा।
तुम रेयर देन रेयरेस्ट बने रहो चाचा। जब तक तुम ईमानदार हो। चाचा बने रहोगे।
पंजाब चुनाव में तुम नशे को मुद्दा बना रहे हो चाचा। मैं कहता हूं तुम ईमानदारी को पकड़े रहो। तुमको देश की जनता ईमानदार मानती है चाचा। ईमानदारी को सही पकड़े रहना।
No comments:
Post a Comment