मैं लिखता हूं ‘सोचिए कि आदमी एक नोट है’, यह लिखते हुए मैं स्वयं संशय में था। संशय यह कि यदि आदमी नोट होता तो क्या होता..!
एक्च्युली मैं मानता हूं कि आदमी एक नोट है। उसका अपना कुछ नहीं है। पहले वो सिक्का था। आजकल नोट है। सिक्के बंद हो रहे हैं। सिक्के वजनदार होते हैं, अपनी कीमत के मुकाबले, इसलिए उन्हें चलन से बाहर किया जा रहा है।
आप मेरी अवधारणा को पूरी ताकत से काटिए। बोलिए-लिखिए ‘आदमी नोट नहीं है। आदमी कैसे नोट हो सकता है? सजीव और निर्जीव का फर्क होता है मिस्टर तापस चतुर्वेदी.. . यू ब्लडी होपलेस मैन। आदमी ने बाजार के लिए नोट बनाया। यह उसका अविष्कार है। नोट से आदमी थोड़े ही बनेगा। दिमाग नाम की भी कोई चीज होती है। नोट में दिमाग कहां फिट होगा?’
आपका सवाल पूरा हो गया हो? तो मैं जवाब दूं।
नोट को आदमी बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसके पास ऑलरेडी इतने गुलाम हैं। वह किफायत से काम करता है। उसे दिमाग नहीं चाहिए। उसने आदमी के दिमाग को कब्जा रखा है। इंटेलीजेंसी की कीमत नोटों से तौली जाती है। इंटेलीजेंसी का ताल्लुक दिमाग से है। मैंने कहीं पढ़ा था, शायद फासीवाद पर लिखी एक किताब में- ‘आजादी एक भ्रम है। शरीर को स्वतंत्र किया जा सकता है, पर मन ..!’
पूरी दुनिया दो अवधारणाओं पर टिकी है- दार्शनिकता और अर्थव्यवस्था।
मैं तर्क नहीं दूंगा। आप अपनी अवधारणा बनाइए, और बूझिए कि आप नोट क्यों नहीं है?
आप बाजार का पुर्जा नहीं हैं, तो तर्क दीजिए कि क्यों नहीं हैं? मुझसे ज्यादा खुद को कनविन्स कीजिए। आप पहले सिक्के थे, फिर नोट हुए, छोटे से बड़े हुए। पांच से दस और दस से हुए होंगे सौ, और आज दो हजार तक पहुंच गए होंगे। आपने एक नोट की मानसिकता रखते हुए अपनी वैल्यू पर काम किया। आपकी नकल न तैयार हो, इसका भी पूरा ध्यान रखा।
लेकिन हो सकता है आपकी नकल न सही, आपका रिप्लेसमेंट तैयार कर लिया गया हो। आपको इसकी खबर न हो।
नियति (भौतिक रूप में सरकार)आपका रिप्लेसमेंट तय करती है। वह इसकी घोषणा अचानक ही करती है। आपके पास मौका नहीं रहता। आप ठगे के ठगे रह जाते हैं- ‘अरे यार, कम से कम 24 घंटों का वक्त तो देना था।’
मैंने नोट और आदमी को समान बताते हुए आत्मा के कांसेप्ट को कॉपी किया था- आत्मा कभी मरती नहीं, शरीर बदलती है।
नोट हमारी धार्मिक-अलौकिक मान्यताओं का पालन करता है। उसने शरीर बदल लिया, उसकी आत्मा वही है।
आप कहेंगे- ‘यार, हजार का नोट तो फिर से नहीं आया। उसकी आत्मा का क्या हुआ? ’
मैं कहूंगा- ‘उसकी वैल्यू बरकरार है। वो सशरीर मौजूद नहीं है। उसकी अदृश्य उपस्थिति बरकरार है। हाल ही में शरीर बदल चुके पांच सौ के नोट को जरूरत पडऩे पर हजार बनाया जाता है। दो पांच सौ के नोट... हजार के नोट की पूर्ति कर रहे हैं। वैसे ही नएवाले दो हजार के नोट से हजार का सामान खरीदा, तो दो पांच सौ के नोट मिल सकते हैं।
जो शुरुआत है, दरअसल वही अंत है।
हजार के नोट की वैल्यू वही की वही है, बस वह दिख नहीं रहा। उसकी आत्मा भटक रही है। मतलब आज हजार का नोट हमारे बीच नहीं रहा, मगर उसका अस्तित्व बना हुआ है।’
नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:
(गीता के इस श्लोक को हजार के नोट की आत्मा से जोडक़र जानें- आत्मा को शस्त्र भेद नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी गला नहीं सकता और हवा सुखा नहीं सकती)
क्या दुनिया कभी कैशलेस हो सकती है। यानी मानव का भौतिक अस्तित्व न हो, अदृश्य उपस्थिति बनी रहे। वायदा बाजार की तरह, मुंह की बोली ही सबकुछ। शरीर नहीं, आत्मा सही।
यहां मैं फलसफा लिखूंगा- दिल पर हाथ रखकर कहिए कि आपका अस्तित्व नोट से अलग नहीं है। जरा मेरी सोच से अपनी सोच मिलाइए। आपका होना हजार के नोट के होने की तरह है। आपकी आत्मा बरकरार है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन आज आप जहां हैं, वहां कल नहीं रहेंगे क्योंकि कल जहां थे, आज वहां नहीं हैं। आपके जाने पर (बिल्कुल हजार के नोट की तरह)आपके बारे में बातें होंगी, आपके तौर-तरीकों पर बातें होंगी, आपके काम पर बातें होंगी, आपकी उत्पादकता पर चर्चा होगी, आपकी वैल्यू पर विचार होगा। आप सशरीर नहीं रहेंगे वहां, मगर बने रहेंगे ख्यालों में। ज्याती फायदे के लिए आपको उद्धृत भी किया जाएगा- ‘अरे फलां था तो ये था, वो था.. वो ऐसा करता..वैसा करता.. अरे वो कुछ नहीं था.. अरे वो बहुत कुछ था.. । ’
आप स्वाइप होते रहेंगे। आपकी तरह सभी लोग इस नियति के अनुचर होंगे। स्वाइप होंगे। क्रमानुसार।
और एक दिन पूरी दुनिया कैशलेस हो जाएगी।
इट मीन्स- मृत्यु अंतिम सत्य नहीं है। भौतिकता अनिवार्य नहीं है। आत्मा का अस्तित्व है। हजार के नोट की तरह।
कैशलेस होने का एक लाभ मुझे दिख रहा है- ‘आदमी पाखंडी होता है, आत्मा नहीं। ’
-आपका तापस