मुलायम सिंह यादव अपने भाई को ज्यादा प्यार करते हैं? अपने बेटे को ज्यादा प्यार करते हैं? अपनी पार्टी को ज्यादा प्यार करते हैं? या खुद को सबसे ज्यादा प्यार करते हैं?
समाजवादी पार्टी में एक ही नेता है, मुलायम सिंह यादव। उत्तरप्रदेश की रेलमपेल राजनीति की जड़ों में फैले परिवार के मुखिया, जिन्होंने समाजवाद और परिवारवाद के दायित्वों को हरसंभव प्रयास कर निभाया है। उन्होंने समाजवाद के भाव को भौतिक बनाते हुए उसे समाजवादी पार्टी बना दिया। परिवार के हर आदमी को काम देने की खातिर उन्होंने इस समाजवादी पार्टी में अपने हर रिश्तेदार को कुछ न कुछ बना दिया। बेटे को मुख्यमंत्री, भाई को मंत्री और कल मंगलवार को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। उनके परिवार में जिस बच्चे का जन्म अभी नहीं हुआ है, वो भी अपनी लांचिंग से पहले सपने बुन रहा होगा कि उसे कौन सा पद मिलेगा। समाजवादी यादव परिवार में पैदा होनेवाला बच्चा पहले मां..पापा.. नहीं बोलता, उसका पहला शब्द होता है 'नेताजी'। समाजवादी पार्टी असल में यादव समाज पार्टी है। सुना है उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह के आदेश पर सरकारी नौकरियांं यादवों को ही मिलती हैं। सबसे बड़े प्रदेश की राजनीति इसी तरह चलती है। वहां समाज की प्रथम इकाई परिवार को सत्ता में दाखिला दिला देने की क्षमता रखनेवाला 'नेताजी' होता है। लोग गर्व से कहते हैं नेताजी।
यह देश की सरकार तय करनेवाला प्रदेश है, जहां हिंदी अपने वास्तविक रूप में मिलती है। सपा का अंग्रेजी नाम एसपी है, खांटी उत्तरप्रदेश का आदमी कहता है - यसपी। अंग्रेजी को उसकी औकात बताई जाती है। मुलायम सिंह यादव ने एक बार संसद में हिंदी की पुरजोर हिमायत की थी। मुझे लगता है कि राष्ट्रस्तर पर वह उनका अनुकरणीय कदम था। पहलवान से नेता बने मुलायम ने अपने कट्टर समर्थकों को सरकारी नौकरियां दिला-दिलाकर पार्टी का एक स्थायी वोट बैंक तैयार किया है। भाई शिवपाल यादव ने उनका संघर्ष देखा है। सरकार बनाने की उनकी जुगत में बराबर का साथ दिया है। बेटा अखिलेश यादव अलग ही निकला। वह न तो पूरा समाजवादी है और न परिवारवादी।
उत्तरप्रदेश में यह नहीं चलेगा। समाजवादी पार्टी में यह नहीं चलेगा। नेताजी की पार्टी में स्वतंत्र सोच मान्य नहीं है। अमर सिंह मान्य हैं। आजम खान मान्य हैं। मुख्तार अंसारी मान्य हैं। स्वतंत्र सोच मान्य नहीं है।
देखिए हमारे कुछ राष्ट्रीय समाचार चैनलों की बहस। बहस का मुद्दा है- "अब नेताजी कौन सा कदम उठाएंगे! उनका निर्णय किस पक्ष में होगा! चाचा-भतीजे में नहीं पट रही। परिवार की लड़ाई का कारण हम बताते हैं!"
इन बहस कार्यक्रमों का विषय तैयार करनेवाले, इन्हें प्रस्तुत करनेवाले और इनमें बैठे वरिष्ठ पत्रकारों को उत्तरप्रदेश से मतलब नहीं है। उन्हें अपना 'मजीठिया' मिल चुका है इसलिए चाचा-भतीजे की लड़ाई में मजा आ रहा है। वे मुलायम सिंह की कर्मगाथा बयान कर रहे हैं, जैसे उन्होंने उत्तरप्रदेश को अंग्रेजों से आजादी दिलवाई हो।
एक संवाददाता कह रहा था- "अभी एक आदमी अखिलेश यादव और शिवपाल यादव से मिलेगा। उससे पता चलेगा कि आगे क्या होगा!"
क्यों भाई वो जो चाचा-भतीजा से एकसाथ मिलेगा, तुम्हारी मौसी का लडक़ा है क्या? जो दो अलग-अलग बैठे लोगों से एक ही वक्त पर मिलेगा। यहां न्यूज एंकर कह रहा है- "हां ठीक है, हमारे साथ लाइन पर बने रहिएगा। अब हम चलते हैं दिल्ली के अकबर रोड स्थित मुलायम सिंह के बंगले पर।"
वहां का संवाददाता कह रहा है-" यहां तो अंदर मुलायम सिंह यादव गायत्री प्रसाद प्रजापति से बैठक कर रहे हैं। कैमरे की मनाही है। ये वही प्रजापति हैं जिन्हें अखिलेश ने अपने मंत्रिमंडल से बाहर निकाल दिया है। "
न्यूज एंकर पूछ रहा है- "नेताजी क्या सोच रहे होंगे, पता कीजिए।"
संवाददाता कह रहा है-" जी, मैं पता करता हूं। "
क्यों भाई तुम बंगले के सीसीटीवी कैमरों का लिंक ले लिए हो क्या? मुलायम की सोच तक दिख जाएगी तुमको।
मुद्दा यह है: समाजवादी पार्टी किन तत्वों से बनी है, बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। मुलायम सिंह यादव का निर्णय सर्वमान्य होगा, बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। मुद्दा यह है कि अगर अखिलेश यादव ने बाहुबली (अपराध माफिया चलानेवाले) मुख्तार अंसारी की कौमी एकता पार्टी के सपा में विलय की खिलाफत की तो क्या बुरा किया? अंसारी ने उत्तरप्रदेशभक्ति, देशभक्ति का ऐसा कौन सा काम किया है? अंसारी अगर सबसे ताकतवर यादव परिवार में फूट पडऩे की वजह हैं तो मुलायम सिंह को संन्यास ले लेना चाहिए। शिवपाल सिंह की नजर में अंसारी वोट बैंक बढ़ाएंगे। अखिलेश मानते हैं, अंसारी जैसे अपराधजनित नेता उनकी सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाएंगे।
बिना एक क्षण सोचे, मेरे पढऩेवाले समझ गए होंगे कि कौन सही है, कौन गलत।
शिवपाल यादव उस राजनीति के पक्षधर हैं, जिसमें जैसे भी हो, वोट मिलने चाहिए। यह उत्तरप्रदेश की बाहुबलीचरित राजनीति का सच है। आधार है। अखिलेश यादव अनुभवहीन सही, बच्चे सही, लेकिन वे इस मामले में सही है।
शहाबुद्दीन को लालू प्रसाद ने इस्तेमाल किया। आज वही लालू सफाई देते फिर रहे हैं। अंसारी कोई शहाबुद्दीन से अलग नहीं हैं। क्या उत्तरप्रदेश के नेताओं के लिए इसलिए तालियां बजती रहनी चाहिए कि वे अपराध से निकलकर राजनीति में आते हैं। मिथक है या सच कि वहां ग्राम प्रधान होने के लिए भी एक धारा 307 का केस जरूरी है। अखिलेश यादव यदि इस परंपरा की मुखालफत करते दिख रहे हैं तो वे शिवपाल और मुलायम से ज्यादा सही हैं। आरोप मढ़ा जा रहा है कि उन्हें अपनी छवि की चिंता है। अगर कोई मुख्यमंत्री अपनी पार्टी में किसी गुंडे को नहीं देखना चाहता, तो किस नजरिए से गलत हुआ? बहस अंसारी जैसे बाहुबलियों के सीधे सत्ताधारी पार्टी में प्रवेश पर होनी चाहिए।
नेताजी का परिवार उत्तरप्रदेश को नहीं चलाता, जो उस परिवार में फूट से वहां गंगा का बहना रुक जाएगा।
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