Friday, 25 November 2016

लक्ष्य अगर गैर-भाजपा राज्य हैं, ऐसे में नोटबंदी कहीं राजनीति तो नहीं !


सरकार के प्रति पूर्ण निष्ठा रखते हुए यह आलेख लिख रहा हूं। मोदीजी के भक्त नाराज न हों। कांग्रेसी खुश न हों। बाकी के जितने दल हैं, वे बत्तीसी न चमकाएं।


कर्नाटक के बेल्लारी बंधुओं (जनार्दन रेड्डी, सोमशेखर रेड्डी और करुणाकरण रेड्डी) के घर हुई 500 करोड़ रुपए की शादी की खबर मीडिया में खूब उछाली गई थी। भाइयों-बहनों (मितरों) तब नोटबंदी की घोषणा हो चुकी थी। घोषणा 8 नवंबर को हुई और शादी 16 नवंबर को।

नोटबंदी के बावजूद जनार्दन रेड्डी की बेटी की शादी की भव्यता में पांच रुपए का भी फर्क नहीं आया था। कागजों में अरबपति और हकीकत में खरबपति जनार्दन रेड्डी अवैध खनन मामले के सबसे मशहूर आरोपी हैं। रेड्डी की बंफाड़ संपत्ति के पीछे उनके भाजपा से जुड़ाव को कारण बताया जाता है। कर्नाटक बीजेपी के तारणहार येदियुरप्पा के कालर के बटन हैं जनार्दन रेड्डी,  फिलहाल सुप्रीम कोर्ट से जमानत पर हैं, पूर्व में 40 महीने जेल में रहकर आए हैं।
40 का अंक येदियुरप्पा और रेड्डी के बीच संबंध बना रहा है।
 हाल में आए एक फैसले में रेड्डी के आराध्य नेता येदियुरप्पा को 40 करोड़ के अवैध खनन केस में सीबीआई की विशेष अदालत ने साजिशकर्ता नहीं माना है। अफवाह थी कि कर्नाटक भाजपा ने अपने नेताओं को जनार्दन रेड्डी की बिटिया की शादी में जाने से मना किया है, लेकिन येदियुरप्पा भाजपा के नेताओं को साथ लेकर गए। इसके  पांच दिन बाद इनकम टैक्स ने रेड्डी के माइनिंग ऑफिस में रेड की। तस्वीर को उल्टा कर देखें तो जनार्दन रेड्डी को पूरा मौका दिया गया।

इतना पुराण सुनाने के पीछे का मकसद है एक भूमिका खड़ी करना। भूमिका नोटबंदी के बाद जन-धन खाते में आ रहे करोड़ों-अरबों रुपए और इसके पीछे राजनीति होने के संदेह की।   इस गुरुवार तक पूरे देश के जन-धन खातों में 21 हजार करोड़ रुपए आ चुके हैं। इसमें कर्नाटक का नंबर दूसरा है। कर्नाटक से ही टेबुलाइड समाचार उठे थे-" नेता टेंट लगाकर पैसे बांट रहे गरीबों को।"

 जानते हैं जन-धन में धनवर्षा (अखबारी सरकारी सूत्र के हवाले से) में पहला नंबर किस राज्य का है?
पहला है बंगाल। बाबू मोशाय पहले इसको ‘पोश्चिम बोंगोल’ बोलते थे। अब खाली 'बोंगोल" है- "आमी सोनार बोंगोल।"
गुस्सैल ममता बनर्जी ने नोटबंदी के खिलाफ अराजक केजरीवाल और एटीएम कतार के कलाकार राहुल गांधी से अधिक मुखरता दिखाई है। दिल्ली में राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया। अगले दिन केजरीवाल के साथ भाषण में  कह रही थीं- "मेरे को हिंदी बोलना ठीक से नेई आता। सरकार का फैसला से गोरीब (गरीब)पोरेशान (परेशान) है।"
अब मैं ही लिखता रहूं कि आप चिंतन करेंगे, आपके चिंतन को दिशा दिए देता हूं-

> >बंगाल में बीजेपी की नजर मोदी के आने के बाद से है । वहां पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने बड़ा जोर मारा। परिणाम रहा 294 सीटों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को 211 सीटें और बीजेपी को मिली सिर्फ और सिर्फ 6, यानी मोदी लहर फेल, मोदी  फेल।
>> कर्नाटक में भाजपा को खड़ा करनेवाले येदियुरप्पा का जादू खत्म हुआ, यहां सत्ता गंवाकर बीजेपी सिकुड़ गई । साउथ में कर्नाटक बीजेपी का सेंटर है । पार्टी दक्षिण भारत में आगे बढ़ने की योजना पर कर्नाटक से काम कर रही है। वहां की 224 सीटों में 122 कांग्रेस के पास है, बीजेपी के पास हैं 40 सीटें। कर्नाटक की सरकार गंवाने का गम भाजपा को टीस रहा होगा।

मैं दोहरा रहा हूं कि सरकारी एजेंसियों ने जन-धन में पैसे आने की बाढ़ में इन दोनों राज्यों को आगे बताया है।
संभावना इसकी भी है कि बंगाल और कर्नाटक में वाकई फर्जीवाड़ा हो सकता है। ममता बनर्जी इसलिए ही नोटबंदी के विरोध में उतरी होंगी, उनकी पार्टी पर नोटबंदी से आंच आई होगी। कार्यकर्ताओं ने दबाव बनाया होगा। मोमता दीदी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ा गया होगा।
मोमता ने इधर मार्च निकाला, उधर सरकारी एजेंसियो ने सभी राज्यों के बैंकों से जन-धन खातों की रिपोर्ट मंगाई, और भाइयों-बहनों (मितरों) बंगाल टॉप कर गया। मोदीजी के लहजे में कहूं तो-" देखा.."

मैं इन राज्यों को उदाहरण मात्र के तौर पर बता रहा हूं। क्या सरकार कालेधन के नाम पर डरा रही है? क्या पहले यह कालेधन पर वार का ऐतिहासिक फैसला था और अब राजनीतिक होता जा रहा है? डर भाजपाशासित राज्यों में क्यों नहीं है? सरकारी एजेंसियों से खबरें उछाली जाती हैं " सारे खातों पर पैनी नजर है। जन-धन में आ रहे पैसों का हिसाब देना होगा। कोई नहीं बचेगा।"

डराया किसे जा रहा है, कालाधन रखनेवालों को! या गैरभाजपाशासी राज्यों की सरकारों को!
शक के बहुत से कारण हैं कि नोटबंदी सरकार का एक निष्पक्ष निर्णय नहीं था।  बंगाल की भाजपा इकाई ने नोटबंदी लगने से पहले तीन करोड़ रुपए बैंक में जमा कराए। नोट थे 500 और 1000 के। बिहार में भी जमीन खरीदी गई करोड़ों की। दूरदर्शन का पत्रकार कह रहा है "मोदी का आठ नवंबर वाला घोषणा भाषण लाइव नहीं था। "
भाजपा ने प्रचारित किया है- मोदी के अलावा कोई नहीं जानता था बड़े नोट बंद किए जाने का फैसला। वित्तमंत्री अरुण जेटली और आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल को भी नहीं मालूम था । क्या मजाक है? जेटली पूरे देश के नोट गिनने का ठेका रखनेवाला मंत्रालय संभालते हैं और उन नोटों पर हस्ताक्षर करने का अधिकार है उर्जित पटेल को। दोनों भोले-मासूमों को कानों-कान खबर नहीं मिली।  फिर उसी रात सिस्टम कैसे सक्रिय हो गया!  जैसे उसको पता हो कि  आज से काम पर लगना है।  चलिए ये जेटली और पटेल नहीं जानते थे, तो फिर मोदी भर के जान लेने से पूरी मशीनरी सक्रिय हो गई। मोदी ने अकेले ही सब कर लिया। नए नोट छपवा लिए। उनको बैंकों में जाने के लिए तैयार करवा लिया और अचानक आठ नवंबर को घोषणा कर दी।
नोटबंदी क्यों एक पॉलिटिकल स्टंटबाजी लग रही है।
अंत में गरीब के साथ होनेवाला खेल जानिए-
बिहार के बेगूसराय में मजदूर सुधीर कुमार को इनकम टैक्स का नोटिस मिला लिखा था कि उसके अकाउंट से साढ़े तीन अरब रुपए का ट्रांजेक्शन हुआ है। उस बेचारे मजदूर का सोचिए जिसने जिंदगी का पहला सरकारी परचा देखा होगा, और वो भी इनकम टैक्स का । सुधीर को जब सरकारी पुर्जा मिला, उसके अकाउंट में सिर्फ 416 रुपए थे।

मामला सामने आने के बाद इनकम टैक्स विभाग ने सफाई दी है कि बैंक से गलती हो सकती है। जांच होगी। भला हो नीतीश कुमार का, जो नोटबंदी का शुरुआती समर्थन  कर दिया था। नहीं तो सुधीर कुमार नप सकता था!!!! (यह एक अतिश्योक्तिपूर्ण बात है, पर सम्भव भी)
वैसे केंद्र के राडार पर नीतीश भी हैं! मैं बिहार और उत्तरप्रदेश के जन-धन खातों के आंकड़े जानने को बेसब्र हूं। देखते हैं सरकार कब अथेंटिक आंकड़े जारी करती है। यूपी में चुनाव आने को है। बूझिए आगे.. नोटबंदी का क्या फर्क आएगा वहां की राजनीति में।

( एक सूचना कॉम्प्लीमेंट्री- जनता परिवार से कांग्रेस में आए सिद्धारमैया कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस ने वहां बीजेपी शासनकाल के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा था। पिछले दिनों सिद्धारमैया पर आरोप लगा है कि उन्होंने एक इंजीनियर से 60 लाख की घड़ी ली)
 नए नोटों के लिए कतार में हैं ! तब तो बहुत वक़्त पड़ा है, सोचते रहिए...


Thursday, 24 November 2016

मैं यदि नेता बनना चाहूं / संदर्भ: राजनीति में युवाओं की भागीदारी


नए नेता पुरानों से बेेहतर होते हैं। क्योंकर पुराने नेताओं की मृत्यु के बाद हम उन्हें पूजते हैं। पुरानों की महानता का पूरा सम्मान करते हुए याद रखिए कि आप भी एक दिन पुराने होंगे। क्या हो कि नयापन वक्त से पहले ही पुराना हो जाए !(छत्तीसगढ़ की राजनीति में युवाओं के अभाव पर यह आलेख केंद्रित है)
छत्तीसगढ़ का कोई एक वास्तविक युवा नेता बताइए जिससे आप उम्मीद लगा सकते हैं? आप फलां भैया जिंदाबाद से आगे की सोच सकते हैं क्या?
वास्तविक युवा से तात्पर्य उम्र भी है, और स्वतंत्र पहचान भी। गोद में बैठे बच्चे कभी-कभी दाढ़ी मूड़ जाया करते हैं। बच्चों की मार्केटिंग जो न करा जाए वो कम।

हमारे नए युवा नेताओं को भाषण तक देना नहीं आता और यह उनका अपरिपक्व होना नहीं है। उन्हें बोलने ही नहीं दिया जाता। वे कहां बोलेंगे! वे मंचों के पीछे व्यवस्था में लगे हैं। मंच की सीढिय़ों पर ऊपर जाते कदमों की धूल उनके सफेद लिबास पर पड़ रही हैं। वे एक ओवर बजट फिल्म के स्पॉट ब्वॉय का प्रतिरूप हैं। सभी कतारबद्ध होकर मीडिया के हर उस बंदे से संपर्क रखते हैं जो उन्हें सिंगल कालम के समाचार में नाम लिख जाने तक की जगह दे सकता है। उन्हें संगठनों में पद चाहिए। वे इसके लिए खुद को तैयार नहीं करते। ऐसा करना चाहते हैं पर करने नहीं दिया जाता। मजबूरन वे परिपाटी का पालन करते हैं।

बड़े नेता के करीब जाओ। नारे लगाओ। उसके करीबी से करीबी हो जाओ। पहले के करीबी को रास्ते से हटाओ। ध्यान रखो कि यह प्रक्रिया तुम्हारे साथ कोई दूसरा न दोहराए। नेता के उठने का इंतजार करो। पद पाओ। स्वयं नेता बन जाओ। अपने नीचे उनको ही चुनो, जो तुम्हारा तरीका अपनाकर नेता बनना चाहते हैं। फिक्स पैटर्न।

सही है, मैं एक सीमा में बात कर रहा हूं, वरना पूरे देश की राजनीति ने इससे ज्यादा विकास नहीं किया। किसी राज्य के बनने से वहां के युवाओं को कम से कम राजनीति में अपने अवसर सुरक्षित हो जाने का भ्रम नहीं पालना चाहिए। मैंने छत्तीसगढ़ को एक सैंपल की तरह लिया है, कारण है कि यहां की राजनीति मैं बचपन से देख रहा हूं। आप सैंपल को देश का पूरा गो-डाउन मान सकते हैं। बुराई नहीं है।

सभी संदर्भों में आप पूर्व और वर्तमान मुख्यमंत्री के सपूतों से ध्यान हटाकर कहां तक देख सकते हैं, देख लीजिए। पूर्व-भूतपूर्व और वर्तमान मंत्रियों के बेटे भी अलग खड़े नजर नहीं आते। वे अपने पिता की परछाई होते हैं। राज्य में युवाओं को स्टार्टअप्स के लिए प्रेरित किया जा रहा है। मैं यदि नेता बनना चाहूं? युवा हूं, स्वतंत्र तथा सर्वहित के विचार रखता हूं, सेवा की भावना है। एक स्वाभाविक मनोभाव के तहत मैं मुख्यधारा की राजनीति में स्वयं को देखना चाहता हूं। युवाओं के पैरोकार जरा बताएं कि मुझे किस सरकारी योजना से ऋण मिलेगा, जिससे मैं स्वागत में बैनर-पोस्टर लगाऊं। सभाओं में भीड़ लाऊं। सडक़ों पर  गुलाब बिछाऊं। जन्मदिन में अखबारों को विज्ञापन दूं!

मुख्यमंत्रीजी मैं आपको पहले बड़े गौर से सुनता था। आजकल नहीं सुन पा रहा हूं। हर जगह की तरह यहां भी शोर बहुत है। मन की बात। रमन के गोठ। कितना सुनंू। मैंने सुनना छोड़ दिया है। दिल्ली में जेएनयू है। हमारे यहां भी एक दिन होगा। दुआ करता हूं कि दिल्ली का डुप्लीकेट न हो। हालात बदलते हैं। हम और आप उस समय अपनी आज की स्थिति में न रहें, यह दूसरा विषय है। पहले सभाओं में रिपोर्टिंग करते हुए मैं आपकी सहजता से प्रभावित था। आप नया लेकर नहीं आएंगे, लग जाता था पर साथ में जिज्ञासा रहती थी कि आप पुराने दौर को याद रखते हुए नया सोच पाएंगे। आज आप क्यूं मुझे डॉक्टर, इंजीनियर नहीं बन पाने पर स्वयं का व्यवसाय खड़ा करने को प्रेरित कर रहे हैं। राजनीति में आने के लिए मेरा इंटरव्यू लेने में संवैधानिक आपत्ति लग सकती है क्या? क्योंकर आपके पास ही सर्वाधिकार सुरक्षित हैं? आप विधानसभा में चाणक्य को उद्धृत करते हैं, किंतु चंद्रगुप्त नहीं खोजते। सोलह साल में किसी वास्तविक गरीब के बेटे को नीति बनाने लायक पद मिला है?


आप उसी परिपाटी पर चल रहे हैं जिसने कभी आपके लिए विषम परिस्थितियां पैदा की थीं। आप सत्ता प्रमुख हैं, इसलिए संबोधन आपको है। आपके स्थान पर अजीत जोगी, भूपेश बघेल या कोई और (जो निश्चित ही युवा नहीं होगा) होंगे, तब भी मैं यही सवाल करुंगा। मैं बीजेपी-कांग्रेसी या अन्य में नहीं हूं। मैं निरपेक्षों की लुप्तप्राय प्रजाति से हूं। संभावनाएं मुखिया तय करता है। मुखिया बदलाव ला सकता है। मेरा सवाल इसलिए आपसे है।

आपसे हटकर पाता हूं कि छत्तीसगढ़ की राजनीति फंसी हुई है। असल में यह राज्य के बनने की प्रक्रिया के कारण हुआ। पेड़ का सेब अधिकारपूर्वक तोडऩे और उसे छील-काटकर खिलाने में फर्क है। हमें सेब मिल गया। स्वीकारने में सहर्षता होनी चाहिए कि हमने राज्य के लिए संघर्ष नहीं किया। मैं एक धारा का बताया सूत्र जानता हूं। यह धारा वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच बहती है। सूत्र कहता है ‘संघर्ष जुबानी नहीं होता। नारेबाजी नहीं होता। अभिमत, प्रस्ताव अथवा विधेयक नहीं होता। वह राजनीति चमकाने का मकसद तो किसी सूरत में नहीं होता और संघर्ष कभी अमीर या गरीब नहीं देखता।' 

मोटे हिसाब में पिछले साल तक के आंकड़े कहते हैं कि देश की जीडीपी में हमारा 17वां नंबर आता है। सकल घरेलू उत्पाद के मामले में हमारी ताकत 1. 85 लाख करोड़  रुपए की है। आंकड़ों का खेल समझ नहीं आता, मगर सवाल बनता है कि इसमें युवाओं की भागीदारी के लिए किसी प्रकार का सर्वेक्षण राज्य सरकार अपने स्तर पर करा सकती है क्या? ठीक है उसे सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए, परंतु अपनी जानकारी और जिम्मेदारी के वास्ते यह करने में हर्ज नहीं ।
जीडीपी के आंकलन में फाइनल प्रोडक्ट मुख्य है। जीडीपी के नार्म्स से बिल्कुल ही अलग फाइनल प्रोडक्ट में पूर्ण विचारित-विकसित युवा भी हो सकता है। सनद रहे, फाइनल प्रोडक्ट के रूप में मैंने केवल एक शब्द उठाया है। इसे अर्थव्यवस्थावाली जीडीपी से जोड़े नहीं। सजीवता-निर्जीवता की बात कहकर यहां विषय विवाद नहीं बनना चाहिए।

हमने संघर्ष नहीं किया यह सत्य है। हमने राज्य की कीमत नहीं जानी, यह उससे भी बड़ा सच है। हम सत्ता को कलेक्टरी से अधिक समझ नहीं पाए यह भयावह सत्य है। इसलिए हम जिम्मेदारी नहीं दिखा पाए। हम दूसरे राज्यों की राजनीति के अनुकरण में लगे रहे। देशव्यापी परिपाटी ने हमें रियायत नहीं दी। हमने मांगी ही नहीं।
बिना लड़े पाओगे, सो खोने का दर्द कहां से होगा! याद है, नए राज्य की नवेली राजनीति का पहला पड़ाव विद्याचरण शुक्ल और अजीत जोगी के बीच मुख्यमंत्री होने की होड़ था। अजीत जोगी इस झड़प में जीते। पड़ाव आज तक वहीं का वहीं पड़ा है। तंबू का मालिक बदल गया है। जोगी इस दौर में भी छत्तीसगढिय़ा राजनीति की घड़ी के स्थाई पुर्जे हैं। कभी वे घंटे का कांटा थे। आगे मिनट का हुए। अब सेकंड का हैं। उनकी गति बदल रही है, वे चल रहे हैं। तब से लेकर आज तक, और अगले डेढ़-दो साल बाद जब फिर चुनाव लौटेगा। अभी अगले चुनाव में वे लोगों को महाभारत सीरियल की तर्ज पर कह सकते हैं- ‘मैं समय हूं।’ वे कौरव-पांडव किसे बताएंगे, इसका अनुमान आप लगाते रहिए।
सोचिए जरा, कांग्रेस ने वीसी और जोगी के घमासान में उस पब्लिक से रायशुमारी की थी क्या, जो राज्य बनने से अभिभूत से अधिक आश्चर्यचकित थी।


पॉलिटिक्स को समझनेवाले जानते हैं कि राजनीति में स्थायित्व कभी जनता के हित में नहीं होता। एक पीढ़ी पिछड़ जाती है और कई बार कई पीढिय़ां भी। जड़ता तंत्र को बूढ़ा और ढर्रे का बना देती है। सकारात्मकता कुर्सियां तोड़ते हुए दीवार पर घड़ी देखना नहीं है। आपने कभी मंत्रालय का दौरा किया है। नया रायपुर में सरकार का कारोबार जंगल में मोर नाचने की तरह है। मेरे विद्वान मित्र विभाष कहते हैं ‘जानते तो तापस, हमें राज्य बनने के बाद झूठ बोलते नए लोग मिले और एक नकली शहर, जिसका नाम है नया रायपुर।’ मैं उनसे सहमत नहीं था। किंतु असहमति के लिए भी अधिक गुंजाइश नहीं थी। सहमत मैं इस मामले में था कि कांग्रेस ने ही क्या कर लिया?

हम आज भी अजीत जोगी और विद्याचरण के उस बीते संघर्ष में जी रहे हैं। मेज वही है, आमने-सामने की कुर्सियों के चरित्र वही हैं। चेहरे बदल गए। अजीत जोगी, आज वीसी की भूमिका में हैं। क्या लगातार तीसरी पारी खेल रहे डा. रमन सिंह को हम अगला जोगी मान सकते हैं। इतिहास खुद को दोहराता है। दोहरा सकता है।

इतिहास से अनभिज्ञ नए लडक़े बदलाव की सडक़ की भीड़ हो चले हैं। वे अपनी बारी का इंतजार करते रहते हैं। उन्हें कॉलेजों के सामने घेरेबंदी, रटा हुआ राष्ट्रवाद, संशययुक्त धर्मनिरपेक्षता और फलां भैया जिंदाबाद ही आता है। वे जानते हैं कि बड़े नेता युवापन अपने बेटों और रिश्तेदारों में ही देखते हैं। बड़े नेता अपने नीचे युवा नेता चुनते हुए समाजवादी (मुलायम की पार्टी) हो जाते हैं, बाकी समय अपनी-अपनी पार्टियों के।

मुखालफत युवाओं से शुरू होती है। मंगल पांडे, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, खुदीराम बोस की तरह अनेक क्रांतिकारी जिस अवस्था में बागी हुए थे। गांधीजी भी युवापन से बगावती थे, उनकी बगावत में अहिंसा थी, ज्यादा मारक और असरकारक। आज सुनते रहते हैं- 'देश की 65 फीसदी आबादी युवाओं की है।' यह नहीं बताया जाता कि हमारा युवा कारपोरेट एक्सट्रीमिस्ट है। अपने नेता की जीत पर पार्टियां कर हमारे युवा जनता की संवेदना को पैग दर पैग उतारते रहते हैं। उन्हें मुखालफत और बगावत के अर्थों का अंतर मालूम नहीं है!
इतिहास की तरह मैं खुद का लिखा दोहराता हूं ‘वास्तविक युवा से तात्पर्य उम्र भी है, और स्वतंत्र पहचान भी। ’


- तापस ( इस पर आगे और भी लिख सकता हूं.. पसंद आया तो !!)

Friday, 18 November 2016

काला धन पुराना विषय; नया है विषयविहीन यह लेख

 काले धन पर मुझे लिखना नहीं था। विषय पुराना पड़ गया है। विश्लेषण का युग है। मैं युगधर्म निभा रहा हूं। पढक़र आप कहेंगे ‘अरे वाह क्या लिखा है, सच लिखते हो’
मैं झेंपकर कहूंगा ‘अरे..भाई साहब ये तो मेरा फर्ज था। ’
विश्लेषण यह है कि हम दोनों ही जान रहे होंगे कि हम झूठ कह रहे हैं।


मार्डन व्यवहारिकता में विषय रचे जाने से पहले उनका विश्लेषण हो जाता है। आपस की दौड़ में हम विश्लेषण पहले बना लेते हैं। यह ज्ञानी होने की निशानी है। यह पुरुष के गर्भधारी होने की पुष्टि के समान है। पुरुष गर्भधारण नहीं कर सकता, वैश्विक व जाना-पहचाना सत्य है। हम विश्लेषण यों देंगे मानो पुरुष को सातवें महीने से लेबर पेन के प्रति सजग हो जाना चाहिए।

एक और उदाहरण भी है (यह पहले से भी ज्यादा हल्के स्तर का है), जैसे हम किसी दोस्त को शराब की पार्टी में बुलाकर उसके सामने सफाई देते रहें ‘आजकल मैंने  पीनी छोड़ दी है, तेरा साथ देने को पी रहा हूं।’
हालांकि फोकट की गटकने आए दोस्त ने पार्टी का विषय आपसे नहीं पूछा होता है। आप ही विश्लेषण में लग जाते हैं। दोस्त भी आपकी पैरलल इकॉनामी जानता रहता है । उसे आपकी पोंगा-पंथी समझ आ जाती है। वो सामने से कहता है ‘कोई बात नहीं यार, दोस्त के लिए नहीं पिएगा तो किसके लिए।’

दो पैग के बाद वही दोस्त अपना विश्लेषण देना शुरू कर देता है ‘देख भाई, अपन तो रुटीन में पीते हैं नहीं, तूने बुला लिया सो चले आए। अपनी फिलॉसपी में दारू पीयो, जमकर पीयो, बट लिमिट में पियो। अपना यही फार्मूला है। आधे घंटे में अद्धी अंदर उतार लें, मजाल है इधर-उधर कोई बात हो जाए। लिमिट इज मस्ट मैन।’

तीन पैग के बाद आपकी और दोस्त की लिमिट पार हो जाती है। बोतल के अंत के संग वायदा किया जाता है ‘ अब हर वीकेंड बैठेंगे। देखते हैं कौन बोलता है। अपने बाप के पैसे की पी रहे हैं, ब्लैक मनी नहीं लगी है इसमें।’

दारू की रात में बातें सोडा होती हैं। विश्लेषण नींबू चांटना होता है। चखना पैराग्राफ बदलने का संकेत बन जाता है।
काले धन पर इसी प्रजाति का विषयविहीन विश्लेषण पढि़ए (विषय है, शक नहीं। मैं विषय के बाहर चला जाऊं तो मुआफ कीजिएगा, विषयहीनता यही है)-

दो पैग मारकर सरकार कहती है ‘देश में पैरलल इकॉनामी है ब्लैक मनी की।’

 नींबू काटते हुए जनता पूछती है ‘यही बाबा..यही.. अपन लोग भी यही मानते हैं। चुनाव के टाइम में बोतल के साथ नोट आता है, हम तुरंत पकड़ लेते हैं, माल ब्लैक का है। अपन बोतल में जीभ डालकर उसकी बूंद-बूंद सुटक लेते हैं और नोट चला देते हैं। आज समझ आया चुनाव में मिले दारू और पैसे से पैरलल इकॉनामी खड़ी हो जाती है। ’
सरकार कहती है ‘यहीं गलती करते हो। चुनाव का पैसा चुनाव के बाद वापस कर दिया करो। तुम खरच देते हो। देखो आज पैरलल इकॉनामी खड़ी हो गई। ’

जनता कहती है ‘गलती हुई सरकार अब क्या करें?’

सरकार कहती है ‘जीव-जंतु सब रो रै होंगे.. .आधी रात सब नोट पे सो रै होंगे.. रख दिल पे हाथ, हम साथ-साथ.. .. बोलो क्या करेंगेऽऽऽऽऽ??????’

जनता कोरस में गा उठती है ‘हवन करेंगे.. .हवन करेंगे.. हवन करेंगे.. .’

सरकार जोर-जोर से कहती है ‘यह महायज्ञ है। सबको आहुति देनी होगी। नोटों की बदली होगी। वासेपुर से बदलापुर तक सबके नोट बदले जाएंगे। ’

जनता हर्षनाद करती है ‘हवन करेंगे.. .हवन करेंगे.. .हवन करेंगे.. . ’

और यज्ञ-हवन शुरू होता है। सनकी ट्रम्फ को पेल रहे महारथियों को विश्लेषण का अवसर सुलभ होता है।
पैरलल इकॉनामी पर ज्ञान माला शुरू होती है। काला धन कहां से आता है? कहां को जाता है? (कोशिश होती है घाट-घाट घूमे आदमी को सुहागरात का मतलब बताने की)

काले धन पर विश्लेषणों की सर्जिकल स्ट्राइक होने लग जाती है। (आजकल सर्जिकल स्ट्राइक बड़ा फैशन में है। बवासीर की बीमारी लेकर डॉक्टर के पास पहुंचा व्यक्ति कहता है- बड़ा दर्द है साहब, सर्जिकल स्ट्राइक कर दो )

विश्लेषकों को सुनकर जनता कोरस में गाते-गाते  चिल्लाने लग जाती है ‘ हवन करेंगे.. हवन करेंगे.. . हवन करेंगे.. .’

सीरियसली आम आदमी से मजाक देखिए। अपने को आम आदमी मानते हुए जानिए कि आम आदमी से अच्छा कोई अर्थशास्त्री नहीं। उसे पता है काला धन कहां है? उसकी सहचरी सरकार भी जानती है काला धन कहां है? लेकिन निकलवा किससे रही है? आम आदमी से ही।
हवन हो रहा है। आहुति कौन डाल रहा है। आम आदमी।

पैरलल इकॉनामी क्या है? इसका विश्लेषण यही है कि यह तुमने खड़ी की है। हमने नहीं। हम कतारों में खड़े हैं। तुम्हारा पता नहीं। हमें पता है नेता के पास काला पैसा है। वो कतार में नहीं है।  उद्योगपति-व्यापारी के घर ब्लैक का बगुला, भगत बना पड़ा है। इनमें से कोई कतार में नहीं है।
एक ऊंचा आदमी गिरफ्तार नहीं हुआ। सब ईमानदार, पाक-साफ हैं। आश्चर्य है पैरलल इकॉनामी कहां से खड़ी हुई?

इकलौता पाकिस्तान बार्डर से इतने जाली नोट सप्लाई कर गया। पैरलल इकॉनामी बना गया। हमको देशभक्ति का सबूत देने कतारों में लगा गया।
 क्या सरकार, जनता और इनके बीच संवाद बनानेवाले (ज्यादातर मीडिया और बुद्धिजीविता से जुड़े विश्लेषक) नहीं जानते काला धन किनके पास है?

जानते हैं भूत नहीं है। ओझा ही ढोंगी है। लूट रहा है। वार भूत पर क्यों? जब वो है ही नहीं। ओझा भूत बनाता है, उसको पकड़ो।
पैरलल इकॉनामी का अर्थशास्त्र गरीब के लिए है। नोट वह बदलेगा। वेल सेटल्ड लोग अर्थशास्त्री और देशभक्त हैं। पैरलल इकॉनामी इनके बाप का विषय था। ज्ञान पेलने का अधिकार इन्हें विरासत में मिला। इनके खून के रिश्तेदार राजनीतिक दलों के खजांची हैं। सत्यवादी-दानवीर हरिशचंद्र ने इन्हें गोद लिया था।

हरीशचंद्र की वेल सेटल्ड दत्तक औलादें विश्लेषण दे रही हैं ‘चुनाव में पैरलल इकॉनामी नहीं होती। चुनाव के बाद पैरलल इकॉनामी होती है।’ सरकारों के- असरदारों के बोर्ड-होर्डिंग्स में काला पैसा नहीं लगा होता। वो खून पसीने की कमाई है। सभाओं की भीड़ जमा  करने वाले इतने ईमानदार हैं कि मेन इकॉनामी से धन जुटाते हैं। किसानी का पैसा सभा में लगाते हैं।

इस मुकाबले अनसैटल्ड आम आदमी की दारू पैरलल इकॉनामी से आती है। देसी पीकर नाली में नैसर्गिकता टटोल रहा नेता रातोंरात मेन इकॉनामी से  उधार पाकर जॉनी वॉकर ब्लैक लेबल पा जाता है। सेठ-साहूकार मेन इकानॉमी के तहत ब्याज का धंधा करते हैं।
पैरलल इकॉनामी चलाने वाले उनसे उधार लेते हैं, डबल ब्याज में।

तीनों सभाओं के सदस्य, सरकारी तंत्र के सारे अधिकारी, बाजार के बड़े व्यापारी और उद्योगों के पति, सभी व्हाइट हैं। हम ही काले हैं। पैरलल इकॉनामी वाले हैं।
देश का बच्चा-बच्चा (जो राम का भी है और रहीम का भी) जानता है काला धन कहां से आता है? किसके पास जाता है?
आप नहीं जानते सरकार, धन्य हैं। नोट बदलवाने की नौबत आ जाती है।
आई डोन्ट नो व्हाट इज पैरलल इकानॉमी. बट विद ऑल रिसपेक्ट आई वान्ट टू नो, हू इज रिस्पांसिबल फॉर इट?
डू यू टेल मी?
- इति विषयविहीन विश्लेषण




Monday, 7 November 2016

न्यूट्रल आदमी


भावुक होना, जज्बाती होना, इमोशनल होना क्या है? अगर आप मेरे इस सवाल को समझ रहे हैं, और मन ही मन उत्तर दे रहे होंगे तो मौखिक बताइए बहकना क्या है?
मुझे आपकी आवाज नहीं आई। क्या मेरी आवाज आप तक पहुंच रही है। मैं न्यूट्रल आदमी हूं माई-बाप। मेरी आवाज दब गई है। कभी कोई पकड़ लेता है, कभी किसी को लगता है इसकी गर्दन मरोड़ दूं। इस चक्कर में अकेला पड़ गया हूं। पुराने न्यूट्रलिटियों ने हार मानकर चुन-चुनकर पक्ष चुन लिए हैं। इससे उनका पेट भर रहा है, जुबान चल रही है। इस बीच मैं भूखा-नंगा अपनी बात रखने की भरपूर कोशिश करता हूं और नकार दिया जाता हूं।

 बैन करने वाले और बैन का विरोध करने वाले कहते हैं- " तुम्हारा तो कोई पक्ष ही नहीं है।"  हर कोई पूछता है कि तुम किसके साइड हो। मैं कहता हूं " फैसला नहीं कर पा रहा।"  इतने में ही मेरी बखिया उधेड़ दी जाती है। कहा जाता है " कैसे आदमी हो कोई एक स्पष्ट गुट नहीं, पक्ष नहीं? तुम तो रीढ़हीन प्राणी हो।"

कई बार तो डर लगता है कि मेरे न्यूट्रल आदमी होने की वजह से कहीं आप लोगों ने मुझे पढऩा छोड़ दिया फिर क्या होगा? यही रोजी-रोटी है हे मेरे पाठक, मेरे दाता। पढऩा मत छोडि़एगा। मैं न्यूट्रल नहीं रहने की जी-तोड़ कोशिश में लगा हूं। डर लगा रहता है, कब कौन सी बात किस पक्ष को बुरी लग जाएगी! लिखते हुए हाथ कांपते हैं, पता नहीं पक्ष नहीं होने से लिखी बात समझ आएगी-नहीं आएगी। जिनको समझ आई ठीक, परंतु जिन्हें नहीं समझ आई वे तो अपनी विचारधारा लेकर मेरा मर्डर कर देंगे।

वर्तमान परिवेश में न्यूट्रल आदमी वो अवांछित तत्व है जो आर्टिफिशियल धाराओं में नहीं बह पाता। विचारधारा-पार्टी, आंदोलन, समर्थन-विरोध उसके पल्ले नहीं पड़ते। वह बात-बात पर सेंटी हो जाता है। समर्थन जताते हुए कब विरोधी हो जाता है और विरोध दर्ज कराते किस क्षण समर्थक हो जाता है, पता नहीं चलता।
डॉक्टर कहता है " यह दिल का मामला है। दिमाग पर दिल का भारी होना दिल की बीमारी है। इसे मेडिकल साइंस की भाषा में सेंटीरिया (सेंटी हो जाना)कहते हैं। कभी भी हार्ट-अटैक आ सकता है। "
डॉक्टर कहता है " सेंटी होकर आप बहक सकते हैं। बहक कर सेंटी भी हो सकते हैं। लेकिन बहकना, बहकना ही है। सेंटी होना न्यूट्रल आदमी के लिए कॉलेस्ट्राल बढ़ाना है। "

बहकने का सवाल ही नहीं पैदा होता। जिनके पास अपने पक्ष हैं वे बहकें फिक्र नहीं, उन्हें गुटबाजी का अधिकार मिला हुआ है। गनीमत है संविधान में बहकने को मौलिक-नागरिक अधिकारों की लिस्ट में नहीं रखा गया है। इमोशन चूंकि दिखता नहीं। जो चीज नजर न आए उस पर अनुच्छेद-धारा आदि-इत्यादि लागू नहीं होते। इस स्थिति में एक न्यूट्रल आदमी क्या करे? ऊपर से उसे सेंटीरिया ने जकड़ रखा है। गुटबाज कहेंगे 'एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा।' न्यूट्रल आदमी कहेगा " एक तो न्यूट्रल ऊपर से गुटबाजों से बहस में पड़ा।"

चलिए आप पढ़ रहे हैं तो न्यूट्रलिटी को थोड़ा और विवेचित करता हूं। जरूरी नहीं कि मैं जो कह रहा हूं वो आप मान लें। आप उसकी अच्छी जांच-पड़ताल करने के बाद ही निष्कर्ष पर पहुंचे। आपका यह बंदा फेसबुक और व्हाट्सएप की दुनिया में न्यूट्रल होने की वजह से जलील होता पड़ा रहता है। निष्कर्ष तक पहुंच जाएं तो आप अपना एक संदेश भेजकर मुझे जीवन रहते मोक्ष प्रदान कर सकते हैं। गौरतलब है कि मेरे फोन में एसएमएस भी स्वीकार किए जाते हैं।

लौटकर आते हैं न्यूट्रल आदमी पर। दुनिया बनानेवाले ने जो पहला आदमी बनाया था वो न्यूट्रल था। हम सब उसकी ही संतानें हैं। मतलब हमारा जींस न्यूट्रल है। हमारा डीएनए न्यूट्रल है। दुनिया के रचनाकार ने न्यूट्रल आदमी की रचना करने के बाद फुर्सत पा ली। उसने पक्ष-विपक्ष का नहीं सोचा और इस मुताबिक उसके फ्यूचर पर ध्यान नहीं दिया। न्यूट्रल आदमी ने परिवार नियोजन को धता बताते हुए जमकर संतानें पैदा कीं। वह भी सेंटीरिया से पीडि़त था। हो सकता है यह उसका जन्मजात रोग रहा हो। इसका एक लक्षण रोमांस है। रोमांस संतान उत्पत्ति का मुख्य स्रोत है। क्या अफ्रीका, क्या अमेरिका और क्या इंडिया। उस जमाने में देश थे भी नहीं। पूरी दुनिया ही न्यूट्रल थी। पहले न्यूट्रल आदमी ने संसार को रोमांस और अपने बच्चों से फुलफिल कर दिया।

न्यूट्रल आदमी के पोषित बच्चे आदमियत में खुश न रह पाए। बहक गए। उन्होंने बहकाऊ धाराएं बनाईं। कठोर विचारधाराएं बनाईं। और बंट गए। उन्होंने सेंटीरिया से मुक्ति का उपचार खोज लिया। सेंटीरिया के संक्रमण से बचने उन्होंने राजनीति का टीका लगवा लिया। कुपोषित न्यूट्रल संतानें देखती ही रह गईं।
न्यूट्रल विचारों को छोडक़र सभी विचारों ने अपनी दिशाएं बनाईं। दसों दिशाओं पर कठोर विचारधाराओं का कब्जा हो गया। दिशाओं के नाम के साथ 'पंथ' का प्रत्यय जोड़ दिया गया। ऐसा नहीं था कि न्यूट्रल आदमी की सारी औलादें ही गुटबाज हो गईं। उसकी थोड़ी-बहुत बची हुई वास्तविक इमोशनल संतानों ने निरपेक्षता को सिद्धांत मानकर जिंदगी आगे बढ़ाई। न्यूट्रल आदमी के वंशजों ने मिडिल क्लास का होना पसंद किया। आज के जमाने में हम मिडिल क्लास को गरीब कह सकते हैं (सातवें वेतनमान की विसंगतियों पर बाद में बात की जाएगी)। दुनिया के प्रारंभ में मिडिल क्लास नहीं था। इसे न्यूट्रल आदमी की संतानों ने ही बनाया है जिन्हें लगा न्यूट्रल रहकर खुश रहा जा सकता है।

दुनिया के सबसे निरपेक्ष देश में न्यूट्रल वर्ग बड़ा न्यूट्रल-न्यूट्रल सा चल रहा था कि फेसबुक आ गया, ट्विटर आ गया, इधर-उधर का सब इन दोनों में आ गया। वर्चुअल वर्ल्ड  बन गया। वर्चुअल वर्ल्ड  आदमी ने बनाया है,  भगवान ने नहीं, अतएव इसमें न्यूट्रीलिटी वर्जित कर दी गई। न्यूट्रल समाज के बचने के चांस जाते रहे। डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए। उन्होंने कहा-" इन्हें अब भगवान भी नहीं बचा सकते, क्योंकि भगवान पर भी कब्जा है। उन्हें गुटविशेष में शामिल कर लिया गया है बिना उनकी एनओसी के। "

आगे की कहानी है - भगवान की बनाई दुनिया में जिस तरह देश बने। मनुष्य के वर्चुअल वर्ल्ड  में भांति-भांति के पेज बने। हर पेज पर एक चौराहा बनाया गया। चौराहे के बीचोंबीच बोर्ड लगाकर सवाल चिपकाया गया- " आपको किधर जाना है? कौन सा पंथ आपका है? किस पार्टी की विचारधारा के हो? राष्ट्रवादी हो, नहीं हो?  देशभक्त हो, नहीं हो? सेक्युलर हो, नहीं हो? वामपंथी हो, नहीं हो? समाजवादी हो, नहीं हो? " न्यूट्रल आदमी के मुंह से  सारे सवालों का जवाब एक ही निकल गया " नहीं भैया इनमें मेरी कैटिगिरी नहीं है। मैं तो आम टाइप का आदमी हूं। आप न्यूट्रल कह सकते हैं।"  करारा जवाब मिला " नहीं हो, तो हम पक्ष को तुम्हारे अंदर इंजेक्ट कर देते हैं। बताओ क्या बनना चाहते हो। फेसबुक का हैश टैग चुन लो। ट्विटर का ट्रेंड  चुन लो। भाजपा चुन लो। कांग्रेस चुन लो। दोनों नहीं पसंद, ऐसे में आगे से राइट जाकर लेफ्ट चुन लो। लेफ्ट में कुछ राइट नहीं लगे तो बेझिझक बोलना हमारे पास नया माल है आम आदमी पार्टी। इसको चुनने में सनकी होने का खतरा है मगर पापुलारिटी कम नहीं है। हमारे पास हर प्रकार का इंजेक्शन है। बस न्यूट्रल मत बने रहो।"

न्यूट्रल आदमी ने पूछा " यह क्यों?"  चौराहे की जमीन पर लकीर खींच रहे गुटबाजों ने कहा " न्यूट्रीलिटी किसी कीमत पर बचनी नहीं चाहिए। न्यूट्रल आदमी कमजोर होता है। उसे मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। उसके बच जाने से न्यूट्रलिटी का संक्रमण फैल जाएगा। "

अंतत: नए सिरे से सॉफ्टवेयर पर मानव मूल्य उकेरे गए। लिखा गया, न्यूट्रल होना वर्चुअल वर्ल्ड में अपराध है। आप भावुक नहीं हो सकते किंतु पूरे अधिकार के साथ बहक सकते हैं। आपको एक पक्ष चुनना ही होगा। पक्ष आपको संकटों से बचाएगा। एक पक्ष आप को बैन करने का अधिकार देगा, दूसरा पक्ष आपको बैन से बचाएगा। अगर कोई एक पक्ष नहीं रखा तो न्यूट्रलिटी का बच्चा मारा जाएगा। उसकी लाश को वहां दफनाया जाएगा जहां से उसके शरीर से निकलता सेंटीरिया संक्रमण वहीं दबा रह जाएगा। न्यूट्रल होना किसी सूरत में नहीं स्वीकारा जाएगा।
 
इसलिए मैं न्यूट्रलिटी से निजात पाने का उपाय ढूंढ़ रहा हूं। मुझे सेंटीरिया से छुटकारा चाहिए। आप कुछ उपाय बताएं, ये कमबख्त दिल बड़ा न्यूट्रल है, दिमाग की सुनता नहीं।
ऐ (न्यूट्रल) दिल है मुश्किल

Saturday, 5 November 2016

प्रतिबंध दिखता नहीं मगर सख्ती से लागू है


 एनडीटीवी पर केंद्र सरकार के एक दिन के प्रतिबंध से मच रहा हल्ला अपरोक्ष आपातकाल बताया जा रहा है। यह झूठ है। मीडिया पर इमरजेंसी राज्यों में बहुत पहले से लागू है।
पाखंड जब दिखने लगे.. और स्वीकारा भी जाने लगे तब स्थिति निर्णय की होती है। यहां पाखंड दोनों ओर है। फैसला नहीं कर सकते। देश से जुड़े हर मुद्दे को सरकार जनभावनाओं से जोड़ देती है। नई शब्दावली में राष्ट्रवाद यही है। एनडीटीवी भी पत्रकारिता में आवश्यक कम्युनिज्म की लकीर पीटता है।
राष्ट्रवाद सरकार का पाखंड है और कम्युनिज्म एनडीटीवी का। आलोचक कहते रहे हैं ‘वामपंथ पाखंड का शिकार हो गया। ’


यहां सरकार का पाखंड ज्यादा बड़ा है। वह एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था की संचालक है। उसे यह निर्णय करना चाहिए था कि मीडिया को बेलगाम किसने होने दिया। यह वही मोदी सरकार है जिसने मीडिया को माध्यम बनाकर अच्छे दिन आने का गुब्बारा फुलाया। मोदी को नए युग का इकलौता इच्छाशक्ति प्राप्त नेता बताने में देर नहीं की गई। भाजपा के कैंपेन के विज्ञापन एनडीटीवी में भी आए। आज मोदी सरकार के बनते ही तकरीबन हर क्षेत्र में एक नियंत्रण दिख रहा है। मीडिया की मुखरता चाटुकारिता में बदल गई। यह मुखरता यूपीए राज में चरम पर थी। मनमोहन सिंह के चुप रहने पर मीडिया ने हदें पार कीं। माहौल बदला, एकाएक जैसे सारे मीडिया समूह मोदी केंद्रित हो गए। कुछ बड़े अखबार समूहों ने अपनी विश्वसनीयता खो दी। बरसों की मेहनत से खड़े हुए बैनरों ने समर्पण किया। जबकि इस मेहनत में केवल मालिकों अथवा  उनके पसंदीदा संपादकों का हाथ नहीं था। फील्ड और डेस्क की टीमें बहुत हद तक इसकी जिम्मेदार थीं। एक समय सेंट्रल डेस्क की टीम को अखबार की धुरी माना जाता था। सेंट्रल डेस्क सरकारी विचारों को समझने की क्षमता रखता था। आज वह ले-आउट व समय-सीमा जानता है और एक बंधे-बंधाए फ्रेम से बाहर देखने का अधिकार खो चुका है।

मीडिया धोखे के पहाड़ों पर चढ़े कुछ अंधों के हाथों में है। वे स्वयं धोखे में हैं, दूसरों को भी धोखा दे रहे हैं। धोखे के पहाड़ खूब बिक रहे हैं। किराए पर भी मिलते हैं। वे सत्ता के हिसाब से जगह बदलते रहते हैं।

एक व्यवस्थावादी का कहना है- ‘मुझे कामरेडों का पहाड़ जवानी में अच्छा लगता था, वहां मुझे नाम मिला। अधेड़ावस्था में मैं दक्षिणपंथियों के पहाड़ पर शिफ्ट हो गया, मुझे काम मिला। बुढ़ापा मैं किसी सेक्युलर पहाड़ पर बिताना चाहता हूं, जहां मुझे पेंशन मिलेगी। ’

व्यवस्थावादी को छोडि़ए, मेरी सुनिए। मैं प्रतिबंध का मतलब नहीं जानता। मुझे लगता है कि जब कोई तथ्यपूर्ण सच से भरी हुई रिपोर्ट संपादक के सामने पेश होती है और संपादक उसे पढक़र किसी को फोन लगाता है, और तुरंत ही कह देता है ‘नहीं छप सकती’ तो यह भी प्रतिबंध है। मैं दूसरों को क्यों गलत कहूं। मैंने भी यह किया है। हर प्रकार का प्रतिबंध महीने के पहले सप्ताह से जुड़ा होता है। मुझे सिखाया गया था कि तनख्वाह पर प्रतिबंध न लगे इसलिए पाखंड का पालन करते हुए उसके पहले के प्रतिबंध स्वीकार लिए जाने चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी से बड़ी पेट की गुलामी है। क्रांति भूखे पेट नहीं होती और भरा पेट क्रांति के लिए मुफीद नहीं । आदमी पेट के बिना जी नहीं सकता। भरा हो या भूखा। इसलिए क्रांति से अच्छा है प्रतिबंध।
मैं एनडीटीवी देखता हूं अपने अंधेपन के बावजूद, मैं जी न्यूज भी देखता हूं यह साबित करने के लिए कि मैं अंधा हूं।

मैं हर उस अखबार को मोतियाबिंद के धब्बे के साथ पढ़ता हूं जिसके समाचारों का स्रोत मुझे पहले से ज्ञात होता है। मैं उस पॉलिसी को जानता हूं जो प्रतिबंध का आधुनिकीकरण है। जहां प्रतिबंध दिखता नहीं मगर सख्ती से लागू होता  है। जिसे प्रबंधन की कला कहते हैं और जहां पत्रकारिता एक नौकरी होती है। इस कला के अंधे महारथियों से भी मैं दो-चार होता रहता हूं जो जानते हैं कि वे उस रस्सी पर चल रहे हैं जिससे एक न एक दिन गिरना है, नितांत अंधेपन को दिव्यदृष्टि बताकर वे राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने लायक अभिनय करते हैं। उठते तक सभी प्रबंधनवादी होते हैं और गिरने के बाद यही लोग आलोचक बन जाते हैं। इन्होंने क्रांति को भी ‘जरूरत के अनुसार’ साबित कर दिया है।
मैं क्यों किसी चैनल पर प्रतिबंध लगने से अपना सिर फोड़ू। एक पक्की बात बोलूं- ‘आज तक एनडीटीवी ने मुझे या हमें दिया क्या है! रवीश कुमार के प्राइम टाइम के सिवा। जेएनयू के कन्हैया कुमार का इंटरव्यू कर रहे रवीश कुमार का चेहरा मुझे याद है। कन्हैया किस तरह विनम्रता की चौखट पर खड़ा था। उस चौखट के पीछे मकान नहीं था। केवल शोर था। आवाजें आ रही थीं- हमें चाहिए आजादी। रवीश कुमार अपनी ही शैली में उसे ऐतिहासिक क्रांतिकारी युवा में रूप में पेश कर रहे थे। ’
 एनडीटीवी छोड़ो किसी भी चैनल ने हमें दिया क्या है? तारे-सितारे, निर्मल बाबा और फैट कटर-ग्रीन टी की ऑनलाइन शापिंग के सिवा। पाखंड हर जगह है।

सच बोलिए, लिखिए। सच बताइए। यह कहना ही पाखंड है। क्या आपको नहीं मालूम घोषित और अघोषित प्रतिबंध का अंतर?
जहां मालिक हो वहां मीडिया नहीं होता। मालिक ही मीडिया हो, फिर प्रतिबंध नहीं लगता।

व्यवस्था में क्रांति प्रतिबंधित है। पत्रकारिता और प्रबंधन अलग-अलग कौशल हैं, इनमें बुनियादी फर्क है। समाजवाद और पंूजीवाद की तरह। किंतु इन्हें मिश्रित कर चल रही व्यवस्था को हम आजाद कहते  हैं। हम बाहर से अंग्रेजों के बनाए पत्थर के पुलों से सख्त बनने का पाखंड करते हैं। अंदर से पीडब्ल्यूडी की सडक़ों से पोपले हैं। क्यों विज्ञापनों के साथ आईं सिफारिशों को मजबूरी और पत्रकारिता को नौकरी करार दिया जाता है। इसकी पड़ताल क्यों नहीं की गई? क्या अनिवार्य है कि हम इन्हें स्वीकार करें, बिना तर्क। इसमें एक चैनल का एक दिन के लिए लुप्त होना, हमें बदल नहीं देगा। सोचें जरा, कौन सी खबर थी जिसने आपको बदल दिया।

मैं मोदी मिलन की आस लगाए बैठा रहूं। जुगाड़ लगाऊं। उस पर भी एनडीटीवी के बैन किए जाने पर चिल्लाऊं तो आत्मा गवाही नहीं देगी।
मैं घोषित चाटुकारों के लिए काम करूं और सत्ता की आलोचना फेसबुक पर करूं तो पचेगा नहीं।

 सच यह है कि आप या तो पत्रकार हैं या नौकर। सामंतवाद का विरोध पत्रकारिता है। सामंतवादियों की व्यवस्था का संचालन नौकरी।
पाखंड पोषण का युग काले लबादे फैलाकर फैल रहा है। एनडीटीवी के लिए आंसू बहानेवाले अपने पाखंड की चिंता करें।

मैंने आपातकाल नहीं देखा। सुना है, आपातकाल में संपादकीय का कालम खाली रखा जाता था। उसमें जूते का चित्र विरोध का प्रतीक होता था।
आज वह जूता गायब है। सरकार का जूता पत्रकारिता की नाक पर है। नाक के नीचे मुंह है। मुंह के अंदर जुबान है। यह जानते हुए भी हम गलतफहमियां लेकर जिंदा हैं। बरखा दत्त, रवीश कुमार, मनोरंजन भारती और प्रणब राय से हम क्रांति की उम्मीद लगाए बैठे हैं। उनकी अभिव्यक्तियों से हमारा भला नहीं होगा।
 एनडीटीवी के ही एक युवा एंकर का नाम है- क्रांति संभव।
एनडीटीवी को मोदी सरकार के बने रहते तक एक एंकर और रखना चाहिए, जिसका नाम हो- प्रतिबंध संभव।

एनडीटीवी के एक दिन के बंद पर मैं मूवी चैनलों में साउथ हिंदी डब भरपूर मारधाड़ से भरी फिल्में तलाश करुंगा जिनमें एक हीरो पूरी सत्ता पर भारी पड़ जाता है।

प्रतिबंध पर बौखलाए पत्रकार मित्रों के लिए दुष्यंत कुमार की दो पंक्तियां, इस आशा के साथ कि आप पत्रकारिता और नौकरी का अंतर जानेंगे-
मत कहो आकाश में कोहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

Tuesday, 25 October 2016

बेपरदा ख्याल


बेपरदा ख्यालों ने मेरी बात रख दी
गुजारिश मगर उनसे जुदा नहीं थी 
कहा होगा जर्रे को दोस्त मिला नहीं
उसकी ख्वाहिशें दबी रह जाती हैं 

मेरे हाथों खाक हुए हैं जलते चिराग
इसलिए सिरहाने जला रखे  हैं रातों में
और जल मैं भी जाऊं तो अंधेरा होगा
पेशानी पर कब्र बना रखी है ऐसी 

किस्मत से रुठकर बैठना छोड़ दिया
आंसू बह रहे मौजों के थपेड़ों से    
आहटों ने फैलाई होगी खुशफहमी
 पुराना आशिक लौटा है शहर में 

बेमुरव्वत होकर देखना राहों को
मेरे कत्ल का हो पक्का चश्मदीद 
धोखेबाज कागजों में नज्म लिखी है
अक्स तेरा खुद में समाता देखकर 

आरजू का फासला है बेखुदी से
लेकिन बेपरदा ख्याल हकीकत हैं 
सजा इनको भी मुझसे ही मिलेगी
इनका जुर्माना मेरी जिंदगी भरेगी   

-tapas


{-: नाचीज़ आवारा  आशिक़ी का शायर है, रवानी उसकी मोहब्बत में भी है मगर लफ्जों ने किनारा कर लिया तो बेचारा क्या करे ! }

Friday, 21 October 2016

हम आपकी ऐतिहासिक और गरिमामयी विदाई चाहते हैं



महान भारतीय कप्तान महेंद्र पान सिंह धोनी के जाने का वक्त आ गया है। एक खिलाड़ी का खेल जीवन 15 साल से ज्यादा लंबा नहीं होता। तेंदुलकर जैसे चंद सर्वकालिक महान खिलाड़ी अपवाद हैं। सुना है अद्वितीय तेंदुलकर को भी बीसीसीआई ने कह दिया था -अब आपको खेल छोडऩे के बारे में हमें बता देना होगा क्योंकि हम आपकी ऐतिहासिक और गरिमामयी विदाई चाहते हैं। 

बीसीसीआई का फोन आने से पहले धोनी को अपने पूर्ववर्ती सौरव गांगुली के करियर को याद करते हुए सम्मानजनक विदाई के बारे में विचार कर लेना चाहिए। गांगुली ने कप्तानी गंवाकर वो सम्मान भी गंवा दिया था जो उन्होंने एक आक्रामक इंडियन टीम को सृजित कर अर्जित किया था। 

गांगुली अच्छे खेल प्रशासक हैं। कप्तान का मायना लीडर नहीं होता।  इसी तरह लीडर और प्रशासक में भी जमीन-आसमान का फर्क होता है।

 बोलचाल में दोनों शब्दों का पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जा रहा है। जानकार कहते हैं, कप्तान दल का मुखिया होता है । वह नेतृत्वकर्ता भी हो, यह जरूरी नहीं। गांगुली अनुकरणीय मुखिया रहे पर नेतृत्वकर्ता उतने सटीक नहीं । उनकी कप्तानी में वन डे सचिन-सहवाग के नेतृत्व से जीता जाता था और टेस्ट में द्रविड जिम्मेदारी संभालते थे। कप्तानी करते हुए खिलाडिय़ों पर उनका नियंत्रण अविश्वसनीय था। खिलाडिय़ों को प्रेरित करते हुए उन्हें काबू में रखनेवाला कप्तान भारतीय क्रिकेट इतिहास में नहीं मिलेगा।

कल न्यूजीलैंड के दिए हुए आसान लक्ष्य के सामने हार ने धोनी की विदाई का संकेत दे दिया है। धोनी ने आस्ट्रेलिया दौरे के बीच में ही टेस्ट से संन्यास लेकर अपनी दूरदर्शिता बता दी थी। बीसीसीआई की चयन समिति, खास तौर पर अध्यक्ष संदीप पाटिल के बयानों में नए कप्तान की खोज की योजना दिखती थी ।  रैना के साथ-साथ विराट कोहली और अंजिक्य रहाणे भी आजमाए जा चुके थे। रहाणे को  2014 में जिम्बाब्वे गई भारतीय टीम का कप्तान बनाकर चयन समिति ने सभी को अचरज में डाल दिया था। 
रहाणे कप्तान न होकर भी सबके पसंदीदा हैं।

याद होगा कि गांगुली का खेल गिरने के बाद धोनी 2007 में कप्तान बनाए गए थे। धोनी तब धुआंधार थे। बाद में धोनी ने गांगुली को टीम से बाहर का रास्ता दिखाया। गांगुली थक गए थे। नए लडक़े उनका खेल देखकर हंसते थे। गांगुली अपने पुराने खेल और रौब की बदौलत जाने का नाम नहीं ले रहे थे। 

धोनी ने 60 टेस्ट में से 27 और 194 वनडे में 107 जीत हासिल की हैं। वे टेस्ट और वन डे में भारत के सबसे सफल कप्तान हैं। बतौर कप्तान सर्वाधिक मैच खेलने की सूची में अव्वल रिकी पोटिंग के बाद उनका स्थान है । उन्होंने 324 अंतरराष्ट्रीय मैचों में कप्तानी की है जिनमें 70 ट्वेंटी-ट्वेंटी मुकाबले शामिल हैं। 

एमएसडी की कप्तानी में ही भारत पहली बार आईसीसी की टेस्ट रैंकिंग में नंबर वन बना था। उन्हें टेस्ट कप्तानी के लिए अधिक सराहना नहीं मिली।  धोनी को परिस्थितियों के बदलने की प्रतीक्षा करता  मूकदर्शक कप्तान कहा गया । सच है कि टेस्ट में धोनी गेम पलटने का इंतजार करते थे। प्रो-एक्टिव नहीं थे। 

 कप्तान का खेल दूसरों को प्रेेरित करता है। कप्तान अपने ही खेल या काम से जूझता दिखे तो इज्जत गंवा बैठता है। माही ने अभी तक अपना मान नहीं गंवाया है। मगर वह दिन दूर भी नहीं कि वे गांगुली का इतिहास दुहराते दिखें। 

धोनी और कोहली के लीडर होने का मुकाबला टीम पर उनके नियंत्रण से करें। भारतीय बल्लेबाजों का न्यूजीलैंड के खिलाफ खत्म हुई टेस्ट सीरीज में प्रदर्शन देखिए.. . और पिछले दो वन डे में खेल देखिए। कोहली की टीम अनुशासित दिखी। 

 टेस्ट में क्लीन स्विप मिलने और वन-डे का पहला मैच जीतने के बाद न्यूजीलैंड के खिलाफ सबकुछ एकतरफा दिख रहा था। कल के मैच के बाद सोच बदल गई है। सीरीज के अगले तीन मैचों में न्यूजीलैंड एक भी न जीत पाए लेकिन दूसरे मैच की हार का खटका इससे जाएगा नहीं। झोली में दिख रही जीत खराब बल्लेबाजी से बाहर निकल गई । जवाबदेही धोनी की होगी। 

 आज विराट पुराने धोनी की तरह आत्मविश्वास से भरे नजर आते हैं और धोनी जूझते हुए गांगुली की कॉपी। धोनी टीम के बॉस नहीं दिखते। दूसरे वन डे में अंजिक्य रहाणे जमने के बाद आउट हुए। भारतीय टीम ने छोटे लक्ष्य का पीछा करते हुए उबाऊ शुरुआत की। पहले दस ओवर में अपेक्षित रन नहीं आने के दबाव में रोहित शर्मा का विकेट गया। बल्लेबाजी के लीडर कोहली आए और अपने पूर्ण कौशल से खेले। वे उस गेंद पर आउट हुए जो लेग स्टंप के बाहर होने की वजह से वाइड होनी थी। आगे के क्रम में केवल धोनी अनुभवी थे। मनीष पांडे टी-20 शैली के ताबड़तोड़ बल्लेबाज हैं। हड़बड़ी में रहते हैं। केदार जाधव ने वो खेल नहीं दिखाया है कि उन्हें लंबी रेस का घोड़ा कहा जाए। सुरेश रैना की वापसी पर दोनों में से किसी एक का बाहर जाना तय है।


धोनी तेज बल्लेबाजी नहीं कर पा रहे। वे हर मैच को अंतिम ओवर तक ले जाने की सोच से खेल रहे हैं। स्कोर का पीछा करते हुए जिस बल्लेबाज  का औसत दुनिया में सबसे अधिक हो,  उसकी परमानेंट रणनीति चूकने लगी है। धोनी के सामने न्यूजीलैंड की कसी हुई गेंदबाजी थी श्रीलंका या बांग्लादेश  के मीडियम पेसर नहीं थे, जिन्हें स्लॉग ओवर्स में मिड ऑन के ऊपर से उठाकर मारा जा सकता है। धोनी को मालूम रहा होगा अंतिम ओवरों में ट्रेंट बोल्ट और टिम साउदी गेदें फेकेंगे।

विपक्षी गेंदबाज उनके स्कोरिंग क्षेत्र को पहचानने लगे हैं, जिस तरह गांगुली की कमजोरी भी पकड़ी गई थी। आजकल धोनी को शॉर्टअप लेंथ से थोड़ी आगे गेंदें फेंकी जाती हैं।  वे एक्सट्रा कवर या कवर पाइंट के पास से गैप नहीं निकाल पाते। इसलिए उनके लिए बीच के ओवरों में (जब फिल्डर सिंगल रोकने की कोशिश में आगे लगे होते हैं)  रन निकालना आसान नहीं होता।

 एमएसडी की बैटिंग क्रिकेट विशेषज्ञों की लिखी किताब से मेल नहीं खाती। स्थापित मापदंड से जुदा अंदाज रखनेवाले बल्लेबाजों की लय लगातार क्रिकेट खेलने से बरकरार रहती है। धोनी लगातार खेल नहीं रहे हैं। धोनी के पास अब इस साल मुश्किल से दस वन डे और हैं। धोनी के रिफ्लेक्सेस कमजोर हुए हैं।  बल्लेबाजी की शैली में बदलाव कर उन्होंने नैसर्गिक आक्रामकता खो दी है। 

आज वे अंतिम ओवरों के इंतजार में 35 से 45 ओवरों के बीच गेंदे खराब करते रहते हैं।  

कुछ साल पहले उन्होंने श्रीलंका के विरुद्ध वेस्टइंडीज में हुए त्रिकोणीय सीरीज फाइनल में तीन छक्के मारे थे। अंतिम ओवर में शायद 20 के आसपास रन बनाने थे। बॉलर अनुभवहीन था। धोनी ने श्रीलंका के मुंह जीत निकाल ली। धोनी ने इसके बाद से मैच को अंतिम ओवर तक खींचने की कला को विजय मंत्र मान लिया। इंज्लैंड में हुए एक टी-20 मैच में धोनी का मंत्र बेकार साबित हुआ। सामने अच्छा बॉलर था। धोनी का बल्ला टिक-टाक से ज्यादा कुछ नहीं कर पाया।  जीता हुआ मैच निकल गया क्योंकि धोनी पारी को अंतिम ओवर तक ले गए । अंतिम ओवर की सभी गेंदें खुद खेलीं। नॉन-स्ट्राइकर अंबाती रायडू को जान-बूझकर स्ट्राइक नहीं दी। 

लीडर को फ्लैक्सिबल  होना चाहिए। एक लीडर हमेशा से ही टीम के सामने उदाहरण बनता है। उसके सुरक्षात्मक हो जाने पर बाकी के सदस्य अपनी-अपनी सोचने लगते हैं। विराट कोहली में किसी प्रकार का डर नहीं है। वे रोहित शर्मा, अंजिक्य रहाणे या शिखर धवन को पूरा मौका देते हैं। कोहली बेफिक्र हैं कि तीनों कभी टीम में स्थान बनाने की दौड़ में उनके प्रतिद्वंदी रहे।

 आत्मविश्वास का भाव चेहरे, खेल और जीवन में दिखता है। सुरक्षा के खोल में बैठा हुआ आदमी सुई को भी तलवार समझता है। लीडर पैदाइशी होते हैं उन्हें बनाया नहीं जाता।

आप कार्यस्थल पर आप इस तरह के भयग्रस्त लोगों से दो-चार होते होंगे, जिन्हें किस्मत से कुर्सी मिलती है और वे उसे बचाने सार्वजनिक अपमान झेलते हैं। वे खुश रहते हैं कि  बरकरार हैं, बाहर की जग हंसाई उनको व्यर्थ की लगती है। 


धोनी जान लगा देनेवाले खिलाड़ी हैं।  कोहली के टीम लीडर बनने  से वे असुरक्षा महसूस कर रहे हैं। दिलेर एमएसडी अपने स्कोरिंग रेट से अधिक व्यक्तिगत स्कोर पर ध्यान देने लगे हैं।

 कारपोरेट ऑफिसेस में विराजमान बड़े अधिकारी कंपनी को भाड़ में झोंककर अपने इर्द-गिर्द नैसर्गिक प्रतिभा को आने नहीं देते। उनका ध्येय वाक्य होता है- "हमें तनख्वाह बनाने से मतलब। " अपने शागिर्दों को भी वे यही सिखाते हैं। 

धोनी को इस तरह की घटिया सोच ने नहीं छुआ होगा फिर भी वे असहाय दिखने लगे हैं। मानों वे लिखित में कप्तान हैं और उनकी खेल में भूमिका बारहवें खिलाड़ी की है।  धोनी की बड़ी  हैसियत की वजह से कोच अनिल कुंबले उन्हें बल्लेबाजी सुधारने को नहीं कह सकते। 

मैं धोनी का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। उन पर गर्व होता है। मेरी तरह देश में करोड़ों प्रशंसक बनाए हैं धोनी ने। अब वक्त आ गया है उन्हें विराट को वन-डे और टी-20 की कप्तानी सौंप देनी चाहिए। वे चाहें तो बतौर विकेटकीपर बैट्समैन टीम में बने रह सकते हैं। उनके प्रशंसक अपने आदर्श  को ब्लू जर्सी में विराट के नीचे नहीं देखना चाहेंगे। धोनी सक्षम हैं फैसला लेने में।
हर कप्तान को एक दिन अपनी जर्सी उतारनी पड़ती है। विराट भी आगे किसी के लिए उतारेंगे, अभी तो धोनी की बारी है.. .

Wednesday, 19 October 2016

करवाचौथ के दिन अरब में तलाक की खबर


अरब देश के एक मियां साहब अपनी बेगम के हुस्न के दीवाने थे। निकाह के पहले बेगम की तस्वीरें उनके लिए चांद की रोशनी हुआ करती थीं। दीवानगी का आलम शादी के बाद भी कायम रहा। एक दिन मियां साहब को बेगम के साथ तैराकी का मजा लेने का मन हुआ। बेगम पानी में उतरीं। मियां साहब ने उन्हें पहचाना नहीं। तलाक हो गया।

वाकया शारजाह के अल ममजार समंदर तट का है। तलाक की वजह थी बीवी का विद और विदाउट मेकअप अलग-अलग दिखना। क्या ये वजह हुई? केस कुछ यूं है कि बेगम साहिबा मेकअप के साथ समंदर की लहरों में उतरीं। समंदर ने बेगम का मेकअप धो दिया। मियां साहब अपनी शरीके-हयात का असल चेहरा बर्दाश्त नहीं कर पाए। उन्होंने बेगम को  तलाक दे दिया।

संयुक्त अरब अमीरात की यह खबर आज भारत में करवाचौथ के दिन बड़ी चर्चा में है। इस तरह की खबरें एक तरह से चुटीली होती हैं क्योंकि जिन्हें हम जानते नहीं उनसे संवेदना नहीं जुड़ी होती। भावनाओं का समंदर अंदर पाले बैठे बंदों की बात जुदा है। वे किसी भी बात पर भावना बेच सकते हैं।

बात संयुक्त अरब अमीरात की है। हम भारतीय इस पर टीका-टिप्पणी कर सकते हैं। इसकी विवेचना कर सकते हैं। हमारे देश में खिसियाए हुए नैतिक-सैद्धांतिक दिव्यात्माएं तीन तलाक की बहस में पड़े हुए हैं।
इस वातावरण में मैं अरब के इस तलाक को विवेचित करना चाहूंगा।

पहले आते हैं माननीय मियां साहब पर। उनमें भौतिक सुंदरता के प्रति इतना आग्रह था कि पत्नी को अपने मन-मुताबिक न पाकर फौरन रास्ते अलग करने का फैसला कर लिया। अब इसमें उनकी बेगम की कितनी गलती थी? कुदरत ने उन्हें जैसा बनाया, वे वैसी नहीं पसंद की जातीं, सो सामंजस्य बिठाते हुए उन्होंने गैर-कुदरती साधनों का सहारा लिया। कास्मेटिक्स ने उन्हें नया रूप दिया।

गलती उन्होंने भी की। उनसे पूरी सहानुभूति रखते हुए यह कहना चाहूंगा कि पहला धोखा उन्होंने किया। उन्होंने यह कबूल भी किया है कि वे अपने शौहर को सच बताना चाहती थीं मगर देर हो चुकी थी। खबर में चुटीलापन समंदर में बेगम का मेकअप उतर जाने का किस्सा जोड़ देने से आता है। लेकिन यह खबर का सच नहीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि तलाक का कारण केवल शारीरिक खूबसूरती नहीं रही होगी। हमें चेहरों पर मानसिकता नहीं दिखती। तलाक की कतार के खड़े जोड़ों के अंतर्मन को पढ़ा नहीं जा सकता। खबरों में निजता को परिभाषित नहीं किया जा सकता। जाहिर है कि तलाक का मूल कारण स्पष्ट नहीं किया जा सकता। यह मानसिक रुढिय़ों से पैदा  होता है।

 हो सकता है मियां साहब को  हमसफर का फरेब पसंद न आया हो। वे स्वयं को दुनिया का सबसे सच्चा आदमी मानते हों। मेकअप से असली चेहरा छिपाना उन्हें छलावा मालूम हुआ हो। मियां साहब को अरब के तेल और सोने से छलावे को अलग करना आता हो!

हर आदमी अपने ढंग से रिश्ते के बारे में सोचता है। इसमें भरोसे से अधिक सहूलियत का ख्याल रखा जाता है। मान-मर्यादा देखकर सैद्धांतिक बातें जोड़ दी जाती हैं। शादी के साथ एक टैगलाइन जुड़ी हुई है 'जनम-जनम का साथ।'  प्रैक्टीकली सोचें तो जनम-जनम के साथ में शारीरिक-मानसिक ईमानदारी के आजाद तकाजे होते हैं। संभावना इसकी भी है कि मियां साहब ने सोचा हो कि वे बेगम के साथ रिश्ता निभा नहीं पाएंगे, सो उन्हें धोखे में रखने की बजाय  उनसे अलग हो गए।

अरब की यह खबर इस अजीब तलाक के सार्वजनिक हो जाने से नहीं बनी है। बेगम साहिबा ने डॉक्टर को अपनी कहानी सुनाई और डॉक्टर साहब ने दुनिया को, नतीजन खबर बनी। अमानवीय सिद्धांतों के पैरोकार कहेंगे " बेगम को उस मर्द को पहले ही तलाक दे देना चाहिए था जिसने खूबसूरती के लिए शादी की थी।"
 पर क्या सभी के लिए यह साहस मुमकिन होता है? बेगम क्या जानती नहीं रही होंगी कि उनका शौहर उनके लुक्स पर फिदा है।

इस तलाक की तहकीकात करें तो बात शादीशुदा जोड़ों के आपसी लगाव पर आकर टिकती है। कितना सैद्धांतिक और नैतिक लगता है यह कहना कि शादी को पूरी शिद्दत से निभाना चाहिए। तलाक ने उस अरब महिला को अवसाद में डाल दिया । इसलिए वह डॉक्टर के पास पहुंची थी। डॉक्टर ने उसे समझाया होगा कि  उसे शादी में रहकर भी अवसाद होता। उसका पूर्व पति खूबसूरती मन में बिठाए बैठा था, वह उससे सही व्यवहार नहीं करता।

इधर हमारे देश में तीन तलाक पर अभी बहस चल रही है। सभी इसके हिस्सेदार हैं। हिंदू और मुस्लिम विवाह का कानून अलग-अलग होने पर विचार बंट गए हैं।

अरब की इस घटना को ध्यान में रखते सोचिए क्या तलाक एक निहायत ही निजी निर्णय नहीं है? निजता में धर्म को लाकर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। किसी भी धर्म ने अलगाव को सही नहीं बताया है। हमें तलाक को दो पक्षों की ज्याती जिंदगी के नजरिए से देखना चाहिए। दुनिया के पुराने अफसाने कहते हैं कि सारे मजहबों के मर्दों ने अपनी सहूलियत को ध्यान में रखकर सामाजिक कानून बनाए। अदालतों में ज्यादातर जज मर्द ही होते हैं। अब क्या हम इस पर ही बहस करने लग जाएं कि अदालतों में भी 50 फीसदी महिला न्यायाधीश बैठें।

बहस विवाह के कानूनों में महिलाओं के अधिकार पर होनी चाहिए। यूनिफार्म सिविल कोड भावना के आधार पर नहीं बनाया गया है। किसी भी प्रकार का सामाजिक कायदा जज्बात नहीं देखता। एक  संवाद है- "अदालत जज्बात नहीं सबूत देखती है।"
तलाक भौतिकता से अधिक मानसिकता से प्रेरित हो सकता है। 'जाकी रही भावना जैसी।'  हालांकि अच्छी मानसिकता रहने पर तलाक अस्तित्व में ही नहीं आता। महान मानसिकता संत-फकीरों की होती है और आमतौर पर वे शादी नहीं किया करते।

बदलते परिवेश में लडक़ी या लडक़े के लिए विवाह नामक सामाजिक संस्था आजादी का प्रतीक होनी चाहिए। शादी का नतीजा तलाक नहीं हो सकता बशर्ते रिश्ता झूठ और दिखावे पर न टिका हो। जैसा कि उस अरब जोड़े का प्रकरण हुआ। बेगम ने चेहरे पर झूठ लगाया और शौहर को दिखावा पसंद था। 'माइनस'-'माइनस'  प्लस होने की थ्योरी यहां उल्टी पड़ गई। 'माइनस' प्लस 'माइनस' बराबर तलाक हो गया। इससे ज्यादा बेहतर ढंग से कह सकते हैं कि शायद बेगम ने मेकअप का झूठ ही इसलिए लगाया क्योंकि शौहर को खूबसूरती के दिखावे पर यकीन था।

 हमारे देश में इस प्रकार के प्रकरण सामने नहीं लाए जाते। हम सुनते रहते हैं कि लडक़ेवालों ने इलेक्ट्रिकल इंजीनियर बताकर शादी की, बारहवी में तीन बार फेल लडक़ा घरों में बिजली फिटिंग करनेवाला निकला। इसी तरह मायकेवालों ने लडक़ी को शांत बताया, उसने ससुराल की शांति भंग कर दी।

तलाक पर चर्चा में शामिल सभी विशेषज्ञों को अपनी शादीशुदा जिंदगी में झांककर पैनल पर आना चाहिए। तलाक को पति-पत्नी का नितांत निजी निर्णय रहने दिया जाए। नैतिकता का ढोल नहीं पीटना चाहिए। पुरुष अधिकार-महिला अधिकार की बहसों ने स्त्री-पुरुष के बीच खाई खड़ी कर दी है।

जो मुझे पता है वो आपको बता दूं कि भारत में तीन बार तलाक कह देने भर से तलाक नहीं हो जाता। क्यों इस पर बहस चल रही है? बहस करनेवालों का धर्म नहीं, सामान्य ज्ञान जांचा  जाए। कानून की आंख में बंधी पट्टी उसके कानों से होकर गुजरती है। यानी वह देखकर और सुनकर न्याय नहीं करता। उसे वाजिब तथ्य की दरकार होती है।  तीन बार तलाक सुनकर सामाजिक और धार्मिक अदालतें भी फैसला नहीं देतीं। सुनवाई हर जगह मुमकिन है।

अंतागढ़ का टेप कांग्रेस के बदलाव का कारण बना, उसे भूलकर राय-कौशिक में उलझ रहे हैं नेता


मैं अंतागढ़ का टेप सुनना चाहता हूं। यह मेरी जिज्ञासा है। कल कोई कह रहा था ‘कांग्रेस की राजनीति में टेप कांड ने बदलाव लाया।’ मुझे भी लगता है, आज की कांग्रेस में मजबूत दिखते संगठन के पीछे केवल एक वजह है- अंतागढ़ टेप कांड। इसके अलावा कांग्रेस के पास सरकार का कदाचरण बताने के लिए कुछ नहीं है क्योंकि नान और चावल घोटाले में कांग्रेस तथ्य नहीं जुटा पाई।

प्रथम चरण में कांग्रेस ने अंतागढ़ टेप से अपनी पुरानी सियासी जमीन को भविष्य में जोगी के अतिक्रमण से बचा लिया था। दूसरे चरण में घटनाक्रम के बजाय कांग्रेस संगठन और जोगी में घमासान को तवज्जो मिली। भूपेश बघेल यह नहीं चाहते रहे होंगे। मेरा ख्याल है कि जोगी भी पुरानी पार्टी से अचानक की आर-पार का रण छेडऩे की स्थिति में नहीं थे।  टेप कांड दो रोज की सुर्खियों के बाद झटके से गायब कर दिया गया। एक सीधे-साफ घटनाक्रम को अविश्वसनीय बताने के लिए उसे कथित कहा गया। टेप प्रकरण में सामने आए नामों को उनकी ताकत के मुताबिक दबाया- उभारा जा रहा है। शक्तिशाली लोग प्रचारतंत्र पर आसान पकड़ बना लेते हैं। कांग्रेस से बेहतर कोई नहीं बता सकता कि भाजपा के सदस्य अखबार की एक्सक्लूसिव खबरें देखकर मुस्कुराते क्यों हैं!

कांग्रेस के नए नेतृत्व को सहृदयता से स्वीकार करना चाहिए कि उसने अनुभवहीनता दिखाई है। अंतागढ़ का टेप जोगी के जाने का कारण भर बनकर रह गया। लगा जैसे कांग्रेस इसे रमन से अधिक जोगी के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहती है। इससे कांग्रेस वर्सेज जोगी का चुनावी चित्र बना । समझ नहीं आया कि कांग्रेस का नंबर वन दुश्मन कौन है? जोगी या रमन!

मतदाता दो या तीन एजेंडों के आधार पर मन बनाते हैं। बीसियों मुद्दे उन्हें  भटका देते हैं।
 प्रदेश कांग्रेस पुराने व अधिक प्रभावकारी मुद्दों को सिरे से भूलकर नए काम पर लग जाती है। कांग्रेस नेतृत्व को सत्ता की कमजोरियां बताने के लिए ज्यादा से ज्यादा पांच बड़े मुद्दे चुनने चाहिए। जिन पर उसे एड़ी-चोटी का जोर लगाकर काम करना होगा। वह तय कर ले कि सरकार व सहयोगियों के कदाचरण में अंतागढ़ को किस नंबर पर रखा जाए! कल सूचना मिली कि पुलिस में अंतागढ़ टेप मामले की एफआईआर नहीं है। यह संगठन की लापरवाही है या मकसद निकल जाने के बाद की सुस्ती।

क्या अंतागढ़ टेप कांड ने सत्ता से अलग होने के बाद कांग्रेस को एक मेकओवर नहीं दिया था? इससे नए नेतृत्व को मान्यता नहीं मिली थी? उससे जनता से घरों-घर जाकर फीडबैक लेना था। उसे आमजन की सोच मालूम हो जाती। पब्लिक ओपिनियन के मुताबिक आगे की रणनीति बनती तो आज गुंडरदेही विधायक आरके राय के अवश्यसंभावी निष्कासन की खबर अखबारों के प्रथम पृष्ठ पर प्रमुखता से नहीं छपती। कांग्रेस के रणनीतिकार नहीं समझ रहे हैं कि उनकी पार्टी को किस तरह से घेरा जा रहा है! अंतागढ़ टेप कहीं फंस गया है। आरके राय और बिल्हा विधायक सियाराम कौशिक को सुर्खियां मिलने के पीछे कौन सा गठजोड़ या फैक्टर है? दोनों इतने बड़े नेता नहीं कि सियायत चार दिनों के लिए सही लेकिन उनके विद्रोह पर टिक जाए। नई राजनीति में मीडिया में बगावत को स्थापित किया जाता है। जिसका होना अंधे को भी नजर आए उसे रेखांकित किया जाना प्रायोजित लगता है।



Monday, 17 October 2016

ए दिल को शिवाय से मुश्किल नहीं



एक ही फिल्म के बारे में यह दूसरी बार लिखना पड़ रहा है। दीवाली में ‘ऐ दिल है मुश्किल’  के साथ अजय देवगन की शिवाय भी आएगी। निगेटिव पब्लिसिटी से ‘ऐ दिल’ को ज्यादा चर्चाएं मिल रही हैं, कोई मुश्किल नहीं है। फिल्म के लिए यह अच्छा है। अजय देवगन को चिंता होगी। कुछ दिनों पहले अजय आश्वस्त रहे होंगे देश का माहौल देखकर। अब भावनाओं का मौसम बदल रहा है।

चार राज्यों क्रमश: गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा और कर्नाटक में ऐ दिल का परदे पर आना फिलहाल मुश्किल दिखता है। बाकी राज्यों में भी तोडफ़ोड़ की आशंकाएं हैं। फिर भी चूंकि भावनाओं का मौसम बदल रहा है फिल्म के समर्थकों और विरोधियों को सबकुछ भगवान के हाथ में नहीं छोडऩा चाहिए। उन्हें ऐ दिल को दर्शकों के भरोसे  छोड़ देना चाहिए।
अब आते हैं अजय देवगन की चिंता पर। शिवाय और ऐ दिल के ट्रेलर में कौन ज्यादा आकर्षक है? सरल सवाल का उससे भी आसान जवाब, ऐ दिल है मुश्किल का ट्रेलर अच्छा लगता है।
 रणबीर कपूर कोई बहुत अधिक नया किरदार करते नहीं दिख रहे। वे चिकने हैं और ऐश्वर्या राय सुंदर लग रही हैं। रणबीर से उनके रोमांस के सीन कितने गहरे हैं!  छिपा हुआ अर्थ समझ जाइए। फिल्म के ट्रेलर में करण जौहर किस्म के रोमांस का ऑफर है। फिल्म के प्रोमो में पाकिस्तानी एक्टर फवाद खान भी नजर आते हैं। डीजे लुक लिए। करण जौहर ने अपने स्तर का पूरा ‘इंडियन कान्टिनेंटल’ तैयार किया है। गाने बेहतरीन हैं।

 अजय देवगन कमजोर डायरेक्टर हैं। यह बताने की जरूरत नहीं पडऩी चाहिए कि शिवाय का निर्देशन उन्होंने किया है। सो डायरेक्शन की तुलना होगी। फिल्म का टाइटिल सांग बता देता है कि वे अभी  कच्चे हैं। त्योहारी डेट पर रीलीज होनेवाली फिल्मों की सबसे बड़ी यूएसपी उनका संगीत रहा है। अजय ने काजोल और खुद को लेकर यू, मी और हम डायरेक्ट की थी। फिल्म का स्क्रीनप्ले इतना वाहियात था कि उस पर शोध होना चाहिए कि यदि हम किसी विदेशी फिल्म से इंस्पायर होकर अपना माल तैयार करें तो स्क्रीनप्ले में क्या नहीं होना चाहिए। शिवाय अजय देवगन की डायरेक्टर बनने की ‘ठरक’ मिटा सकती है (अजय मुझे गलत साबित कर दें तो मुझे गर्व होगा) ।

अभी मैंने एनडीटीवी में देखा कि अनुराग कश्यप ने ऐ दिल है मुश्किल की रीलीज को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को डिप्लोमेसी का लेक्चर दिया है ट्विटर पर। करण जौहर ने कुछ नहीं कहा है, कश्यप ज्ञान दे रहे हैं। मैं उनका ट्विटर फॉलोवर नहीं हूं। ज्यादा लिख नहीं सकता। इतना कह सकता हूं कि यह फिल्म को नए तरीके से प्रमोट करने का तरीका है। करन ने अनुराग को यह करने को नहीं कहा होगा । अनुराग अपनी भक्ति दिखा रहे हैं। एक औसत निर्देशक विद्रोही तेवर दिखाकर सुर्ख़ियों में बने रहने का हुनर जानता है। वे राजकुमार हीरानी से अधिक पापुलर हैं मीडिया में उनकी फिल्मों ने कितने पैसे डुबाए यह छोड़िये।

 अनुराग और करण की जुगलबंदी से सभी वाकिफ हैं। अनुराग की उड़ता पंजाब रीलीज के पहले लीक हुई और उम्मीद से अधिक चली। गैंग्स  ऑफ वासेपुर के दोनों पार्ट विरोध से चर्चा में आए। फिल्म अनगढ़ डाक्यूमेंट्री के समकक्ष बनी। दृश्यों में सामंजस्य नहीं था। पात्र फिल्म के विषय के अनुरूप थे लेकिन उनका चित्रण विरोधाभासी था। इस फिल्म को मैंने देखा है। अभिनय और संवाद खुश कर देते हैं। इतना खुश कि हम यही भूल जाते हैं कि फिल्म का विषय क्या है? क्यों है? पात्र चाहते क्या हैं? हालांकि दोनों फिल्म के दोनों पार्ट ठीकठाक चल गए। परिणामस्वरूप नए सितारे नवाजुद्दीन का जन्म हुआ। अनुराग की सनक पर ठप्पा लग गया। उन्हें क्रिएटिव की संज्ञा मिल गई। अनुराग अपने से ठीक उल्टे करण जौहर के साथ फिल्मी पार्टियां शेयर करते हैं। इस तरह उन्होंने बाम्बे वेलवेट को भी शेयर किया। डार्क फिल्मों के इतिहास में इतनी डैमेजिंग फिल्म नहीं आई।

करण जौहर और अनुराग समानता रखते होंगे। अनुराग की फिल्में उनका टेस्ट बताती हैं, या बताती हैं कि अनुराग वास्तविक जीवन में कैसे हैं? करण की फिल्में उनके पकाऊ अकेलेपन में पैशनेट लव का मैसेज लिए होती हैं।  ‘इट्स ऑल अबाउट लविंग एवरी-वन’। अनुराग कश्यप की हीरोइन घर में आनेवाले धोबी से भी सेक्स कर सकती है। करण की हीरोइनें क्लास का ख्याल रखती हैं।

इतना सब बताने के बाद यह भी बता दूं कि शिवाय से ऐ दिल है मुश्किल ज्यादा चलनेवाली है, विरोध कितना भी हो। ऐ दिल है मुश्किल देखकर निकलनेवाला हमारा लिबरल यूथ कहेगा ‘ ओह मॉय गॉड। रणबीर इज जस्ट ऑवसम। आई लव यू ऐश। शी इज मोर हॉटर देन अनुष्का। बट अनुष्का आलसो प्लेड गुड..हां। ’

इधर शिवाय देखने टिपिकल देवगन फैन जाएंगे। बुल्गारिया की बर्फलदी पहाड़ी में औंधे मुंह कपड़े निकालकर पड़ा आदमी शिवाय हो सकता है! यह मेरा अनुमान है। हो सकता है कोई और शिवाय निकल आए! फिल्म का पहला पोस्टर क्लासिक था। बाद में ट्रेलर ने कचरा कर दिया। टाइटिल सांग मोहित चौहान की आवाज में शुरू होता है। आध्यात्मिक फीलिंग आती है। अचानक सुखविंदर गाने की जगह चीखने लगते हैं। और इसके बाद बादशाह का रैप सुनाई पड़ता है। इतना गंदा फ्यूजन। फिल्म का नाम शिवाय, इसके अजीब टाइटिल ट्रैक को जस्टीफाई नहीं करता।  ट्रेलर त्योहारों की पारम्परिक पब्लिक को सिनेमा देखने नहीं बुला रहा।  देवगन की किस्मत रातोंरात सलमान खान सी हो जाए तो मेरे विश्लेषण का क्या रह जाएगा, इस पर बाद में चिंतन करूंगा।
अब रहा सवाल ओपनिंग का। मुझे लगता है कि ऐ दिल है मुश्किल इसमें भी आगे रहेगी। मल्टीप्लेक्स में यूथ फिल्म चलाता है। करण का सिनेमा मल्टीप्लेक्स का दर्शनशास्त्र है। सिंगल स्क्रीन से मल्टीप्लेक्स की कमाई तिगुनी होती है।  यह दर्शनशास्त्र का अर्थशास्त्र है।
वैसे भी अजय देवगन के निर्देशन से मुझे चमत्कार की उम्मीद नहीं है। करण जौहर पक्के कमर्शियल डायरेक्टर हैं। अजय देवगन भी कमाना चाहते हैं और करण जौहर भी। दोनों का मकसद कमाई है। जौहर  फिल्मशास्त्र  में देवगन के पापा हैं।
देशभक्ति और देशविरोधी की बहस में पडऩे की बजाय सिर्फ मैं एक विचार रखना चाहूंगा कि यदि फवाद ने उड़ी हमले पर अपना ओपिनियन खुलकर रखा होता तो आज करण का यह हाल नहीं होता। मैं गलत साबित हो सकता हूं यह कहकर कि उन्हें इस हालत में पडऩे की आदत पड़ चुकी है। मॉय नेम इज खान के बाद से उनकी फिल्मों को लेकर एक नकारात्मक जिज्ञासा उपजती रहती है। कलाकारों पर सरहदों के लागू न होने पर तर्क करनेवालों से सिर्फ एक सवाल है -पाकिस्तान और भारत में युद्ध हो जाए तो क्या वे न्यूट्रल रहेंगे? क्योंकि उन्हें मालूम है भावनाओं का मौसम बदलता रहता है।

फिल्मों का विरोध नहीं होना चाहिए, पर क्या फिल्म देखना किसी व्यक्ति की अंतिम इच्छा हो सकती है? मतलब इस टाइप की इच्छा कि मैं फिल्म न देखूं तो मर जाऊंगा। मैं दीवाली नहीं फ़िल्में मनाता हूं।



Sunday, 16 October 2016

शमीना और डरपोक बादल

 

 

ये एक कहानी है बचपन की। इसको बचपने में ही पढ़ें।  


मेरी झोपड़ी से होकर जाती नीली नदी के पार हरी घास का मैदान था। उसमें एक किला था। किले के ऊपर मीनार थी जिसके पास एक बादल रहता था। छोटा सा, सफेद और डरपोक बादल। बादल थोड़ा मोटू भी था। किला ऊपर की ओर खूब लंबा तना हुआ था। डरपोक बादल उसके सिर पर खरगोश के फर से बने कनटोप सा रहता। हल्के रंग के पत्थरों को चौकोर घेरों से जोडक़र किला बनाया गया था। लगता था हर पत्थर को एक फोटो फ्रेम मिला है।

किले के नीचे हरी घास का मैदान बहुत आलसी था। मैंने उसे कभी करवट लेते हुए नहीं देखा। मैं और शमीना उस पर दौड़ते। दौड़ते हुए हम जान जाते कि मैदान को गुदगुदी हो रही है। हंसी के मारे उसका फूला पेट हिलता मगर वो हंसते-हंसते वहीं पड़ा रहता। पलटी नहीं मारता था। शमीना ने बताया कि उसने हरी घास के मैदान को टांगें उठाकर पेट पर हाथ रखकर हा..हा..हंसते देखा है। मैंने भी उससे झूठ में कह दिया ‘मैदान के पेट में राक्षस सोता है। किले के अंदर भूत है और डरपोक बादल उसका बेटा है। ’

मैं और शमीना हरी घास के मैदान दौडऩे आते गांव चाचा को पीछे छोडक़र। गांव चाचा बुरे नहीं थे। मगर लड़कियों को लडक़ों के साथ खेलने से रोकते थे। कहते थे ‘लडक़ी और लडक़ा साथ खेले तो एक दिन भाग जाएंगे।’
मैं शमीना का दोस्त था। बारह साल का था। शमीना दस की थी। उसके अम्मी-अब्बू गांव चाचा से डरते थे। शमीना कहती ‘ मैं एक दिन इन सबको छोडक़र भाग जाऊंगी। ’

एक दिन दौड़ते हुए हम किले तक पहुंच गए। शमीना ने कहा ‘देखो मुंशी.. .वो डरपोक बादल हंस रहा है।’
 मुझे डरपोक बादल की हंसी नहीं दिखी। मुझे डरपोक बादल से चिढ़ थी।  मैं और शमीना किले के अंदर घुस गए। अंधेरा था। बीच-बीच में उजाला भी था। हम दोनों को डर लग रहा था। वहां कोई नहीं दिखा। शमीना ने मेरे एक हाथ को अपने दोनों हाथों से दबोच लिया।

किला बहुत प्यारा निकला। उसने हमें खीर और पूड़ी खाने को दी। बाद में मीठी गोलियां भी दीं। नींद आने लगी। मैंने देखा बड़े झरोखे के पास जाकर शमीना डरपोक बादल को देख रही है। डरपोक बादल उसे देखकर हाथ हिला रहा है। डरपोक बादल मुस्कुरा रहा था। किले ने हमें सोने के लिए सूखी घास के गट्ठर  दिए। मुझे लगा डरपोक बादल को शमीना अच्छी लगी। मुझे वो डरपोक बादल अच्छा नहीं लगा। बात-बात पर सुबकता था।

दूसरे दिन किले के बाहर गांव चाचा खड़े थे। उनको गुस्सा आ गया था। गांव चाचा किले पर चिल्ला रहे थे। किला चुप रहा। डरपोक बादल किले से पहले से ज्यादा चिपट गया। गांव चाचा बहुत ताकतवर थे। किले और डरपोक बादल को एक साथ पीट देते। डरपोक बादल को तो अपनी मुट्ठी  में बंद कर लेते या उसे चींटी बनाकर मसल देते।
गांव चाचा ने किले को दो लट्ठ  लगाए। इधर मैंने शमीना को उठाने की कोशिश की। उसके सब तरफ सफेद पंख बिखरे थे। बहुत  सारी सफेद चिडिय़ों ने वहां पंख छोड़े थे। उन सारी चिडिय़ों का घर भी किले में ही था। सफेद चिडिय़ों ने फडफ़ड़ाना शुरू कर दिया।

शमीना आंखें मींचकर सोई थी। मैं उसे नहीं उठाना चाहता था। नहीं तो गांव चाचा मुझे भी लट्ठ  मारते। मैं अकेले ही बाहर निकला। किले की छत पर पहुंचा। डरपोक बादल डरा हुआ सुबक रहा था। मैंने उससे कहा ‘रोओ मत, डरो मत।’ डरपोक बादल ने बताया ‘ मां की याद आ रही है। ’ उसकी मां उसे छोडक़र चली गई थी। तब से डरपोक बादल किले के पास रहता था क्योंकि उसे आसमान में अकेले डर लगता था।

मैंने नीचे देखा। गांव चाचा लट्ठ घुमाने लगे थे। किले की बहुत पिटाई होनी थी। मैं चिल्लाया - ‘गांव चाचा, गांव चाचा .. .मैं यहां हूं।’  गांव चाचा को मैं दिख गया। उन्होंने मुझे नीचे आने को कहा। गांव चाचा ने मेरा हाथ पकड़ा और किले को धमकाते हुए मुझे लेकर चल दिए।

मैंने डर के मारे उन्हें नहीं बताया कि किले के अंदर शमीना भी  है।

शमीना को मैंने वहां छोड़ दिया। किसी को नहीं बताया। उसके अम्मी-अब्बू अपने बाल खींचकर खूब रोए। मैं अगले दिन किले के पास गया। वहां शमीना नहीं मिली। किले ने कुछ नहीं बताया। मैं सोचता रहा शमीना किले से बाहर क्यों नहीं आई!

उसी शाम गांव चाचा ने मुझे काम पर लगा दिया। पता नहीं उन्हें कैसे मालूम हो गया था कि शमीना किले के अंदर है। मेरा काम था ‘किले से उस डरपोक बादल को दूर भगाने का। ’

मैं किले के बाहर पहुंचा। उससे धमकाया ‘बता दे शमीना कहां है? नहीं तो मैं तेरे बादल को भगा दूंगा।’ किला चुप रहा। डरपोक बादल कांपने लगा। उस गोल-मटोल बादल ने अपने हाथ सिकोड़ लिए। उसने आंखें बंद कर लीं। उसके मोटे गालों के बीच आंखें छिप गईं।  वो किले से लिपट गया।

किले से सफेद चिडिय़ों की आवाजें आने लगीं। सारी सफेद चिडिय़ों ने बाहर आकर इधर-उधर उडऩा शुरू किया। उनके पीछे से शमीना बाहर आई। शमीना ने बताया कि उसने बादल को अपना दोस्त बना लिया है। वह उसके साथ भाग जाएगी। चाहे गांव चाचा उसकी लट्ठ  से पिटाई करें। डरपोक बादल शमीना की बात सुनकर खुश दिखने लगा।

मैंने शमीना के हाथ खींचकर उसे किले से नीचे उतारने का मन बनाया।  मुझे न देखते हुए शमीना डरपोक बादल से लिपटकर उसे समझा रही थी। डरपोक बादल सुबक ही रहा था।

मैं गांव चाचा के पास लौट आया। उनसे झूठ कह दिया ‘ चाचा, बादल भाग जाएगा, उससे कह दिया है। ’

उस रात चांदनी बिखरी हुई थी। हरी घास के मैदान में किला सफेद दिख रहा था। अचानक डरपोक बादल और शमीना आसमान में उड़ते नजर आए। कभी डरपोक बादल शमीना हो जाता,  कभी शमीना डरपोक बादल बन जाती।

 दोनों मेरे और गांव चाचा के ऊपर से भी उड़े, सफेद चिडिय़ों के साथ।

अगले दिन किले के ऊपर डरपोक बादल नहीं था। मैंने किले से सवाल किया। किला चुप रहा। शमीना उस डरपोक-मोटू बादल के साथ भाग गई थी। गांव चाचा अब उसका क्या कर लेंगे?

Thursday, 13 October 2016

हमको तो पता नहीं था कि अपने पास भी एक पटना है


जब से घर वापसी हुई है, लगता है मैं किसी और राज्य में आ गया हूं। अब आज एक खबर देखी-कोरिया जिले ‘के’ पटना में श्रममंत्री भैयालाल राजवाड़े ‘के’ बेटे विजय राजवाड़े ‘के’ सुरक्षा गार्ड सुखपाल सिंह बरार ने.. .. (थोड़ा सांस लेलूं, इतना लंबा इंट्रो लिखते फेफड़े फूल गए) दशहरा ‘के’ कार्यक्रम में गोलियां चलाईं। सुना है वहां ढिनचक डांस भी हो रहा था।
हमको खबर पर नहीं बात करनी है। हम छत्तीसगढ़ के हैं। टोटल-ओवर इन ऑल छत्तीसगढिय़ा हैं। हमारा तो आंखी चकरा रहा है। माथा घूम गया है। बताओ.. .इतने दिनों बाद आज जाकर पता चला कि अपने पास भी एक पटना है। और वो पटना भी कहां है!!??? सोचो.. . सोचो.. . !!!
 कोरिया में।
वैसे कोरिया का हमको पता था। पटना का नहीं।

धन्यवाद भैयालाल राजवाड़े ‘के’ बेटे विजय राजवाड़े ‘के’ सुरक्षा गार्ड सुखपाल सिंह ‘का’, क्या जनरल नॉलेज बढ़ाया तुमने भाई! मतलब एकदम विद्या कसम कह रहे हैं, हमको इत्ता सा भी नहीं पता था कि कोरिया में पटना है। क्या बताएं हम तो अवाक हैं कि वो ‘पटना’ अपना छत्तीसगढिय़ा पटना है। बिहार का पटना नहीं है।
तुम तो भैयालाल राजवाड़े से बड़ेवाले भैया हो।
तुमको प्रमोशन मिलना चाहिए जांबाज सिपाही (निजी ही सही)।
तुमने तो हमारा पटना हिला दिया।

 कहां थे तुम? हम यहां यूपी-बिहार में घूमते हुए हीनता का अनुभव कर रहे थे। सोच रहे थे कि देखो हमारे यहां न नाच होता, न गोली चलती। अपने यहां लोकल में धूम-धड़ाका के बारे में बताने के लिए कुछ है कहां! अलबत्ता राजनीति अपनी भी लो लेवल की है, पर इसमें डांस का हाई लेवल लाकर तुमने इतिहास रच दिया। तुमने नया आयाम स्थापित कर दिया।

हमारे यहां तो ‘बिचारा’ सीधा-सादा कलाकार लोग आते हैं। गम्मत-नाचा करके निकल लेते हैं। भई तुमने एक नया टेस्ट लाया है बाबू। एकदम यूपी-बिहार वाला। जबरा डांस हुआ है सुने हैं!
हम तो सुने हैं, तुम सुने हो कि नाही कि ये अखबारों में तुम कितना रटपटा के छाए हुए हो? कमाल ही कर दिया। इतना चंगेजी काम किया लेकिन मानना पड़ेगा तुमको।  घमंड नहीं है तुमको तनिक भी। आज अखबार देखके लजलजा गए होगे। मन ही मन कह रहे होगे ‘वहां मजा वहां सबको आ रहा था। आज अखबारों ने इकलौते तुमको ही वीरता पुरस्कार प्रदान कर दिया है। ’

 तुम्हारी धमक देखो राजा.. पुलिस कह रही है ‘ कोई शिकायत नहीं मिली है।’
हम तो कहते हैं  'जियो हो राजा.. .जियो..।'
‘बे’फालतू में यहां का बुद्धिजीवी लोग तुम्हारे पीछे पड़ गया है। ‘भैया’ सुखपाल तुमने तो एक कल्चर लाया है हमारे यहां! तुम्हारा सार्वजनिक सम्मान होना चाहिए। हमारे जैसे लडक़ों की तो छाती चौड़ी हो गई। अब हम भी यूपी-बिहार में सीना तानकर जाएंगे और कहेंगे ‘अपने यहां भी वही डांस हो रहा है भाई लोग, गोलियां भी चल रही हैं। ’

वो भी सुनके ठकठका जाएंगे। बोले तो हड़बड़ा जाएंगे। डांस-बंदूक से नहीं। जब उनको छत्तीसगढ़ में ‘कोरिया’ के होने का पता चलेगा। सन्न हो जाएंगे। वो सन्न रहेंगे तब हम दूसरा झटका देंगे ‘ कोरिया तो हइये सही, उ कोरिया के अंदर एक पटना भी है।’ झन्ना जाएगी सुननेवालों की खोपड़ी।

दू साल बाद चुनाव आ रहा है सुखपाल बाबू। तुम जैसा क्रांतिकारी-युगपरिवर्तक लोग का जरूरत है। यहां सब ढर्रा में चल रहा है। दारू बांटो-पैसा बांटो। बोकरा-भात पार्टी दो। पत्रकारों को पइसा दो। चुनाव खतम। पब्लिक इंटरटेनमेंट का कोई सोचता‘च’ नई।

माननीय मंत्रीजी से निवेदन है कि ‘हमारा कोई लेना-देना नहीं है’ कहकर पल्ला न झाड़ें। आपका अपने बेटे के गार्ड से कोई लेना-देना नहीं है तो अपन लोग से क्या होगा? अपन बोले तो पब्लिक। जनता। मतदाता।
अपने को आपका सुखपाल चाहिए।
कहां है भाजपा का सुशासन। कांग्रेस और जोगीवाली कांग्रेस का विरोध।
हमको सुखपाल लाकर क्यों नहीं देते। 
नाच का फोटू देखे हो.. .गोली का आवाज सुने  हो..
टिरेंड बदल रहा है नेता लोग..टिरेंड बदल रहा है..





Sunday, 9 October 2016

अगली रिपोर्ट के इंतजार में


मैंने दुर्ग भास्कर के श्रीशंकर शुक्ला की फेसबुक वाल पर यह खबर देखी। बच्चों को पर-भरोसे (भगवानभरोसे नहीं कहना चाहिए, बच्चे स्वयं भगवान होते हैं) छोडऩे के समाचार आम हो गए हैं। तरजीह नहीं मिलती।  ऐसी नोचती घटनाएं अब निशान नहीं छोड़तीं।
अहसास को बच्ची की तस्वीर ने भी छुआ। आह् .. इस फोटो ने मुझे खींच लिया। जकड़ लिया। मेरी आंखें भीगा दीं।
 रिपोर्ट में एक और बड़ी खास चीज है। इसके साइड में लगा ग्रे स्क्रीन बॉक्स। रिपोर्टर ने बर्थवाइज दुर्ग तक के सारे पैसेंजर्स की डिटेल दी है। बाक्स की हेडिंग में क्लीयर है, बर्थ के सारे पैसेंजर्स पुरुष ही थे। इस बॉक्स को पढक़र इन सीटों के यात्री कितने हतप्रभ होते! रेलवे का अनुमान है कि रायपुर से दुर्ग के बीच बच्ची को कोई छोड़ गया। लिखा है कि बच्ची सीट क्रमांक 24 के नीचे मिली। जरा गौर कीजिए। ट्रेन आकर दुर्ग में रुकती है। लास्ट स्टॉप। इसके तकरीबन 15 मिनट बाद कर्मचारी बोगी लॉक कर रहा होता है कि बच्ची के रोने की आवाज आती है। वो उसे उठाकर बाहर लाता है। स्टेशन अथॉरिटी को जानकारी देता है।
ऊपर लिखे वाक्यों को दोबारा पढि़ए। (क्या रह गया?)
मैं जो कहना चाहता हूं, समझ आ जाएगा।
रिपोर्टर ने रेलवे कर्मचारी की जुबानी जो लिखा है, वह पूरी खबर का मर्म एक बार में समझा देता है।
प्रार्थना है कि यदि इस बच्ची के मां-बाप मिल भी जाएं, तो चांद को उन अंधेरों के हाथ न सौंपा जाए।  अंधेरों को चांद मिला और उन्होंने जिंदगी की सबसे खूबसूरत रोशनी छोड़ दी।
चांद को एक दुनिया चाहिए, एक सूरज चाहिए। इसे उन्हें गोद  दो, जिनका कोई बच्चा नहीं है। रोशनी को कोख नहीं, बिखरने के लिए झरनों का पानी चाहिए। उसे वापस उन्हीं काले हाथों को सौंपकर ग्रहण न देना। रोशनी को जायज-नाजायज न ठहराना। बस, अब सफेद झील के किनारे बहने लगे हैं..नहीं लिख पाऊंगा..
श्रीशंकर की अगली रिपोर्ट के इंतजार में।



Saturday, 8 October 2016

करण जौहर मुझे तुम पर दया आती है.. .


मैं एक मीटिंग में था। प्रोजेक्टर पर स्क्रिप्ट डिजाइन के नए-नए तरीकों का प्रेजेंटेशन  चल रहा था। वहां मैं केवल एक श्रोता था। बोलने का अधिकार नहीं था मुझे। कॉफी ब्रेक हुआ और सामने करण जौहर की फिल्म ‘ऐ दिल है मुश्किल’ का ट्रेलर चलने लगा।

ये वही फिल्म है जिसे इस दीपावली में रीलीज होना है लेकिन राज ठाकरे की पार्टी की धमकी की वजह से मुंबई में संशय बना हुआ है। इसमें पाकिस्तानी अभिनेता फवाद खान अभिनय कर रहे हैं।

मैं स्वयं नाट्य संस्थाओं से जुड़ा रहा हूं।  कुछ नाटक  लिखे हैं। थिएटर में अभिनय के अलावा हर प्रकार का काम किया है। एक लेखक के  साथ-साथ  थोड़ा-बहुत कलाकार भी हूं। इस नाते मैं फवाद खान के भारत आकर अभिनय करने के खिलाफ नहीं हूं।

फवाद खान ने उड़ी हमले के लंबे समय बाद अपनी चुप्पी तोड़ी है। उन्होंने फेसबुक पर लिखा है कि वे अगस्त से लाहौर में हैं। इस दौरान उनके नाम पर जितने भी बयान आए हैं, उन पर ध्यान न दिया जाए।  उन्होंने उड़ी हमले को एक ‘सैड इंसीडेंस’ माना है।

फवाद खान पाकिस्तानी सीरियलों के स्टार हैं। उन्हें सोनम कपूर की 'खूबसूरत' से बॉलीवुड में मौका मिला, वे बहुत जल्द अपना लिए गए। माशाअल्लाह वे काफी खूबसूरत हैं। स्वाभाविक अभिनय करते हैं।

फेसबुक पर फवाद ने बहुत सफाई से अपनी बात रख दी। मैं फवाद खान की देशभक्ति को सलाम करता हूं। न केवल वे एक अच्छे कलाकार हूं बल्कि एक सच्चे पाकिस्तानी हैं। उनके लिए पहले अपना देश है। पाकिस्तान उड़ी हमले से पल्ला झाड़ रहा है। फवाद ने पाकिस्तान की पॉलिसी का साथ दिया है, यह जानते हुए भी कि गलती उनके देश से हुई है।

और हमारे यहां करण जौहर हैं। मैं उनको लेकर मुगालता पाल भी लूं तो क्या!  करण हमारे देश के शीर्ष निर्माताओं और निर्देशकों में शामिल हैं। मेरा एक और मुगालता है कि करण से फवाद जैसी देशभक्ति की उम्मीद बेमानी है। सलमान खान भी इसी श्रेणी के हैं। वे दुनिया से बेखबर रहनेवाले अल्पबुद्धि सा व्यवहार करते हैं। मीडिया के सवालों पर उनकी प्रतिक्रिया भी इसी प्रकार की होती है। रणबीर कपूर, अनुराग कश्यप और ओम पुरी वगैरह की कडिय़ां मिलकर इस चैन को पूरा करती हैं (इन सभी ने पाकिस्तानी कलाकारों का समर्थन किया है)।

करण, सलमान और पाकिस्तानी कलाकारों का समर्थन करनेवाले अन्य बॉलीवुड सेलिब्रिटीज के प्रशंसकों से निवेदन है कि वे कृपया फवाद खान के फेसबुक पेज पर जाकर उन्हें पढ़ें।
अब फवाद से अलग करण जौहर पर आएं। करण की कोई एक फिल्म बताएं जो इस काबिल हो कि आप उस पर एक बौद्धिक बहस कर सकें। करण जौहर की रातें फिल्म जगत की औरतों संग पार्टियों में बीतती हैं। इस पर भी वे कहते हैं कि अकेलापन मुझे डिप्रेस करता है।
बताओ भाई खुलकर तुम्हारे अकेलेपन का कारण क्या है?
लीक से हटकर बननेवाले रियलिटी सिनेमा पर उनका कहना है कि ऐसी फिल्मों के दृश्यों का साइलेंस समझ नहीं आता।

करण जौहर की सभ्यता से भी सभी का परिचय है। वे टीवी के रियलिटी शो में डबल मीनिंग  शब्दों का प्रयोग बेधडक़ करते हैं। अपने टॉक शो में कलाकारों से उनके सेक्स रिलेशनशिप पर सवाल करते हैं। एआईबी रोस्ट जैसे निहायत घटिया शोज में अपनी मां के सामने सेक्स पोजीशन की बात करते हैं।

इस आदमी की ‘ऐ दिल है मुश्किल’ से आप कितनी उम्मीद लगा सकते हैं? जिसको लंदन के फाइव स्टार होटलों में बैठकर स्टोरी सूझती है। जिसकी फिल्में विदेशों में ही (खासकर लंदन ही) शूट होती हैं। जिसके मन में भारतीयता के प्रति सम्मान ‘कभी खुशी कभी गम’ में काजोल के फूहड़ चरित्र से अधिक नहीं है। उससे आपको उम्मीद होगी तो आप उनकी पिछली सारी फिल्में दोबारा देखें।

ऐसा नहीं है कि मैं करण जौहर या ‘ऐ दिल है मुश्किल’ के खिलाफ हूं। मैं सोच रहा हूं कि पाकिस्तान को गर्व हो रहा होगा फवाद खान पर जिसने अपनी मंशा शब्दों की बारीकी से सही, व्यक्त कर दी। कितनी अजीब बात है कि पाकिस्तानी कलाकारों में फवाद खान ही बॉलीवुड के मोस्ट फेवरेट हैं।

मैंने कभी खुशी कभी गम के बाद करण जौहर की एक फिल्म ‘माय नेम इज खान’ देखने की भूल की थी। माय नेम इज खान का एक सीन है- शाहरूख खान अचानक काजोल से कहते हैं कि उन्हें सेक्स करना है। शाहरूख के चेहरे में इसका भाव नहीं दिखता। शाहरूख एकदम से बेमौके-गैररूमानी लहजे से अपनी अदम्य ईच्छा जाहिर करते हैं। काजोल चौंकने का सहज अभिनय करती हैं और शाहरूख के साथ कमरे में चली जाती हैं। दृश्य यूं बन पड़ा है मानों यह उन दोनों के लिए यह एक रुटीन वर्क है। सेक्स विदाऊट फीलिंग टाइप।

करण जौहर बताना चाहते हैं कि सेक्स की कोई टाइमिंग नहीं होती। फिल्म का हीरो (शाहरूख) भावना से भरा हुआ अर्धविकसित बुद्धि का इंसान है। पूरी फिल्म धार्मिक भेदभाव को मिटाने की भावनात्मक  पृष्ठभूमि पर खड़ी है। लेकिन जिस दृश्य में भावना का सबसे अच्छा इस्तेमाल किया जा सकता था, वहां करण चूक गए। फिल्म भी अत्यधिक नाटकीय बन पड़ी। अभिनय में इमोशन को आंखों से दिखाया जाता है। करण जौहर को साइलेंस की जुबान समझ  नहीं आती। बेसिकली करण इस सीन में कहना चाहते हैं कि फिल्म का शाहरूख   भोला और साफ दिमाग का है। वो जैसा सोचता है, बिना दुर्भावना के उसकी मांग रखता है।

करण जौहर ने अगर रियालिटी सिनेमा का साइलेंस समझा होता तो माय नेम इज खान का यह दृश्य बहुत ही प्रभावी बनता। यह भौंडा नहीं लगता। वे ऑफबीट सिनेमा नहीं देखते होंगे लेकिन स्क्रीनप्ले तो जरूर परखते होंगे।  करण स्क्रीनप्ले पर अपनी सेक्सुअल सोच को दरकिनार कर काम करते तो यह सीन क्लासिक बनता। उनकी सोच की वजह से शाहरूख एक मासूम अधेड़ के रोल में सेक्स की अपील करते हुए बहुत ज्यादा असामान्य लगते हैं। सीन ऐसा है मानो शाहरूख का किरदार अपनी ही पत्नी से दुष्कर्म का मन बनाकर आया है। ठीक है कि शाहरूख एक अधिकार के तहत यह कहते हैं क्योंकि फिल्म में काजोल उनकी पत्नी हैं। उनकी डिमांड पर काजोल शानदार प्रतिक्रिया देती  हैं। मगर क्या यह सीन हल्का नहीं बन पड़ा। क्या होता यदि इसके स्क्रीनप्ले में संवाद ही नहीं होते!  इशारों में शाहरूख अपनी आकांक्षा प्रदर्शित करते। आंखों से अभिनय करते। चेहरे को हल्का उठाकर आंखों में गहराई लाते हुए प्यार दिखाते।

इरफान खान की लंच बॉक्स फिल्म देखिएगा। नवाजुद्दीन सिद्दीकी के एक सवाल के जवाब में इरफान खान तकरीबन 30 सेकंड तक चुप रहते हैं। उनकी आंखें जवाब ढूंढ़ती लगती हैं। दर्शक बंधा रहता है।

करण को सेक्स और प्यार में अंतर नजर नहीं आता। मैंने स्टूडेंट ऑफ द ईयर के बारे में यही सब सुना था। सौभाग्य  से फिल्म नहीं देखी।

करण जौहर की सो कॉल्ड सुपर हाई क्लास सोच उन्हें सीमाओं से बाहर ले जाती है। उनकी सोच में उदारता का अर्थ खुला सेक्स है। एआईबी रोस्ट को होस्ट करने के पीछे यही कारण रहा होगा।


करण जौहर से निवेदन है कि एक बार सही, फवाद खान को फोन कर बोलें कि वे अपने फेसबुक पेज पर कुछ ऐसा लिखें जिससे  हमारे दिल को तसल्ली मिले। लगे कि हमने पाकिस्तान के एक टीवी कलाकार को भारत की सिल्वर स्क्रीन पर पसंद कर, गलत नहीं किया।
निवेदन राज ठाकरे और उनके गुंडों से भी है कि ऐ दिल है मुश्किल को रीलीज होने दें।

 करण जौहर को उनकी सोच और फिल्मों के साथ जीनें दें। हम भारतीय फिल्मी हैं। ऐ दिल है मुश्किल से पहले देश में चाहे कितनी भी मुश्किलें हों, चाहे  वो मुश्किलें बार्डर पर पाकिस्तान से भेजी जाती हैं, हमें मंजूर हैं। हम करण जौहर की इस फिल्म को देखकर सब भूल जाएंगे। उड़ी हमले का हमारा दर्द जाता रहेगा।

करण की फिल्मों में मिडिल क्लॉस का मजाक बनाया जाता है। हमें यह भी स्वीकार है। हम अपनी मीडिल ‘क्लासियत’ के साथ ऐ दिल है मुश्किल देखेंगे। आखिर करण कामुकता के मसीहा जो ठहरे, हमारी सेक्स की भावनाओं को आराम देनेवाले।
 हमारा पाखंड फिल्में ढंक देती हैं।
अंत में करण जौहर ने फवाद खान के मुंबई में विरोध पर जो कहा था उसका एक अंश ‘पाकिस्तानी कलाकारों को वापस भेजने से आतंकवाद रुक जाएगा क्या? ’
तुम्हारी देशभक्ति से मैं प्रभावित हूं फवाद,
और मुझे तुम पर दया आती है करण

Friday, 7 October 2016

मगर ...

इस चित्र को देख कैसा महसूस होता है सोचिए, इसने मुझे रोक लिया ऐसे ही, मानो ये कविता इसके लिए ही बनी हो।

मगर ...

बहुत दर्द दिया उन बातों ने
मगर
तूने रोने कहां दिया,

हम जानते थे उनका मतलब
मगर
तूने बताने कहां दिया,

हालात बेकाबू नहीं थे उतने
मगर
तूने संभलने कहां दिया

आखिरी अंजाम हमें था मंजूर
मगर
तूने भुगतने कहां दिया,

सिलसिले प्यार के रहे थे उफन 
मगर
तूने मिलने कहां दिया,

हमारी रात बाकी थी उतनी ही
मगर
कमबख्त, तूने सोने कहां दिया,

जिंदगी सब पर उधार थी मेरी
मगर
तूने  मरने कहां दिया,


लाश बन  गया था मैं उसी दिन
मगर
तूने जलने कहां दिया !



पेटभर हंस लेने के बाद अपनी जीभ निकालकर शर्माते हुए कहें ‘माफ करना’


राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप का खेल कैसे चलता है? और कैसे मुख्य मुद्दा घुमा दिया जाता है? देश में इस समय चल रही बयानबाजी से समझा जा सकता है।

राहुल गांधी ने कल कहा ‘शहीदों के खून की दलाली कर रहे हैं मोदी। ’ आज दोपहर अमित शाह ने जवाब दिया ‘यह आर्मी का अपमान है, देश की सवा अरब जनता का अपमान है।’ शाम को अमित शाह को कपिल सिब्बल ने उत्तर दिया ‘आतंकी मसूद अजहर को बीजेपी ने रिहा किया।’  मायावती का बयान है ‘ सेना की जय हो, नेताओं की नहीं।’ लालू प्रसाद यादव ने भी ऐसा ही कुछ कहा।

मुद्दा कल कुछ और था। आज कुछ और हो गया है।

 राहुल गांधी के भाषण  में कहीं सेना के खिलाफ बात नहीं है। उनका कहना था ‘ हमारे जवानों ने जम्मू और कश्मीर में अपना खून दिया है। उनके खून के पीछे मोदी छिपे हैं। मोदी उनके खून की दलाली कर रहे हैं।’
उनके भाषण का एक महत्वपूर्ण वाक्य सामने ही नहीं आ पाया, जो था ‘सेना ने अपना काम किया, आप अपना करो। ’

इस पर अमित शाह ने राहुल गांधी को चारों खाने चित्त करने का मन बनाया और वो कहा जिसका राहुल के बयान से लेना-देना नहीं है। शाह का पलटवार राहुल के आरोप का उत्तर नहीं है। उनका कहना है ‘दलाली शब्द सेना का मनोबल तोडऩेवाला है। ’
जहां तक मेरे और आपके जैसे आम लोगों की समझ है, राहुल के कहने का मतलब है कि मोदी सेना की सर्जिकल स्ट्राइक का ज्याती फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।

यह तो मोदी का अपमान है। सेना या देश का कहां?
अमित शाह ने राहुल के बयान का बिल्कुल मायने ही बदल दिया।

अमित शाह की प्रेसवार्ता के बाद कपिल सिब्बल आए। उन्होंने पब्लिक का जनरल नॉलेज बढ़ाना शुरू कर दिया। वे बताने लगे कि ‘ भाजपानीत सरकार  ने मसूद अजहर को रिहा किया था।’ वह यह नहीं बताते कि यह विमान में सवार यात्रियों की सलामती के लिए किया गया था। उनके कहने से लग रहा है, भाजपा के नेता जेल के अंदर गए और मसूद अजहर की हथकड़ियां खोलकर बोले ' जा दढ़ियल ' ।

 हमारे नेताओं का स्तर क्या है? वे बाल की खाल निकालकर उस पर बाल लगाने की कोशिश करते हैं। राहुल ने उत्तरप्रदेश में किसान रैली के समापन पर (जहां सर्जिकल स्ट्राइक पर बोलने की जरूरत नहीं थी) सेना और मोदी की बात कही। अमित शाह ने राहुल की बात को तोड़-मरोड़ दिया। अंत में कपिल सिब्बल मामले को दिल्ली से कंधार ले गए।

इधर सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगकर फंसे अरविंद केजरीवाल ने इस बार खुद का वीडियो बनाने के बजाय एएनआई (न्यूज एजेंसी) को बुलाया और कहा ‘ राहुल ने गलत शब्दों का उपयोग किया। ’
बताओ भाषा की मर्यादा कौन बता रहा है।


असल में सभी पार्टियों के नेताओं की नजर उत्तरप्रदेश के चुनाव पर है। वे सर्जिकल स्ट्राइक की घटना को सियासी फायदे-नुकसान के रूप में देख रहे हैं। तय है कि भाजपा इसका फायदा उठाने में पीछे नहीं रहेगी। भाजपा के विरोधी सारे दलों की यही चिंता है। इसलिए वे भी सेना की तारीफ करते हुए मोदी को निशाना बना रहे हैं।

लगता है राहुल को यकीन हो गया है कि सर्जिकल स्ट्राइक से भाजपा को फायदा मिलनेवाला है। हो सकता है उन्होंने भाजपा के वो पोस्टर देखे हों, जिनमें प्रभु राम की तस्वीर में मोदी का चेहरा लगा है। सामने रावण के रूप में नवाज शरीफ हैं।

और उन्होंने चिढक़र दलालीवाला बयान दे दिया। वे अंग्रेजीदां हैं। मेरे लिखे को अभी अंडरलाइन कर लीजिए, उन्हें मालूम ही नहीं होगा कि दलाली शब्द का वास्तविक अर्थ क्या होता है? अमित शाह को इसी शब्द पर अधिक आपत्ति थी। आरोप लगाते हुए उन्होंने भी यही कहा ' बोफोर्स दलाली, कोयला दलाली, टूजी दलाली किसने की?'

हमारे प्रतिनिधि नेताओं को देश, सेना और जनता से पहले पॉलिटिकल एज की चिंता है। इसलिए अगर अगली बार आप सेना की सर्जिकल स्ट्राइक पर राजनीतिक बयान सुनें, तो अनसुना कर दें। इससे सिर्फ दिमाग ही खराब होगा। नेताओं पर सर्जिकल स्ट्राइक करने का मन बन जाएगा।

इसलिए प्लीज.. .प्लीज .. .प्लीज .. . सर्जिकल स्ट्राइक पर बोलता कोई नेता सामने पड़ जाए तो उसे देखकर हंसने लग जाइए। धीरे-धीरे मुसकाते हुए, एकदम से ठहाका मारने लगिए।
पेटभर हंस  लेने के बाद अपनी जीभ निकालकर शर्माते हुए कहें ‘माफ करना’।
इससे बढिय़ा सर्जिकल स्ट्राइक नहीं हो सकती।

Thursday, 6 October 2016

एक नेता शांत है, अपने अंदाज में चुप है...



भारत की सर्जिकल स्ट्राइक पर आज शरद पवार बोले हैं। उन्होंने कहा ‘मेरे रक्षामंत्री होते हुए भी चार बार सर्जिकल स्ट्राइक की गई, हमने प्रचार नहीं किया। ’

आजकल भारत-पाकिस्तान मुद्दा नहीं हैं। हम सर्जिकल स्ट्राइक के होने, न होने पर भिड़े हुए हैं। बार्डर पार की नीति भी देशी राजनीति में फंस गई है। भाजपा के नेताओं और ‘लोकल नेताओं’ को इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि अब कुछ ज्यादा ही हो रहा है।
देश की भावना का सरकार ने सम्मान किया। बहुत ही अच्छा किया। अब भावना से खिलवाड़ न हो।

इस मसले का मैं और आप व्यापक विश्लेषण करें। सब समझ आ जाएगा। भारत और पाकिस्तान दोनों कहते हैं, हम युद्ध नहीं चाहते। दूसरी तरफ दोनों देश के हुक्मरान अपनी जनता को बता रहे हैं कि हम तैयार हैं। हम डरनेवाले नहीं हैं। हम करारा जवाब दे रहे हैं।
मीडिया आग में घी डालने का काम कर रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इतने रिपोर्टर लगा रखे हैं कि लगता है युद्ध कवरेज चल रहा है ।
इससे फायदा दोनों देशों की सरकारों को हुआ है। उन्हें अब केवल आक्रामकता दिखानी है। देश में चल रही परेशानियों का जवाब नहीं देना।
दोनों राष्ट्रों की गरीबी-बेरोजगारी खत्म हो गई है। भारत और पाकिस्तान की सारी अंदरुनी समस्याएं जड़समेत उखड़ गई हैं। भारत-पाकिस्तान का हर चैनल खुश है। न्यूज एंकर मुंह से रॉकेट लांचर दाग रहे हैं।
विश्लेषकों की फौज चैनलों के आफिसों में डटी हुई है। 


पाकिस्तान के नेता एक से एक हैं, हमारे भी कम नहीं हैं। अरविंद केजरीवाल को ही लीजिए। बंदा दिल्ली का मुख्यमंत्री है। अपने राज्य में डेंगू-मलेरिया उनसे संभल नहीं रहा। वे भारत-पाकिस्तान पर वीडियो जारी कर "अपारंपरिक"  राजनीति का प्रदर्शन कर रहे हैं। केंद्र सरकार उन्हें उपराज्यपाल नजीब जंग की एलओसी तक ही सीमित रखती है इस पर अरविंद केजरीवाल का कान्फिडेंस देखो। आम आदमी पार्टी के विधायकों के वीडियो पूरे देश में सनी लियोन से ज्यादा हिट हैं। उस पर भी बंदा दिल्ली में बैठ कर। मुख्यमंत्री के कामकाज का सारा झंझट मनीष सिसोदिया को सौंप कर। उस सरकार को सबूत पेश करने की सलाह दे रहा है जो उसकी बैंड बजाती रहती है।
पाकिस्तानी मीडिया ने केजरीवाल का वीडियो देखा और भारत के इस आम आदमी को पाकिस्तान में हीरो बना दिया। आगबबूला रविशंकर प्रसाद ने केजरीवाल को प्रसाद खिलाया। उधर राजनाथ ने लेह से शब्दबाण चलाए। रवि (रविशंकर प्रसाद)  और राजू (राजनाथ सिंह) को केजरीवाल की सलाह पर प्रतिक्रिया नहीं देनी थी। उनको कहना था " हमने केजरीवाल का वीडियो नहीं देखा। हम गंदे वीडियो नहीं देखते। पिछली बार उसके एक मंत्री का वीडियो देख लिया था। प्रायश्चित करने के लिए उपवास करना पड़ा।"
फिर क्या? केजरीवाल हड़बड़ा जाते। शंका में अपना ही वीडियो जांचने लगते। कहीं इधर-उधर का कुछ जुड़ तो नहीं गया।
थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, आपके मंत्री के वीडियो डर लगता है। केजरीवाल को एक आम सलाह "ओ भाई..तुम बोलते ही क्यों हो? तुम्हारी खांसी ठीक हो गई है, बधाई। लेकिन डॉक्टर ने यह तो नहीं होगा कि जहां फंदा देखो वहां गर्दन दे देना। "
केजरीवाल से आगे निकलर शिवसेना से कांग्रेस में आए संजय निरूपम ने सीधे-सीधे सर्जिकल स्ट्राइक को फर्जी कहा। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला फटाक से सफाई देने आए "कांग्रेस का संजय निरूपम के बयान से कोई लेना-देना नहीं है। "
अब हम क्या समझें, सर्जिकल स्ट्राइक को फर्जी कहनेवाले निरूपम स्वयं फर्जी हैं।

निरूपम  केंद्रीय स्तर के नेता नहीं हैं। उनका फेसियल एक्सप्रेशन देखिएगा, ध्यान से। बेचारे कब्ज से परेशान दिखते हैं। टॉयलेट में पूरा घंटा बितानेवालों का प्रतिनिधित्व संजय निरूपम की भाव-भंगिमाओं में नजर आता है। निरूपम को मोदी के स्वच्छता अभियान से चिढ़ है! पटरीपार कहीं बैठे होंगे। निवृत्त होने के बाद उन्हें कहीं राकेट-मिसाइल नहीं दिखे होंगे। भोले-भाले निरूपम ने कह दिया " सर्जिकल स्ट्राइक फेक लगती है। "

केजरीवाल और निरूपम से कहीं बड़े नेता सीताराम येचुरी ने इन दोनों से पहले शक जाहिर किया था। उन्हें ट्विटर, फेसबुक में इतने कमेंट मिले कि अब उन्हें सपने में अपने पर सर्जिकल स्ट्राइक होती दिखती है
अब सीताराम येचुरी से भी बड़े नेता शरद पवार के बोल फूटे हैं। वे ज्यादा संभलकर बोले। बीसीसीआई से धकियाए जाने के बाद उन्हें सुर्खियों में बने रहने की आवश्यकता है। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद इस देशकाल-परिस्थिति में हर नेता बोल रहा है।
एक नेता शांत है। अपने चिरपरिचित अंदाज में चुप है, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह।
पक्ष-विपक्ष के बयानों को सुनकर वे मुस्कुराते होंगे। मन ही मन कहते होंगे-
"बेटा हमको सब पता है। दस साल चलाया है देश।"


मिले कि वे इंटरनेट का नाम सुनकर स्वयं पर सर्जिकल स्ट्राइक हो रही है, सोचने लगते हैं। डर जाते हैं।