शुरुआत अपनी परेशानी के साथ; रमन सिंह को मैं कैसे जान सकता हूँ? वो मोदी जैसे होते तो जान जाता।मोदी को तब भी पूरा देश जानता था जब वे केवल गुजरात के मुख्यमंत्री थे। दिक्कत यह भी है कि रमन सिंह भाजपा के अन्य नेताओं की तुलना में खुले हुए नहीं हैं। होंगे , लेकिन राष्ट्रीय परिदृश्य में ऐसे लगते हैं। मैंने कुछ विधायकों से सुना था कि 'डॉक्टर' को अधिक दवाएं पसंद नहीं। दुआओं पर भरोसा है। ये मैं उनके प्रोफ़ेशन के बारे में ही कह रहा हूँ। राजनीति के प्रोफेशन के बारे में। बाकी इलाज़ पानी के बारे में उनका परफॉर्मेन्स पता नहीं। अब रमन सिंह ने मोदी का मुख्यमंत्रीवाला रिकॉर्ड तोड़ दिया है। क्योंकि मोदी प्रमोशन पाकर प्रधानमंत्री हैं और यही उनकी मूल पहचान रहेगी। मैं सोचता हूँ रमन सिंह कैसे याद किये जाएंगे! किस्मतवाला मुख्यमंत्री? या करिश्माई? या ओके टाइप। (ओके टाइप - जब कोई दूसरा ऑप्शन न हो।)
सवाल है कि रमन सिंह इतनी बड़ी पारी के बाद भी मोदी या नीतीश सरीखे राष्ट्रीय क्यों नहीं हो पाए? क्योंकि उन्हें उनके ' मैं यहीं ठीक हूं ' वाले हुनर के कारण मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली थी। और उन्होंने इसे अपने सफलता सूत्र के रूप में अपना लिया। वे मुद्दों को अपने झोले तक रखते हैं। लंबे समय से संसद में बड़े नेताओं को चेहरा दिखा रहे रमेश बैस इस राज को जानते हैं। क्या अपने में विनम्र बने रहना ही रमन सिंह को इतनी दूर तक ले आया? क्या बैस और अग्रवाल जानते थे कि रमन लंबे चलेंगे? शायद डॉक्टर रमन भी यह नहीं जानते थे। उन्हें यह भी पूछा जाना चाहिए कि अब आप आगे की क्या सोच रहे हैं? वे कहेंगे जनता की सेवा करनी है। वे अपने संबोधनों में अक्सर 'मैं डॉक्टर रमन' कहते हैं।
वैसे नैतिक धरातल पर जोगी को छोड़कर छत्तीसगढ़ का कोई बड़ा नेता मीडिया ट्रायल से नहीं गुज़रा। जोगी का फाइनल रिजल्ट आज तक नहीं आया। जिन समूहों ने यह किया उन्हें कथित तौर पर उपेक्षित किया गया, वो सरेंडर हो गए। पब्लिक बोर हो गई। हम 16 साल में एक नेता नहीं खड़ा कर पाए!
हमको 16 साल में दो ही मुख्यमंत्री नसीब हुए। अधिक विकल्प नहीं मिले। कह सकते हैं कि बतौर मतदाता हमारी ईच्छाशक्ति सीमित रही। माना जाता है कि किसी एक का लंबा शासनकाल भ्रष्टाचार को पनपने का मौका देता है। रमन सिंह का सीमा में बने रहना उनके शासनकाल की कमजोरियों पर भारी पड़ता है। केंद्रीय नेतृत्व के सामने अधिक सौम्यता उन्हें कामचलाऊ की श्रेणी से ऊपर रखती है, उनका यही प्लस ऊपर जाकर माइनस हो जाता है। वे राष्ट्रीय नहीं हो पाए। शायद वे मुख्यमंत्री से अधिक की सोचते नहीं होंगे। वे छ्त्तीसगढ़ को कहाँ ले गए इस पर रिसर्च होगी तो नंबर उनको फर्स्ट डिवीज़न के मिलेंगे। वे कहाँ चूक गए यह पब्लिक बता देगी। छत्तीसगढ़ के शहरों में छत्तीसगढ़ियापन नदारद है। शायद इसलिये उन्होंने अपने चेहरे को आगे रखने के लिए गांवों को चुना। वो शराब को बहने से नहीं रोक पाए हैं। प्रशासन को जिम्मेदार नहीं बना पाए हैं। ईमानदार होने का कोई सबूत पेश नहीं कर पाए हैं। उन्हें ललकारने को खड़ा कोई नैतिक व्यक्ति भी नहीं है जो अपने को साबित कर पाए। मीडिया राजनीतिक हास को लेकर अधिक संवेदनशील नहीं है। उसके पास अधिकार नहीं है। कांग्रेस फुसफुसाकर कहती है कि रमन सिंह ने समाचार चयन और प्रकाशन की जिम्मेदारी भी ले रखी है। परन्तु मीडिया देश में कहाँ स्वतंत्र है? हमारी केंद्र और राज्य सरकारें इस मामले में चीन की मीडिया पॉलिसी को फॉलो करती हैं। हम जो चाहेंगे वो छपेगा नहीं तो तुम्हारी रोजगारी गई। रमन ने 'मोदी मुख्यमंत्री सीमा' लांघने के बाद कोई भव्य आयोजन नहीं किया।
- नमस्कार
उन्हें किससे डर लगता है? क्या वे अपने इस दौर को अपना चरम मान चुके हैं। वे अपनी विरासत के रूप में क्या छोड़ कर जाएंगे? अभिषेक सिंह अथवा राजेश मूणत!
सवाल है कि रमन सिंह इतनी बड़ी पारी के बाद भी मोदी या नीतीश सरीखे राष्ट्रीय क्यों नहीं हो पाए? क्योंकि उन्हें उनके ' मैं यहीं ठीक हूं ' वाले हुनर के कारण मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली थी। और उन्होंने इसे अपने सफलता सूत्र के रूप में अपना लिया। वे मुद्दों को अपने झोले तक रखते हैं। लंबे समय से संसद में बड़े नेताओं को चेहरा दिखा रहे रमेश बैस इस राज को जानते हैं। क्या अपने में विनम्र बने रहना ही रमन सिंह को इतनी दूर तक ले आया? क्या बैस और अग्रवाल जानते थे कि रमन लंबे चलेंगे? शायद डॉक्टर रमन भी यह नहीं जानते थे। उन्हें यह भी पूछा जाना चाहिए कि अब आप आगे की क्या सोच रहे हैं? वे कहेंगे जनता की सेवा करनी है। वे अपने संबोधनों में अक्सर 'मैं डॉक्टर रमन' कहते हैं।
वैसे नैतिक धरातल पर जोगी को छोड़कर छत्तीसगढ़ का कोई बड़ा नेता मीडिया ट्रायल से नहीं गुज़रा। जोगी का फाइनल रिजल्ट आज तक नहीं आया। जिन समूहों ने यह किया उन्हें कथित तौर पर उपेक्षित किया गया, वो सरेंडर हो गए। पब्लिक बोर हो गई। हम 16 साल में एक नेता नहीं खड़ा कर पाए!
हमको 16 साल में दो ही मुख्यमंत्री नसीब हुए। अधिक विकल्प नहीं मिले। कह सकते हैं कि बतौर मतदाता हमारी ईच्छाशक्ति सीमित रही। माना जाता है कि किसी एक का लंबा शासनकाल भ्रष्टाचार को पनपने का मौका देता है। रमन सिंह का सीमा में बने रहना उनके शासनकाल की कमजोरियों पर भारी पड़ता है। केंद्रीय नेतृत्व के सामने अधिक सौम्यता उन्हें कामचलाऊ की श्रेणी से ऊपर रखती है, उनका यही प्लस ऊपर जाकर माइनस हो जाता है। वे राष्ट्रीय नहीं हो पाए। शायद वे मुख्यमंत्री से अधिक की सोचते नहीं होंगे। वे छ्त्तीसगढ़ को कहाँ ले गए इस पर रिसर्च होगी तो नंबर उनको फर्स्ट डिवीज़न के मिलेंगे। वे कहाँ चूक गए यह पब्लिक बता देगी। छत्तीसगढ़ के शहरों में छत्तीसगढ़ियापन नदारद है। शायद इसलिये उन्होंने अपने चेहरे को आगे रखने के लिए गांवों को चुना। वो शराब को बहने से नहीं रोक पाए हैं। प्रशासन को जिम्मेदार नहीं बना पाए हैं। ईमानदार होने का कोई सबूत पेश नहीं कर पाए हैं। उन्हें ललकारने को खड़ा कोई नैतिक व्यक्ति भी नहीं है जो अपने को साबित कर पाए। मीडिया राजनीतिक हास को लेकर अधिक संवेदनशील नहीं है। उसके पास अधिकार नहीं है। कांग्रेस फुसफुसाकर कहती है कि रमन सिंह ने समाचार चयन और प्रकाशन की जिम्मेदारी भी ले रखी है। परन्तु मीडिया देश में कहाँ स्वतंत्र है? हमारी केंद्र और राज्य सरकारें इस मामले में चीन की मीडिया पॉलिसी को फॉलो करती हैं। हम जो चाहेंगे वो छपेगा नहीं तो तुम्हारी रोजगारी गई। रमन ने 'मोदी मुख्यमंत्री सीमा' लांघने के बाद कोई भव्य आयोजन नहीं किया।
- नमस्कार
उन्हें किससे डर लगता है? क्या वे अपने इस दौर को अपना चरम मान चुके हैं। वे अपनी विरासत के रूप में क्या छोड़ कर जाएंगे? अभिषेक सिंह अथवा राजेश मूणत!