Tuesday 2 August 2016

कश्मीर पर उन्माद बनाम देशप्रेम


कश्मीर मुद्दा कैसे हल किया जा सकता है?
बहसों और बल प्रयोग के विकल्प नाकाम दिख रहे हैं। मानवता और देशप्रेम की परिभाषाएं टकराने लगी हैं। भविष्य का आकलन नहीं किया जा रहा। उन्माद हावी है। हम भावनाओं में आकर अत्यधिक उन्मादी हो चले हैं। अधिक लोगों की भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं को एक ही तरीके से पूरा नहीं किया जा सकता। कश्मीर मुद्दे पर यह नियम अनिवार्य रूप से लागू होता है। अपेक्षाएं आलोचना को जन्म देती हैं। अटलबिहारी बाजपेयी के बाद हमने हमारी राजनीति में अपेक्षा को  साधने और आलोचना को सहजता से स्वीकारनेवाला नायक नहीं देखा। वे दो पक्ष नहीं चाहते थे। आज कश्मीर के अंदर और बाहर क्रांति का माहौल तैयार है। विश्व को भारत से जो सन्देश नहीं जाना चाहिए ,वही सोशल मीडिया के माध्यम से फैल रहा है। उम्मीद कायम है  पर हम अंधी और अतिआक्रामक क्रांति के लिए तैयार हैं। न जाने कैसे शांति के इस देश में यह भ्रम पसर गया कि क्रांति को कठोरता से ही लाया जा सकता है। आज़ादी के बाद से देश के पास दो स्थाई और वास्तविक मुद्दे हैं। महंगाई और कश्मीर। हमारे नायक इन मुद्दों को वक़्ती तौर पर सुलझा लेते हैं किन्तु आगे हल ही दिक्कत बन जाता है। कश्मीर के लिए जवाहर लाल नेहरू ने जो हल निकाला वो उस समय के वातावरण में सही था। हम एक पूर्ण और परिपक्व राष्ट्र की छवि बनाना चाह रहे थे। नेहरू ने भारत को जिस तरह दुनिया के सामने उस दौर में प्रस्तुत किया वही पहचान इस दौर तक कायम है। नरेन्द्र मोदी को भी प्रधानमंत्री बनते ही नेहरू की नीति समझ आ गई होगी। वे नेहरू की तरह ही वैश्विक बनने की कोशिश में हैं। उनकी विदेश यात्राएं केवल मेक इन इंडिया के लिए नहीं हैं।  ख़ैर, कश्मीर के भारत में शामिल होने के कुछ अर्से बाद से ही वो नेहरू नीति काम नहीं कर रही, जो परिस्थितिजन्य नैतिकता पर आधारित थी। देश में रहकर कश्मीर को कश्मीर ही रहने दिया गया। भारत का कश्मीर हो गया। कश्मीर भारत का न हो पाया। कश्मीर की अपेक्षा पूरा करने के लिए बनाई गई धारा 370 को  लक्ष्मण रेखा बना दिया गया। जब नीति आलोचना स्वीकार न करे, उम्मीद न बंधाए, वो बदलने की स्थिति में आ जाती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि धारा 370 बदल दी जाए। हमें इस निजात से खड़ी हुई परेशानी का कोई नया हल खोजना होगा। इस दौर में हमारे सामने तीन नेता हैं जिनसे नायक होने की अपेक्षा की जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। क्या इनके पास कश्मीर समस्या का कोई समाधान है?  यह एकदम से हवा में उछाला गया सवाल नहीं है!  हमारे प्रतिनिधि ही कश्मीर को धारा 370 के दायरे से देखते हैं। हम भी वही चश्मा लगाते हैं।
 "कश्मीर का झंडा अलग है। वहां तिरंगा नहीं फहरता। वहां हमारा राष्ट्रगान नहीं गाया जा सकता। " कश्मीर के बारे में हम इस तरह का सतही ज्ञान रखते हैं और दूसरों को इसे बांटते हैं। मानों अभी कश्मीर के लिए एक जंग लड़नी बाकी है। कश्मीर को टालते रहने की वजह से शक्तिशाली मीडिया भी दो भागों में बंटा नज़र आता है। मोदी अपनी दीपावली  श्रीनगर में मनाते हैं। यह प्रतीकात्मक अधिक लगता है। ज्यादा कड़े शब्दों में दिखावा कह सकते हैं। उदारवादी छवि बनाने की कोशिश का एक हिस्सा मात्र। राहुल गाँधी पाकिस्तान बॉर्डर के समीप जाकर भाईचारा लाना चाहते हैं। वे बहुत अधिक प्रबन्धन कौशल के मुरीद हैं। उन्हें ज़मीन या कहें हक़ीक़त से दूर करने के लिए यह काफी है। अंततः केजरीवाल हैं। व्यवस्था का उनसा आलोचक नेता अभी की राजनीति  में नहीं है। संभावनाएं जगाकर वे भटक गए हैं। इसलिए ही अन्ना हजारे उनसे नाराज़ हुए रहे होंगे। क्या पता केजरीवाल ने राजनीति में उतरकर खुद को सीमित नहीं किया होता तो अन्ना के साथ उनकी जोड़ी कश्मीर में अमन के लिए अनशन कर रही होती! फिलहाल कश्मीर राहुल और केजरीवाल के एजेंडे में नहीं होंगे। उन्होंने मोदी के लिए यह मुद्दा छोड़ दिया है। काश वे राजनीतिक लाभ से अधिक की सोच रखते हुए कश्मीर नीति पर खुलकर आगे बढ़ते। उनका एजेंडा 'पहले कश्मीर बाकी सब बाद में' होता। उनके मुख से अभी यूपी और पंजाब चुनाव की ही बात हो रही है। केजरीवाल को कश्मीर में आम आदमी पार्टी का एक कैंपेन शुरू करने में कैसी झिझक है? राहुल को वहां के आक्रोशित युवाओं से संवाद करने के लिए 'रैंप' नहीं मिल रहा क्या?  मोदी को इस 15 अगस्त में कश्मीर में सद्भावना को लेकर भाषण बोलने में संकीर्णता नहीं दिखानी चाहिए। वे कश्मीरी जो किन्ही कारणों से नाराज हैं ,उनसे हमारे ये तीन नेता संपर्क करने की कोशिश करें। जब उनसे पाकिस्तान संपर्क कर सकता है। हाफिज सईद बात कर सकता है। तो ये तीनों क्यों नहीं!  मसला अलगाववादियों अथवा भटके युवाओं के बीच जाने का नहीं , उनसे लगातार बात करने का है। सरकार इस पर सर्वदलीय बैठक बुला सकती है। देशहित की खातिर कश्मीरी नेताओं को इसमें सीधे शामिल किया जा सकता है। मीडिया अधिक सकारात्मक हो सकता है। अभी हम कश्मीर मुद्दे पर संभवतः पहली बार असहिष्णु  दिख रहे हैं। गांधीवाद का संचार कश्मीर में करने पर जोर देने कोई नेता पहल करता है तो उसकी सुनी जानी चाहिए। कश्मीर में  सुलगती-जलती आग को उन्माद जगाकर नहीं रोका जा सकता। राजनाथ सिंह को संसद में घिसी- पिटी शब्दावली का इस्तेमाल करता देख उम्मीद नहीं जागती। हम नरम पड़ रहे हैं ,यह पूर्वाग्रह मिटाकर नेताओं को पहल करनी होगी। कश्मीर मुद्दे से दूर रहने से समस्या देश की अखंडता खतरे में आ सकती है। वो काल न आए, इसके लिए अभी देशभक्ति दिखाने की जरूरत है जिसमें नरमाई हो ,अंधी-बहरी कड़ाई नहीं।

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