Tuesday 4 October 2016

बिहार का कानून, हम और गांधीजी


दुनिया जानती है शराब के  राजस्व से सरकारी खजाना जितना भरता है, उससे तीन गुना ज्यादा पैसा कमीशन के कोटे में आता है। इसको ऐसे समझें कि यदि बोतल पैमाना है , तो उसमें भरी शराब के चौथाई हिस्से का रेवेन्यू ही रिकार्ड में लिखा जाता है, बाकी का हिस्सा व्यवस्था को सुचारू रखनेवाले रख लेते हैं। सर्वाधिक काला धन शराब के धंधे में है। इस समंदर की सबसे छोटी मछली ठेकेदार है और सबसे बड़ी सरकार।
पैसे और शराब से किसको नहीं खरीदा जा सकता?

सोशल मीडिया में बहस छेडऩेवाले हमारे प्रबुद्धजनों के पास नक्सलवाद से लेकर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद तक, सारे मुद्दों पर विचार हैं। पर क्या ये प्रबुद्धजन शराबी हैं? क्योंकि वे शराबबंदी पर अधिक नहीं बोलते। प्रबुद्ध बुरा न मानें। मैं सभी को शराबी नहीं कह रहा हूं। लेकिन 10 में सात शराबी हों तो बाकी के तीन महफिल में न सही, तमाशे के शौकीनों में गिने जाएंगे।

सवाल है कि व्याकुल प्रबुद्धजनों का झुंड शराबबंदी का अपरोक्ष विरोध करता क्यों दिखता है? क्या इस दिमागदार तबके को मालूम है कि शराब के खिलाफ  खुलकर बोलना-लिखना जान सांसत में डालना है?  प्रबुद्ध बहादुरों  की सीमाएं हैं।

अभी भारत-पाकिस्तान तनाव में मीडिया की भूमिका पर बातें चल रही हैं। माना जा रहा है भारत के सर्जिकल स्ट्राइक के पीछे मीडिया का बनाया प्रेशर था। इसी नेशनल मीडिया के बड़े हिस्से ने बिहार में शराबबंदी कानून का माखौल उड़ाया था।

आम आदमी के लिए अब रीडर सैटिस्फेक्शन और  पर्सनल सैटिस्फेक्शन  का फर्क समझना मुश्किल नहीं रहा। बिहार में पूर्ण शराबबंदी के कानून को हाईकोर्ट ने हटाया तो कुछ अखबारों ने इसे सामाजिक कल्याण की  तरह छापा। एक ही दिन में बिहार सरकार ने नया शराबबंदी कानून लागू कर दिया। मजबूरन  उन्हीं  अखबारों ने खबर को मारते हुए छापा। इलेक्ट्रानिक मीडिया उड़ी हमले और सर्जिकल स्ट्राइक का उन्माद बेच रहा है। उसके पास इस खबर के लिए "सौ खबरें एक मिनट में" का वक्त था।

मीडिया प्लेयर्स ने बिहार में शराबबंदी पर अपनी रिपोर्ट्स पर्सनल सैटिस्फेक्शन के मंसूबों के से  दिखाईं थीं।  खबरें रीडरशिप और टीआरपी बटोरती रही होंगी,  मकसद साफ दिख रहा था।  यह बताने का इंतजाम किया जा रहा था कि वर्तमान परिपेक्ष्य में शराबबंदी जैसे कानून प्रासंगिक नहीं हैं।

इस देश में कितनों को याद है कि पूर्ण शराबबंदी महात्मा गांधी का विचार था । गांधीजी से ज्यादा अप्रासंगिक वर्तमान में कोई नहीं है ! गांधीजी के जन्मदिन पर बिहार सरकार ने शराबबंदी का दूसरा कानून लागू कर दिया। इस दिन बिहार से बाहर के अन्य शराब सिंचित प्रदेशों में सोशल मीडिया ट्रेंड  चल रहा था- "हैप्पी ड्राई डे।"
 इस बार गांधीजी पर विज्ञापन भी कम आए। गांधीजी का जन्मदिवस स्वच्छता अभियान को समर्पित कर दिया गया।
सोशल इंजीनियरिंग की प्रबुद्ध प्रणाली ने भारतीय जनमानस में बात बिठा दी है कि गांधीजी अनिवार्य नहीं हैं। वे अप्रासंगिक हैं। सामंतवाद का विरोध कर गांधीजी ने जिनसे दुश्मनी पाली थी, उनके वंशज आज अपने पुरखों का बदला ले रहे हैं ।

अंग्रेजों ने आजादी देने की सूरत में दो विचार भारतीय जमीन पर बोए थे। पहला, मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए एक अलग देश चाहिए। पाकिस्तान बन गया।
दूसरा, महात्मा गांधी सही आदमी नहीं हैं। अंग्रेजों का यह ब्लफ इतना चला कि बिना तर्क किए आज तक इसे स्वीकारा जा रहा है। गोरी चमड़ी और अमीर लोग जो कहें, वो सही। हमारी मानसिकता अटूट है। अंग्रेज चालाक थे। उन्होंने हमारे राष्ट्रपिता की छवि को हमसे ही तुड़वा दिया।
गोरे जानते थे गांधीजी के साथ रही पीढ़ी को भ्रमित नहीं किया सकता, इसलिए उन्होंने  बाद में आई कौम को लक्ष्य बनाया। बिके हुए लेखकों-इतिहासकारों, छद्म स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के जरिए बताया गया कि गांधीजी ऐसे थे, वैसे थे। आज परिणाम दिख रहा है। हम गांधी का लिखा भूल गए हैं । जिन्होंने गांधी के खिलाफ लिखा, उन्हें पढ़ रहे हैं।  जिस महात्मा के जन्मदिन पर हमें नशाबंदी का त्योहार मनाना चाहिए, उसे हम ड्राई डे के नाम से पुकारते हैं।

मध्यमवर्ग की आकांक्षाओं से संचालित अति-प्रतिद्वंदिता के दौर में हम बच्चे को अल्बर्ट आइंस्टीन बनाना चाहते हैं । महात्मा गांधी नहीं। आइंस्टीन ने एक बार गांधीजी के बारे में कहा था ‘आनेवाली नस्ल यकीन नहीं करेगी कि धरती पर कभी इस तरह का महामानव जन्मा था। ’
लेकिन हम भारतीय आइंस्टीन की क्यों मानेंगे?  रहा होगा वो दुनिया का सबसे दिमागवाला बंदा। बच्चा आइंस्टीन बने, मगर गांधी के आदर्शों पर न चले। हमको अपने बच्चे को महामानव नहीं बनाना। हम तो वही मानेंगे, जो अंग्रेजों ने अपने पालतू  लेखकों से लिखवाकर भारत मेंं बांच दिया। हम गोड्से को महान क्रांतिकारी बताएंगे और गांधी को अप्रासंगिक। वास्तव में अंग्रेज बुद्धिमान निकले। उनका सूरज न उस काल में डूबता था और न आज भारत में डूबा है।

बहरहाल, गांधीजी को पूरे देश में किसी ने सही तरीके से याद किया तो वो नीतीश कुमार हैं। बिहार सरकार के नए शराबबंदी कानून पर हमारे नेशनल मीडिया की नजरें इनायत नहीं हुईं। इलेक्ट्रानिक मीडिया को उस तरह का मसाला पसंद है, जिसमें नीतीश कुमार की पार्टी के एक विधायक को झारखंड में जाकर शराब पीते कैमरे में कैद किया गया था। एक बूढ़े, अर्धनग्न  फकीर की जयंती पर बिहार में शराबबंदी का अपेक्षाकृत अधिक कठोर कानून लागू होना, टीआरपी की खबर नहीं थी। मुझे समझ नहीं आता कि मीडिया प्रबंधनों को टीआरपी का ज्ञान कौन देता है? और क्या वह पत्रकार है! अथवा अंग्रेजों का छोड़ा हुआ मैनेजर।

टीवी चैनलों को छोडि़ए, संपादकीय में कम्युनिज्म से भरे लेखों में भी शराबबंदी कानून के लिए पर्याप्त स्थान नहीं था। नीतीश कुमार पर कम्युनिज्म का प्रभाव बताया जाता है। हमारे देश के ज्यादातर कम्युनिस्ट (अधिकांश मीडिया में भरे पड़े हैं) बातें साम्य की करते हैं, लेकिन महंगी शराब चाहते  हैं। पाइप पर तंबाकू सुलगाकर पीते हैं।  नीतीश इस तरीके के नहीं लगते।

 मैंने बहुत पहले क्रांतिकारी विचार रख रहे एक नेता को सुना था ‘असली साम्यवादी कभी पूंजीवादी  के नीचे  काम नहीं कर सकता। पेट भरने के लिए क्रांति नहीं छोड़ सकता। दंड से डर कर अपमान का दंश नहीं झेल सकता। वह प्रत्येक क्षण, प्रत्येक स्थिति में कामरेड होता है। ’
उस नेता का नाम तो याद  नहीं, लेकिन बाद में, मैं बहुत से फर्जी कम्युनिस्टों से मिला, जो निहायत ही ड्रामेबाज और ढोंगी थे। आजकल वे सरकारी बंगलों की जमीन के केंचुए हैं, कहलाते बुद्धिजीवी हैं। जिस जनसंघ, भाजपा और आरएसएस को दीमक बताकर उनकी बुद्धिजीविता पनाह पाती थी, आज उनकी शरण में जिंदगी चलती है। प्रत्येक क्षण, प्रत्येक स्थिति गई तेल लेने। लेकिन इस तरह के नकली कम्युनिस्ट प्रासंगिक हैं । गांधीजी प्रासंगिक नहीं हैं। इसमें भाजपा या आरएसएस का दोष नहीं है। भाजपा को खड़ा करनेवाले नेताओं ने कभी गांधीजी को अप्रासंगिक नहीं कहा। वे बस यही कहते रहे कि गांधीजी कांग्रेस की मिल्कियत नहीं हैं। अटल, आडवानी और मोदी ने खुले मंचों से गांधी के सिद्धांत, दर्शन और विचार को नकारा नहीं।


खैर, नीतीश कुमार मुझे अवसरवादी जान पड़ते  हैं। इस दर्जे में वे रामविलास पासवान के बराबर हैं। मैं समझ सकता हूं कि बिहार में पूर्ण शराबबंदी उनका एजेंडा था। वे दबावों के बावजूद इस पर कायम रहे। इतिहास के कोरे पन्नों में जार्ज फर्नांडीज को वो स्थान नहीं मिलेगा, जो उनके चेले नीतीश कुमार पाएंगे।  नीतीश सरकार ने इस साल शायद अप्रैल में शराबबंदी कानून लागू किया था। नेशनल मीडिया ने दो दिन इस पर पॉजिटीव खबरें चलाईं, फिर बिहार के पीछे पड़ गए। दिखाया जा रहा था कि शराब नहीं मिलने से लोग बीमार पड़ रहे हैं। मर भी रहे हैं। ज्यादातर प्रतिष्ठित समाचारपत्रों नेे इन खबरों को शीर्षक के बराबर स्थान दिया। 
.. .और शराबबंदी का कानून हाईकोर्ट ने रद्द क्या किया, इन्हीं चैनलों और अखबारों ने हेडलाइंस में गगनभेदी उद्घोष किया। लग रहा था शराबबंदी के खिलाफ उनका एडिटोरियल कैंपेन सफल हो गया।
खांटी बिहारी नीतीश कुमार पीछे नहीं रहे।  शराबबंदी का नया कानून लागू कर दिया। नीतीश की इस त्वरित  प्रतिक्रिया पर मीडिया की तवज्जो खास नहीं है। प्रमुख राष्ट्रीय अखबारों ने कवरेज दिया, प्रस्तुतीकरण प्रभावात्मक नहीं था। रोजाना अखबार पढक़र दिन की शुरुआत करनेवाला व्यक्ति इस पक्षपात को समझ सकता है। मैं नीतीश कुमार समर्थक नहीं हूं। हां, यह अच्छा लगा कि नीतीश कुमार ने कोर्ट के फैसले का पूर्वानुमान लगाते हुए पहले ही नए कानून का विधेयक पास करा लिया था।

पक्के गांधीवादी अन्ना हजारे भी बिहार में शराबबंदी का समर्थन कर चुके हैं। उन्होंने तो हाईकोर्ट का आदेश आने के बाद नीतीश सरकार को गांवों में निगरानी दल तैनात करने का सुझाव दिया था। हद  है कि शराबबंदी से बिहार के रेवेन्यू को नुकसान बताते हुए दूसरे राज्यों के अधिकारी सिर पीटते दिखते हैं।  क्या उन्हें डर है कि अगर बिहार में शराबबंदी राजनीतिक ट्रेंड बन गई  तो उनकी दुकान का क्या होगा? उनके खजाने का क्या होगा?
सरकारी रजिस्टर  के तथ्य रखनेवाले यह नहीं जानते कि शराब जन-धन के नुकसान का सर्वाधिक बड़ा कारण है। शराब पीने से होनेवाली मौतों के ज्यादातर आंकड़े सरकारी रिकार्ड में दर्ज नहीं होते। यह भी बहुत कम लोग जानते हैंं कि शराब से होनेवाली मौतें आकस्मिक नहीं होती हैं। इनका कारणसहित रिकार्ड नहीं रखा जाता। गुर्दा फेल हो गया, हार्ट फेल हो गया, ब्रेन हेमरेज हो गया,  कारण बताए जाते हैं। इन कारणों की जननी शराब थी, डॉक्टर लिखकर नहीं देता। इसी तरह शराब से मिलनेवाले वास्तविक राजस्व का हिसाब-किताब नहीं होता। इसलिए तो बुजुर्ग कहते हैं कि आबकारी विभाग में नौकरी लग जाएगी तो रातोंरात मालामाल हो जाओगे। शराब आबकारी को ही नहीं, एक पूरे तंत्र को फाइनेंस करती है।
 शराब माफिया का असर यूपी की सियायत में पोंटी चड्ढा के रूप में सामने आ चुका है। देश के हर छोटे-बड़े और गरीब राज्य में शराब सिस्टम को सींच रही है। वह मानव की आहार श्रृंखला का अंग बना दी गई है।

 आलोचक कहेंगे ' नीतीश कुमार स्वयं को नरेंद्र मोदी से अच्छा प्रशासक दिखाना चाहते हैं और फटाफट दूसरा शराबबंदी कानून लागू करना इमेज का विस्तारीकरण है।' आलोचकोंं के नजरिए से सोचने में हर्ज नहीं है। मैं अपने नजरिए से सोचता हूं, नीतीश कितने दिलेर हैं। उन्होंने सिस्टम की सबसे ताकतवर शह को छेड़ा है। मैं माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दृढ़ इच्छाशक्ति का सम्मान करता हूं। कितना अच्छा हो कि वे संसद के अगले सत्र के पहले सर्वदलीय बैठक कर पूरे देश में शराबबंदी का विधेयक लाने पर रायशुमारी करें। सुनने में ही यह कपोल-कल्पनाग्रस्त, हास्यास्पद विचार लगता है। गुजरात और केरल में शराबबंदी के हश्र से हम सभी वाकिफ हैं। बावजूद इसके, अगर मोदी अलोकप्रिय पहल करते हैं तब बड़ी पार्टियों की प्रतिक्रिया का सभी को इंतजार रहेगा। हालांकि यह मेरी अतिश्योक्तिपूर्ण कल्पना है। मैं यह सोच भी कैसे सकता हूं! प्रासंगिकता के अनुसार दुनिया का कोई देश शराब को पूरी तरह बंद नहीं कर सकता। उसकी रोजी-रोटी शराब के धंधे के फलने-फूलने पर निर्भर है। अत: मैं देश में पूर्ण शराबबंदी की हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण कल्पना के लिए माफी चाहता हूं। मानव अधिकार का झंडा बुलंद करनेवाले प्रबुद्धजनों के लिए शराबबंदी अप्रासंगिक, अव्यवहारिक और मजाक है। मेरी औकात क्या है ?
अक्सर मैं अपनी मंडली के साथ समकालीन विषयों पर चर्चा करता  हूं। कल एक जूनियर ने सवाल किया 'हमें खबरों को परफेक्ट बनाने के लिए क्या करना चाहिए? '
मैंने कहा 'बस इतना कि हम खबर को उसी तरह छापें जैसी वो है।'
उसने सट से मेरी बात काटी (आजकल यह नई बात नहीं है)- ' एंगल भी तो देखना पड़ेगा ? '
मुझे लगा उसे कहूं कि तू उठकर चला जा.. फिर मुझे ध्यान आया। मैंने कहा ' बेटा जब अपनी रोटी सेंकनी हो तब एंगल देना पड़ता है। खबर अपना एंगल साथ लेकर आती है। उसके लिए न हेडिंग में फैंसी शब्द जोडऩे पड़ते और न ले-आउट से खेलना होता। पन्ना भरना हो, अतिविशिष्ट ज्ञान दिखाना हो, तब हम पूरे-पूरे पन्ने की खबर लगाते हैं और उसे असीमित एंगल देते हैं। अंत में हम एंगल को लेकर इतने संशय में होते हैं कि मूल विषय ही भूल जाते हैं, डर बना रहता है कि गलती न हो जाए।'

जूनियर मेरी बातों से संतुष्ट नहीं दिखा। वो एक कम्युनिज्म  समर्थक संपादक के नीचे काम करता है जो सरकार के पक्ष को अखबार की जरूरत बताते हैं।

जूनियर ने आगे प्रश्न नहीं किया। फिर हम साथी बिहार के शराबबंदी कानून के रद्द होने और नए रूप में पुन: लागू किए जाने को लेकर चर्चाएं करते रहे।
इस बीच उस जूनियर ने कहा ‘वैसे यहां भी सरकार शराबबंदी पर विचार कर सकती है। अब तो हमारी क्रिकेट टीम रणजी में खेलनेवाली है। दिक्कत नहीं है।’
पता नहीं वो क्या कहना चाहता था!
(आपको समझ आए तो अपने तक ही रखना। )

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