Saturday 5 November 2016

प्रतिबंध दिखता नहीं मगर सख्ती से लागू है


 एनडीटीवी पर केंद्र सरकार के एक दिन के प्रतिबंध से मच रहा हल्ला अपरोक्ष आपातकाल बताया जा रहा है। यह झूठ है। मीडिया पर इमरजेंसी राज्यों में बहुत पहले से लागू है।
पाखंड जब दिखने लगे.. और स्वीकारा भी जाने लगे तब स्थिति निर्णय की होती है। यहां पाखंड दोनों ओर है। फैसला नहीं कर सकते। देश से जुड़े हर मुद्दे को सरकार जनभावनाओं से जोड़ देती है। नई शब्दावली में राष्ट्रवाद यही है। एनडीटीवी भी पत्रकारिता में आवश्यक कम्युनिज्म की लकीर पीटता है।
राष्ट्रवाद सरकार का पाखंड है और कम्युनिज्म एनडीटीवी का। आलोचक कहते रहे हैं ‘वामपंथ पाखंड का शिकार हो गया। ’


यहां सरकार का पाखंड ज्यादा बड़ा है। वह एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था की संचालक है। उसे यह निर्णय करना चाहिए था कि मीडिया को बेलगाम किसने होने दिया। यह वही मोदी सरकार है जिसने मीडिया को माध्यम बनाकर अच्छे दिन आने का गुब्बारा फुलाया। मोदी को नए युग का इकलौता इच्छाशक्ति प्राप्त नेता बताने में देर नहीं की गई। भाजपा के कैंपेन के विज्ञापन एनडीटीवी में भी आए। आज मोदी सरकार के बनते ही तकरीबन हर क्षेत्र में एक नियंत्रण दिख रहा है। मीडिया की मुखरता चाटुकारिता में बदल गई। यह मुखरता यूपीए राज में चरम पर थी। मनमोहन सिंह के चुप रहने पर मीडिया ने हदें पार कीं। माहौल बदला, एकाएक जैसे सारे मीडिया समूह मोदी केंद्रित हो गए। कुछ बड़े अखबार समूहों ने अपनी विश्वसनीयता खो दी। बरसों की मेहनत से खड़े हुए बैनरों ने समर्पण किया। जबकि इस मेहनत में केवल मालिकों अथवा  उनके पसंदीदा संपादकों का हाथ नहीं था। फील्ड और डेस्क की टीमें बहुत हद तक इसकी जिम्मेदार थीं। एक समय सेंट्रल डेस्क की टीम को अखबार की धुरी माना जाता था। सेंट्रल डेस्क सरकारी विचारों को समझने की क्षमता रखता था। आज वह ले-आउट व समय-सीमा जानता है और एक बंधे-बंधाए फ्रेम से बाहर देखने का अधिकार खो चुका है।

मीडिया धोखे के पहाड़ों पर चढ़े कुछ अंधों के हाथों में है। वे स्वयं धोखे में हैं, दूसरों को भी धोखा दे रहे हैं। धोखे के पहाड़ खूब बिक रहे हैं। किराए पर भी मिलते हैं। वे सत्ता के हिसाब से जगह बदलते रहते हैं।

एक व्यवस्थावादी का कहना है- ‘मुझे कामरेडों का पहाड़ जवानी में अच्छा लगता था, वहां मुझे नाम मिला। अधेड़ावस्था में मैं दक्षिणपंथियों के पहाड़ पर शिफ्ट हो गया, मुझे काम मिला। बुढ़ापा मैं किसी सेक्युलर पहाड़ पर बिताना चाहता हूं, जहां मुझे पेंशन मिलेगी। ’

व्यवस्थावादी को छोडि़ए, मेरी सुनिए। मैं प्रतिबंध का मतलब नहीं जानता। मुझे लगता है कि जब कोई तथ्यपूर्ण सच से भरी हुई रिपोर्ट संपादक के सामने पेश होती है और संपादक उसे पढक़र किसी को फोन लगाता है, और तुरंत ही कह देता है ‘नहीं छप सकती’ तो यह भी प्रतिबंध है। मैं दूसरों को क्यों गलत कहूं। मैंने भी यह किया है। हर प्रकार का प्रतिबंध महीने के पहले सप्ताह से जुड़ा होता है। मुझे सिखाया गया था कि तनख्वाह पर प्रतिबंध न लगे इसलिए पाखंड का पालन करते हुए उसके पहले के प्रतिबंध स्वीकार लिए जाने चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी से बड़ी पेट की गुलामी है। क्रांति भूखे पेट नहीं होती और भरा पेट क्रांति के लिए मुफीद नहीं । आदमी पेट के बिना जी नहीं सकता। भरा हो या भूखा। इसलिए क्रांति से अच्छा है प्रतिबंध।
मैं एनडीटीवी देखता हूं अपने अंधेपन के बावजूद, मैं जी न्यूज भी देखता हूं यह साबित करने के लिए कि मैं अंधा हूं।

मैं हर उस अखबार को मोतियाबिंद के धब्बे के साथ पढ़ता हूं जिसके समाचारों का स्रोत मुझे पहले से ज्ञात होता है। मैं उस पॉलिसी को जानता हूं जो प्रतिबंध का आधुनिकीकरण है। जहां प्रतिबंध दिखता नहीं मगर सख्ती से लागू होता  है। जिसे प्रबंधन की कला कहते हैं और जहां पत्रकारिता एक नौकरी होती है। इस कला के अंधे महारथियों से भी मैं दो-चार होता रहता हूं जो जानते हैं कि वे उस रस्सी पर चल रहे हैं जिससे एक न एक दिन गिरना है, नितांत अंधेपन को दिव्यदृष्टि बताकर वे राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने लायक अभिनय करते हैं। उठते तक सभी प्रबंधनवादी होते हैं और गिरने के बाद यही लोग आलोचक बन जाते हैं। इन्होंने क्रांति को भी ‘जरूरत के अनुसार’ साबित कर दिया है।
मैं क्यों किसी चैनल पर प्रतिबंध लगने से अपना सिर फोड़ू। एक पक्की बात बोलूं- ‘आज तक एनडीटीवी ने मुझे या हमें दिया क्या है! रवीश कुमार के प्राइम टाइम के सिवा। जेएनयू के कन्हैया कुमार का इंटरव्यू कर रहे रवीश कुमार का चेहरा मुझे याद है। कन्हैया किस तरह विनम्रता की चौखट पर खड़ा था। उस चौखट के पीछे मकान नहीं था। केवल शोर था। आवाजें आ रही थीं- हमें चाहिए आजादी। रवीश कुमार अपनी ही शैली में उसे ऐतिहासिक क्रांतिकारी युवा में रूप में पेश कर रहे थे। ’
 एनडीटीवी छोड़ो किसी भी चैनल ने हमें दिया क्या है? तारे-सितारे, निर्मल बाबा और फैट कटर-ग्रीन टी की ऑनलाइन शापिंग के सिवा। पाखंड हर जगह है।

सच बोलिए, लिखिए। सच बताइए। यह कहना ही पाखंड है। क्या आपको नहीं मालूम घोषित और अघोषित प्रतिबंध का अंतर?
जहां मालिक हो वहां मीडिया नहीं होता। मालिक ही मीडिया हो, फिर प्रतिबंध नहीं लगता।

व्यवस्था में क्रांति प्रतिबंधित है। पत्रकारिता और प्रबंधन अलग-अलग कौशल हैं, इनमें बुनियादी फर्क है। समाजवाद और पंूजीवाद की तरह। किंतु इन्हें मिश्रित कर चल रही व्यवस्था को हम आजाद कहते  हैं। हम बाहर से अंग्रेजों के बनाए पत्थर के पुलों से सख्त बनने का पाखंड करते हैं। अंदर से पीडब्ल्यूडी की सडक़ों से पोपले हैं। क्यों विज्ञापनों के साथ आईं सिफारिशों को मजबूरी और पत्रकारिता को नौकरी करार दिया जाता है। इसकी पड़ताल क्यों नहीं की गई? क्या अनिवार्य है कि हम इन्हें स्वीकार करें, बिना तर्क। इसमें एक चैनल का एक दिन के लिए लुप्त होना, हमें बदल नहीं देगा। सोचें जरा, कौन सी खबर थी जिसने आपको बदल दिया।

मैं मोदी मिलन की आस लगाए बैठा रहूं। जुगाड़ लगाऊं। उस पर भी एनडीटीवी के बैन किए जाने पर चिल्लाऊं तो आत्मा गवाही नहीं देगी।
मैं घोषित चाटुकारों के लिए काम करूं और सत्ता की आलोचना फेसबुक पर करूं तो पचेगा नहीं।

 सच यह है कि आप या तो पत्रकार हैं या नौकर। सामंतवाद का विरोध पत्रकारिता है। सामंतवादियों की व्यवस्था का संचालन नौकरी।
पाखंड पोषण का युग काले लबादे फैलाकर फैल रहा है। एनडीटीवी के लिए आंसू बहानेवाले अपने पाखंड की चिंता करें।

मैंने आपातकाल नहीं देखा। सुना है, आपातकाल में संपादकीय का कालम खाली रखा जाता था। उसमें जूते का चित्र विरोध का प्रतीक होता था।
आज वह जूता गायब है। सरकार का जूता पत्रकारिता की नाक पर है। नाक के नीचे मुंह है। मुंह के अंदर जुबान है। यह जानते हुए भी हम गलतफहमियां लेकर जिंदा हैं। बरखा दत्त, रवीश कुमार, मनोरंजन भारती और प्रणब राय से हम क्रांति की उम्मीद लगाए बैठे हैं। उनकी अभिव्यक्तियों से हमारा भला नहीं होगा।
 एनडीटीवी के ही एक युवा एंकर का नाम है- क्रांति संभव।
एनडीटीवी को मोदी सरकार के बने रहते तक एक एंकर और रखना चाहिए, जिसका नाम हो- प्रतिबंध संभव।

एनडीटीवी के एक दिन के बंद पर मैं मूवी चैनलों में साउथ हिंदी डब भरपूर मारधाड़ से भरी फिल्में तलाश करुंगा जिनमें एक हीरो पूरी सत्ता पर भारी पड़ जाता है।

प्रतिबंध पर बौखलाए पत्रकार मित्रों के लिए दुष्यंत कुमार की दो पंक्तियां, इस आशा के साथ कि आप पत्रकारिता और नौकरी का अंतर जानेंगे-
मत कहो आकाश में कोहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

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