Friday 18 November 2016

काला धन पुराना विषय; नया है विषयविहीन यह लेख

 काले धन पर मुझे लिखना नहीं था। विषय पुराना पड़ गया है। विश्लेषण का युग है। मैं युगधर्म निभा रहा हूं। पढक़र आप कहेंगे ‘अरे वाह क्या लिखा है, सच लिखते हो’
मैं झेंपकर कहूंगा ‘अरे..भाई साहब ये तो मेरा फर्ज था। ’
विश्लेषण यह है कि हम दोनों ही जान रहे होंगे कि हम झूठ कह रहे हैं।


मार्डन व्यवहारिकता में विषय रचे जाने से पहले उनका विश्लेषण हो जाता है। आपस की दौड़ में हम विश्लेषण पहले बना लेते हैं। यह ज्ञानी होने की निशानी है। यह पुरुष के गर्भधारी होने की पुष्टि के समान है। पुरुष गर्भधारण नहीं कर सकता, वैश्विक व जाना-पहचाना सत्य है। हम विश्लेषण यों देंगे मानो पुरुष को सातवें महीने से लेबर पेन के प्रति सजग हो जाना चाहिए।

एक और उदाहरण भी है (यह पहले से भी ज्यादा हल्के स्तर का है), जैसे हम किसी दोस्त को शराब की पार्टी में बुलाकर उसके सामने सफाई देते रहें ‘आजकल मैंने  पीनी छोड़ दी है, तेरा साथ देने को पी रहा हूं।’
हालांकि फोकट की गटकने आए दोस्त ने पार्टी का विषय आपसे नहीं पूछा होता है। आप ही विश्लेषण में लग जाते हैं। दोस्त भी आपकी पैरलल इकॉनामी जानता रहता है । उसे आपकी पोंगा-पंथी समझ आ जाती है। वो सामने से कहता है ‘कोई बात नहीं यार, दोस्त के लिए नहीं पिएगा तो किसके लिए।’

दो पैग के बाद वही दोस्त अपना विश्लेषण देना शुरू कर देता है ‘देख भाई, अपन तो रुटीन में पीते हैं नहीं, तूने बुला लिया सो चले आए। अपनी फिलॉसपी में दारू पीयो, जमकर पीयो, बट लिमिट में पियो। अपना यही फार्मूला है। आधे घंटे में अद्धी अंदर उतार लें, मजाल है इधर-उधर कोई बात हो जाए। लिमिट इज मस्ट मैन।’

तीन पैग के बाद आपकी और दोस्त की लिमिट पार हो जाती है। बोतल के अंत के संग वायदा किया जाता है ‘ अब हर वीकेंड बैठेंगे। देखते हैं कौन बोलता है। अपने बाप के पैसे की पी रहे हैं, ब्लैक मनी नहीं लगी है इसमें।’

दारू की रात में बातें सोडा होती हैं। विश्लेषण नींबू चांटना होता है। चखना पैराग्राफ बदलने का संकेत बन जाता है।
काले धन पर इसी प्रजाति का विषयविहीन विश्लेषण पढि़ए (विषय है, शक नहीं। मैं विषय के बाहर चला जाऊं तो मुआफ कीजिएगा, विषयहीनता यही है)-

दो पैग मारकर सरकार कहती है ‘देश में पैरलल इकॉनामी है ब्लैक मनी की।’

 नींबू काटते हुए जनता पूछती है ‘यही बाबा..यही.. अपन लोग भी यही मानते हैं। चुनाव के टाइम में बोतल के साथ नोट आता है, हम तुरंत पकड़ लेते हैं, माल ब्लैक का है। अपन बोतल में जीभ डालकर उसकी बूंद-बूंद सुटक लेते हैं और नोट चला देते हैं। आज समझ आया चुनाव में मिले दारू और पैसे से पैरलल इकॉनामी खड़ी हो जाती है। ’
सरकार कहती है ‘यहीं गलती करते हो। चुनाव का पैसा चुनाव के बाद वापस कर दिया करो। तुम खरच देते हो। देखो आज पैरलल इकॉनामी खड़ी हो गई। ’

जनता कहती है ‘गलती हुई सरकार अब क्या करें?’

सरकार कहती है ‘जीव-जंतु सब रो रै होंगे.. .आधी रात सब नोट पे सो रै होंगे.. रख दिल पे हाथ, हम साथ-साथ.. .. बोलो क्या करेंगेऽऽऽऽऽ??????’

जनता कोरस में गा उठती है ‘हवन करेंगे.. .हवन करेंगे.. हवन करेंगे.. .’

सरकार जोर-जोर से कहती है ‘यह महायज्ञ है। सबको आहुति देनी होगी। नोटों की बदली होगी। वासेपुर से बदलापुर तक सबके नोट बदले जाएंगे। ’

जनता हर्षनाद करती है ‘हवन करेंगे.. .हवन करेंगे.. .हवन करेंगे.. . ’

और यज्ञ-हवन शुरू होता है। सनकी ट्रम्फ को पेल रहे महारथियों को विश्लेषण का अवसर सुलभ होता है।
पैरलल इकॉनामी पर ज्ञान माला शुरू होती है। काला धन कहां से आता है? कहां को जाता है? (कोशिश होती है घाट-घाट घूमे आदमी को सुहागरात का मतलब बताने की)

काले धन पर विश्लेषणों की सर्जिकल स्ट्राइक होने लग जाती है। (आजकल सर्जिकल स्ट्राइक बड़ा फैशन में है। बवासीर की बीमारी लेकर डॉक्टर के पास पहुंचा व्यक्ति कहता है- बड़ा दर्द है साहब, सर्जिकल स्ट्राइक कर दो )

विश्लेषकों को सुनकर जनता कोरस में गाते-गाते  चिल्लाने लग जाती है ‘ हवन करेंगे.. हवन करेंगे.. . हवन करेंगे.. .’

सीरियसली आम आदमी से मजाक देखिए। अपने को आम आदमी मानते हुए जानिए कि आम आदमी से अच्छा कोई अर्थशास्त्री नहीं। उसे पता है काला धन कहां है? उसकी सहचरी सरकार भी जानती है काला धन कहां है? लेकिन निकलवा किससे रही है? आम आदमी से ही।
हवन हो रहा है। आहुति कौन डाल रहा है। आम आदमी।

पैरलल इकॉनामी क्या है? इसका विश्लेषण यही है कि यह तुमने खड़ी की है। हमने नहीं। हम कतारों में खड़े हैं। तुम्हारा पता नहीं। हमें पता है नेता के पास काला पैसा है। वो कतार में नहीं है।  उद्योगपति-व्यापारी के घर ब्लैक का बगुला, भगत बना पड़ा है। इनमें से कोई कतार में नहीं है।
एक ऊंचा आदमी गिरफ्तार नहीं हुआ। सब ईमानदार, पाक-साफ हैं। आश्चर्य है पैरलल इकॉनामी कहां से खड़ी हुई?

इकलौता पाकिस्तान बार्डर से इतने जाली नोट सप्लाई कर गया। पैरलल इकॉनामी बना गया। हमको देशभक्ति का सबूत देने कतारों में लगा गया।
 क्या सरकार, जनता और इनके बीच संवाद बनानेवाले (ज्यादातर मीडिया और बुद्धिजीविता से जुड़े विश्लेषक) नहीं जानते काला धन किनके पास है?

जानते हैं भूत नहीं है। ओझा ही ढोंगी है। लूट रहा है। वार भूत पर क्यों? जब वो है ही नहीं। ओझा भूत बनाता है, उसको पकड़ो।
पैरलल इकॉनामी का अर्थशास्त्र गरीब के लिए है। नोट वह बदलेगा। वेल सेटल्ड लोग अर्थशास्त्री और देशभक्त हैं। पैरलल इकॉनामी इनके बाप का विषय था। ज्ञान पेलने का अधिकार इन्हें विरासत में मिला। इनके खून के रिश्तेदार राजनीतिक दलों के खजांची हैं। सत्यवादी-दानवीर हरिशचंद्र ने इन्हें गोद लिया था।

हरीशचंद्र की वेल सेटल्ड दत्तक औलादें विश्लेषण दे रही हैं ‘चुनाव में पैरलल इकॉनामी नहीं होती। चुनाव के बाद पैरलल इकॉनामी होती है।’ सरकारों के- असरदारों के बोर्ड-होर्डिंग्स में काला पैसा नहीं लगा होता। वो खून पसीने की कमाई है। सभाओं की भीड़ जमा  करने वाले इतने ईमानदार हैं कि मेन इकॉनामी से धन जुटाते हैं। किसानी का पैसा सभा में लगाते हैं।

इस मुकाबले अनसैटल्ड आम आदमी की दारू पैरलल इकॉनामी से आती है। देसी पीकर नाली में नैसर्गिकता टटोल रहा नेता रातोंरात मेन इकॉनामी से  उधार पाकर जॉनी वॉकर ब्लैक लेबल पा जाता है। सेठ-साहूकार मेन इकानॉमी के तहत ब्याज का धंधा करते हैं।
पैरलल इकॉनामी चलाने वाले उनसे उधार लेते हैं, डबल ब्याज में।

तीनों सभाओं के सदस्य, सरकारी तंत्र के सारे अधिकारी, बाजार के बड़े व्यापारी और उद्योगों के पति, सभी व्हाइट हैं। हम ही काले हैं। पैरलल इकॉनामी वाले हैं।
देश का बच्चा-बच्चा (जो राम का भी है और रहीम का भी) जानता है काला धन कहां से आता है? किसके पास जाता है?
आप नहीं जानते सरकार, धन्य हैं। नोट बदलवाने की नौबत आ जाती है।
आई डोन्ट नो व्हाट इज पैरलल इकानॉमी. बट विद ऑल रिसपेक्ट आई वान्ट टू नो, हू इज रिस्पांसिबल फॉर इट?
डू यू टेल मी?
- इति विषयविहीन विश्लेषण




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