महान
भारतीय कप्तान महेंद्र पान सिंह धोनी के जाने का वक्त आ गया है। एक
खिलाड़ी का खेल जीवन 15 साल से ज्यादा लंबा नहीं होता। तेंदुलकर जैसे चंद
सर्वकालिक महान खिलाड़ी अपवाद हैं। सुना है अद्वितीय तेंदुलकर को भी
बीसीसीआई ने कह दिया था -अब आपको खेल छोडऩे के बारे में हमें बता देना होगा
क्योंकि हम आपकी ऐतिहासिक और गरिमामयी विदाई चाहते हैं।
बीसीसीआई
का फोन आने से पहले धोनी को अपने पूर्ववर्ती सौरव गांगुली के करियर को याद
करते हुए सम्मानजनक विदाई के बारे में विचार कर लेना चाहिए। गांगुली ने
कप्तानी गंवाकर वो सम्मान भी गंवा दिया था जो उन्होंने एक आक्रामक इंडियन
टीम को सृजित कर अर्जित किया था।
गांगुली अच्छे खेल प्रशासक हैं। कप्तान का मायना लीडर नहीं होता। इसी तरह लीडर और प्रशासक में भी जमीन-आसमान का फर्क होता है।
बोलचाल
में दोनों शब्दों का पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जा रहा है। जानकार
कहते हैं, कप्तान दल का मुखिया होता है । वह नेतृत्वकर्ता भी हो, यह जरूरी
नहीं। गांगुली अनुकरणीय मुखिया रहे पर नेतृत्वकर्ता उतने सटीक नहीं । उनकी
कप्तानी में वन डे सचिन-सहवाग के नेतृत्व से जीता जाता था और टेस्ट में
द्रविड जिम्मेदारी संभालते थे। कप्तानी करते हुए खिलाडिय़ों पर उनका
नियंत्रण अविश्वसनीय था। खिलाडिय़ों को प्रेरित करते हुए उन्हें काबू में
रखनेवाला कप्तान भारतीय क्रिकेट इतिहास में नहीं मिलेगा।
कल
न्यूजीलैंड के दिए हुए आसान लक्ष्य के सामने हार ने धोनी की विदाई का
संकेत दे दिया है। धोनी ने आस्ट्रेलिया दौरे के बीच में ही टेस्ट से
संन्यास लेकर अपनी दूरदर्शिता बता दी थी। बीसीसीआई की चयन समिति, खास तौर
पर अध्यक्ष संदीप पाटिल के बयानों में नए कप्तान की खोज की योजना दिखती थी
। रैना के साथ-साथ विराट कोहली और अंजिक्य रहाणे भी आजमाए जा चुके थे।
रहाणे को 2014 में जिम्बाब्वे गई भारतीय टीम का कप्तान बनाकर चयन समिति ने
सभी को अचरज में डाल दिया था।
रहाणे कप्तान न होकर भी सबके पसंदीदा हैं।
याद
होगा कि गांगुली का खेल गिरने के बाद धोनी 2007 में कप्तान बनाए गए थे।
धोनी तब धुआंधार थे। बाद में धोनी ने गांगुली को टीम से बाहर का रास्ता
दिखाया। गांगुली थक गए थे। नए लडक़े उनका खेल देखकर हंसते थे। गांगुली अपने
पुराने खेल और रौब की बदौलत जाने का नाम नहीं ले रहे थे।
धोनी
ने 60 टेस्ट में से 27 और 194 वनडे में 107 जीत हासिल की हैं। वे टेस्ट और
वन डे में भारत के सबसे सफल कप्तान हैं। बतौर कप्तान सर्वाधिक मैच खेलने
की सूची में अव्वल रिकी पोटिंग के बाद उनका स्थान है । उन्होंने 324
अंतरराष्ट्रीय मैचों में कप्तानी की है जिनमें 70 ट्वेंटी-ट्वेंटी मुकाबले
शामिल हैं।
एमएसडी
की कप्तानी में ही भारत पहली बार आईसीसी की टेस्ट रैंकिंग में नंबर वन बना
था। उन्हें टेस्ट कप्तानी के लिए अधिक सराहना नहीं मिली। धोनी को
परिस्थितियों के बदलने की प्रतीक्षा करता मूकदर्शक कप्तान कहा गया । सच है
कि टेस्ट में धोनी गेम पलटने का इंतजार करते थे। प्रो-एक्टिव नहीं थे।
कप्तान
का खेल दूसरों को प्रेेरित करता है। कप्तान अपने ही खेल या काम से जूझता
दिखे तो इज्जत गंवा बैठता है। माही ने अभी तक अपना मान नहीं गंवाया है। मगर
वह दिन दूर भी नहीं कि वे गांगुली का इतिहास दुहराते दिखें।
धोनी
और कोहली के लीडर होने का मुकाबला टीम पर उनके नियंत्रण से करें। भारतीय
बल्लेबाजों का न्यूजीलैंड के खिलाफ खत्म हुई टेस्ट सीरीज में प्रदर्शन
देखिए.. . और पिछले दो वन डे में खेल देखिए। कोहली की टीम अनुशासित दिखी।
टेस्ट
में क्लीन स्विप मिलने और वन-डे का पहला मैच जीतने के बाद न्यूजीलैंड के
खिलाफ सबकुछ एकतरफा दिख रहा था। कल के मैच के बाद सोच बदल गई है। सीरीज के
अगले तीन मैचों में न्यूजीलैंड एक भी न जीत पाए लेकिन दूसरे मैच की हार का
खटका इससे जाएगा नहीं। झोली में दिख रही जीत खराब बल्लेबाजी से बाहर निकल
गई । जवाबदेही धोनी की होगी।
आज
विराट पुराने धोनी की तरह आत्मविश्वास से भरे नजर आते हैं और धोनी जूझते
हुए गांगुली की कॉपी। धोनी टीम के बॉस नहीं दिखते। दूसरे वन डे में अंजिक्य
रहाणे जमने के बाद आउट हुए। भारतीय टीम ने छोटे लक्ष्य का पीछा करते हुए
उबाऊ शुरुआत की। पहले दस ओवर में अपेक्षित रन नहीं आने के दबाव में रोहित
शर्मा का विकेट गया। बल्लेबाजी के लीडर कोहली आए और अपने पूर्ण कौशल से
खेले। वे उस गेंद पर आउट हुए जो लेग स्टंप के बाहर होने की वजह से वाइड
होनी थी। आगे के क्रम में केवल धोनी अनुभवी थे। मनीष पांडे टी-20 शैली के
ताबड़तोड़ बल्लेबाज हैं। हड़बड़ी में रहते हैं। केदार जाधव ने वो खेल नहीं
दिखाया है कि उन्हें लंबी रेस का घोड़ा कहा जाए। सुरेश रैना की वापसी पर
दोनों में से किसी एक का बाहर जाना तय है।
धोनी
तेज बल्लेबाजी नहीं कर पा रहे। वे हर मैच को अंतिम ओवर तक ले जाने की सोच
से खेल रहे हैं। स्कोर का पीछा करते हुए जिस बल्लेबाज का औसत दुनिया में
सबसे अधिक हो, उसकी परमानेंट रणनीति चूकने लगी है। धोनी के सामने
न्यूजीलैंड की कसी हुई गेंदबाजी थी श्रीलंका या बांग्लादेश के मीडियम पेसर
नहीं थे, जिन्हें स्लॉग ओवर्स में मिड ऑन के ऊपर से उठाकर मारा जा सकता
है। धोनी को मालूम रहा होगा अंतिम ओवरों में ट्रेंट बोल्ट और टिम साउदी
गेदें फेकेंगे।
विपक्षी
गेंदबाज उनके स्कोरिंग क्षेत्र को पहचानने लगे हैं, जिस तरह गांगुली की
कमजोरी भी पकड़ी गई थी। आजकल धोनी को शॉर्टअप लेंथ से थोड़ी आगे गेंदें
फेंकी जाती हैं। वे एक्सट्रा कवर या कवर पाइंट के पास से गैप नहीं निकाल
पाते। इसलिए उनके लिए बीच के ओवरों में (जब फिल्डर सिंगल रोकने की कोशिश
में आगे लगे होते हैं) रन निकालना आसान नहीं होता।
एमएसडी
की बैटिंग क्रिकेट विशेषज्ञों की लिखी किताब से मेल नहीं खाती। स्थापित
मापदंड से जुदा अंदाज रखनेवाले बल्लेबाजों की लय लगातार क्रिकेट खेलने से
बरकरार रहती है। धोनी लगातार खेल नहीं रहे हैं। धोनी के पास अब इस साल
मुश्किल से दस वन डे और हैं। धोनी के रिफ्लेक्सेस कमजोर हुए हैं।
बल्लेबाजी की शैली में बदलाव कर उन्होंने नैसर्गिक आक्रामकता खो दी है।
आज वे अंतिम ओवरों के इंतजार में 35 से 45 ओवरों के बीच गेंदे खराब करते रहते हैं।
कुछ
साल पहले उन्होंने श्रीलंका के विरुद्ध वेस्टइंडीज में हुए त्रिकोणीय
सीरीज फाइनल में तीन छक्के मारे थे। अंतिम ओवर में शायद 20 के आसपास रन
बनाने थे। बॉलर अनुभवहीन था। धोनी ने श्रीलंका के मुंह जीत निकाल ली। धोनी
ने इसके बाद से मैच को अंतिम ओवर तक खींचने की कला को विजय मंत्र मान लिया।
इंज्लैंड में हुए एक टी-20 मैच में धोनी का मंत्र बेकार साबित हुआ। सामने
अच्छा बॉलर था। धोनी का बल्ला टिक-टाक से ज्यादा कुछ नहीं कर पाया। जीता
हुआ मैच निकल गया क्योंकि धोनी पारी को अंतिम ओवर तक ले गए । अंतिम ओवर की
सभी गेंदें खुद खेलीं। नॉन-स्ट्राइकर अंबाती रायडू को जान-बूझकर स्ट्राइक
नहीं दी।
लीडर
को फ्लैक्सिबल होना चाहिए। एक लीडर हमेशा से ही टीम के सामने उदाहरण बनता
है। उसके सुरक्षात्मक हो जाने पर बाकी के सदस्य अपनी-अपनी सोचने लगते हैं।
विराट कोहली में किसी प्रकार का डर नहीं है। वे रोहित शर्मा, अंजिक्य
रहाणे या शिखर धवन को पूरा मौका देते हैं। कोहली बेफिक्र हैं कि तीनों कभी
टीम में स्थान बनाने की दौड़ में उनके प्रतिद्वंदी रहे।
आत्मविश्वास
का भाव चेहरे, खेल और जीवन में दिखता है। सुरक्षा के खोल में बैठा हुआ
आदमी सुई को भी तलवार समझता है। लीडर पैदाइशी होते हैं उन्हें बनाया नहीं
जाता।
आप
कार्यस्थल पर आप इस तरह के भयग्रस्त लोगों से दो-चार होते होंगे, जिन्हें
किस्मत से कुर्सी मिलती है और वे उसे बचाने सार्वजनिक अपमान झेलते हैं। वे
खुश रहते हैं कि बरकरार हैं, बाहर की जग हंसाई उनको व्यर्थ की लगती है।
धोनी जान लगा देनेवाले खिलाड़ी हैं। कोहली के टीम लीडर बनने से वे
असुरक्षा महसूस कर रहे हैं। दिलेर एमएसडी अपने स्कोरिंग रेट से अधिक
व्यक्तिगत स्कोर पर ध्यान देने लगे हैं।
कारपोरेट
ऑफिसेस में विराजमान बड़े अधिकारी कंपनी को भाड़ में झोंककर अपने
इर्द-गिर्द नैसर्गिक प्रतिभा को आने नहीं देते। उनका ध्येय वाक्य होता है-
"हमें तनख्वाह बनाने से मतलब। " अपने शागिर्दों को भी वे यही सिखाते हैं।
धोनी
को इस तरह की घटिया सोच ने नहीं छुआ होगा फिर भी वे असहाय दिखने लगे हैं।
मानों वे लिखित में कप्तान हैं और उनकी खेल में भूमिका बारहवें खिलाड़ी की
है। धोनी की बड़ी हैसियत की वजह से कोच अनिल कुंबले उन्हें बल्लेबाजी
सुधारने को नहीं कह सकते।
मैं
धोनी का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। उन पर गर्व होता है। मेरी तरह देश में
करोड़ों प्रशंसक बनाए हैं धोनी ने। अब वक्त आ गया है उन्हें विराट को वन-डे
और टी-20 की कप्तानी सौंप देनी चाहिए। वे चाहें तो बतौर विकेटकीपर
बैट्समैन टीम में बने रह सकते हैं। उनके प्रशंसक अपने आदर्श को ब्लू जर्सी
में विराट के नीचे नहीं देखना चाहेंगे। धोनी सक्षम हैं फैसला लेने में।
हर कप्तान को एक दिन अपनी जर्सी उतारनी पड़ती है। विराट भी आगे किसी के लिए उतारेंगे, अभी तो धोनी की बारी है.. .
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