Saturday 30 July 2016

गरीब को दीनदयाल और विकलांग को दिव्यांग कह देने से आत्महत्या बंद नहीं हो जाएगी...

नए शब्द गढ़ने को आतुर आकाओं से दो सवाल हैं - व्यवस्था की आग में जलकर असमय विलीन हुए योगेश साहू के नाम के सामने दिव्यांग लगा देने से क्या उसकी विवशता और गरीबी खत्म हो गई रही होगी? उसे आत्मसम्मान हासिल हो गया रहा होगा? शब्दों से चमत्कार हो जाता तो वो गरीब खुद को आग के हवाले ही क्यों करता! मेरा ख्याल है सम्मानीय नरेंद्र मोदी को योगेश की कोई खबर नहीं मिली होगी। दिल्ली तक हमारा दर्द पहुँचता ही कहाँ है ! रायपुर की बात सीधे प्रधानमंत्री से जोड़ने के पीछे कोई अतिश्योक्ति नहीं है। मैं यह लिख रहा हूँ क्योंकि मोदीजी ने ही ऐसे भावुक शब्दों को सरकारी सिस्टम में डालकर नया तरीका निकाला हुआ है समस्याओं पर इमोशनल लेबल लगाने का। समस्याएं वही हैं जो विकलांग को नि:शक्त कह देने के पहले थीं और विकलांग को दिव्यांग बना देने के बाद भी बनी हुई हैं। शरीर से लाचार आदमी सहानुभूति पसंद नहीं करता, मगर उपेक्षा उसे तोड़कर रख देती है। आज अख़बारों में सीएम हाउस की सुरक्षा और निगरानी बढ़ाए जाने के जरूरत से ज्यादा स्थान घेरे हुए समाचार लगे हैं। यह मुश्किल से दो कालम की सूचना होनी चाहिए थी, जिसमें प्रमुख होना था कि अब आम जनता मुख्यमंत्री से मिलने इस रास्ते से होकर जाए। अख़बार से जनता यह जानना चाहेगी कि नए ताम-झाम में कितना खर्च आएगा? खबर का दूसरा पक्ष मेरे साथियों के दिमाग में क्यों नहीं आया ! हर खबर के दो पक्ष होते हैं। पहला पक्ष- सूचना कितनी महत्वपूर्ण है! दूसरा- इसका पढ़नेवाले के मनोभाव पर कैसा असर होगा! दूसरा पक्ष सदैव अपरोक्ष होता है। खबरों का दूसरा पक्ष समझना अतिआवश्यक है। यह पढ़नेवाले के मनोभाव को झकझोर सकता है। उसे विद्रोही या आत्मघाती बना सकता है। इस समाचार का दूसरा पक्ष अपरोक्ष रूप से कहता है कि सीएम ने अपने आवास के आसपास की सुरक्षा बढ़वाई है ताकि उस दायरे में आत्महत्या न हो, भले बाहर कहीं हो जाए! जाहिर है इससे सीएम बदनामी से बच जाएंगे। समाचार में यह लिखा नहीं है, परन्तु ध्वनित यही हो रहा है। मैं इस खबर के आने के पहले अख़बारों की सुबह की प्लानिंग मीटिंग के बारे में भी सोच रहा हूँ जिसमें योगेश की मौत के कारणों की पड़ताल पर खोजी खबर बनाने का कोई असाइनमेंट नहीं तैयार किया गया। लिखा गया था कि योगेश की मौत को सियासी रंग दिया जा रहा है। अगले दिन वही अख़बार योगेश की आत्महत्या की जाँच करती फॉलोअप रिपोर्ट्स बनाने के स्थान पर जोगी केंद्रित हो गए। योगेश की फाइल बंद। क्राइम के एक ब्रीफ को इस तरह छापा गया जैसे छत्तीसगढ़ में कश्मीर से हालात हैं और इस नाते सीएम की सुरक्षा सर्वोपरि है। हाल में खबरों का दूसरा अपरिलक्षित सिरा पकड़ने में हम पत्रकारों की नाकामी दिख रही है। शायद हम छापना नहीं चाहते हैं , सो देख कर अनदेखा कर रहे हैं। बड़े अख़बारों में तो अभियान चलना चाहिए। योगेश की मौत जैसे हादसों की पुनरावृत्ति न हो इसके लिए। आदमी का जिन्दा जल जाना, वो भी बेरोजगारी से तंग होकर, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य के सिस्टम पर बर्फ पड़ जाने सा है। बर्फ को स्थाई तौर पर जमने से पहले हटाने का काम मीडिया का है। अख़बारों के अभियान में उन कारणों को खंगाला जाना चाहिए जिससे योगेश सरीखे लड़के इतने हताश हो जाते हैं कि उन्हें आत्महत्या ही अंतिम निदान दिखती है। स्वयं शासन को सीएम हाउस की सुरक्षा में जनता का पैसा फूंकने की बजाय घरों-घर सर्वे के लिए सरकारी मशीनरी लगानी चाहिए। सर्वे से सच सामने आ सकता है। पता चल जाएगा कि छ्त्तीसगढ़ के घरों में अभी कितने ही लाचार 'योगेश' मदद की आस लिए भूखे पड़े हैं। गरीब को दीनदया और विकलांग को दिव्यांग कह देने से आत्महत्या बंद नहीं हो जाएगी।

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