Sunday 9 October 2016

अगली रिपोर्ट के इंतजार में


मैंने दुर्ग भास्कर के श्रीशंकर शुक्ला की फेसबुक वाल पर यह खबर देखी। बच्चों को पर-भरोसे (भगवानभरोसे नहीं कहना चाहिए, बच्चे स्वयं भगवान होते हैं) छोडऩे के समाचार आम हो गए हैं। तरजीह नहीं मिलती।  ऐसी नोचती घटनाएं अब निशान नहीं छोड़तीं।
अहसास को बच्ची की तस्वीर ने भी छुआ। आह् .. इस फोटो ने मुझे खींच लिया। जकड़ लिया। मेरी आंखें भीगा दीं।
 रिपोर्ट में एक और बड़ी खास चीज है। इसके साइड में लगा ग्रे स्क्रीन बॉक्स। रिपोर्टर ने बर्थवाइज दुर्ग तक के सारे पैसेंजर्स की डिटेल दी है। बाक्स की हेडिंग में क्लीयर है, बर्थ के सारे पैसेंजर्स पुरुष ही थे। इस बॉक्स को पढक़र इन सीटों के यात्री कितने हतप्रभ होते! रेलवे का अनुमान है कि रायपुर से दुर्ग के बीच बच्ची को कोई छोड़ गया। लिखा है कि बच्ची सीट क्रमांक 24 के नीचे मिली। जरा गौर कीजिए। ट्रेन आकर दुर्ग में रुकती है। लास्ट स्टॉप। इसके तकरीबन 15 मिनट बाद कर्मचारी बोगी लॉक कर रहा होता है कि बच्ची के रोने की आवाज आती है। वो उसे उठाकर बाहर लाता है। स्टेशन अथॉरिटी को जानकारी देता है।
ऊपर लिखे वाक्यों को दोबारा पढि़ए। (क्या रह गया?)
मैं जो कहना चाहता हूं, समझ आ जाएगा।
रिपोर्टर ने रेलवे कर्मचारी की जुबानी जो लिखा है, वह पूरी खबर का मर्म एक बार में समझा देता है।
प्रार्थना है कि यदि इस बच्ची के मां-बाप मिल भी जाएं, तो चांद को उन अंधेरों के हाथ न सौंपा जाए।  अंधेरों को चांद मिला और उन्होंने जिंदगी की सबसे खूबसूरत रोशनी छोड़ दी।
चांद को एक दुनिया चाहिए, एक सूरज चाहिए। इसे उन्हें गोद  दो, जिनका कोई बच्चा नहीं है। रोशनी को कोख नहीं, बिखरने के लिए झरनों का पानी चाहिए। उसे वापस उन्हीं काले हाथों को सौंपकर ग्रहण न देना। रोशनी को जायज-नाजायज न ठहराना। बस, अब सफेद झील के किनारे बहने लगे हैं..नहीं लिख पाऊंगा..
श्रीशंकर की अगली रिपोर्ट के इंतजार में।



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