Wednesday 19 October 2016

करवाचौथ के दिन अरब में तलाक की खबर


अरब देश के एक मियां साहब अपनी बेगम के हुस्न के दीवाने थे। निकाह के पहले बेगम की तस्वीरें उनके लिए चांद की रोशनी हुआ करती थीं। दीवानगी का आलम शादी के बाद भी कायम रहा। एक दिन मियां साहब को बेगम के साथ तैराकी का मजा लेने का मन हुआ। बेगम पानी में उतरीं। मियां साहब ने उन्हें पहचाना नहीं। तलाक हो गया।

वाकया शारजाह के अल ममजार समंदर तट का है। तलाक की वजह थी बीवी का विद और विदाउट मेकअप अलग-अलग दिखना। क्या ये वजह हुई? केस कुछ यूं है कि बेगम साहिबा मेकअप के साथ समंदर की लहरों में उतरीं। समंदर ने बेगम का मेकअप धो दिया। मियां साहब अपनी शरीके-हयात का असल चेहरा बर्दाश्त नहीं कर पाए। उन्होंने बेगम को  तलाक दे दिया।

संयुक्त अरब अमीरात की यह खबर आज भारत में करवाचौथ के दिन बड़ी चर्चा में है। इस तरह की खबरें एक तरह से चुटीली होती हैं क्योंकि जिन्हें हम जानते नहीं उनसे संवेदना नहीं जुड़ी होती। भावनाओं का समंदर अंदर पाले बैठे बंदों की बात जुदा है। वे किसी भी बात पर भावना बेच सकते हैं।

बात संयुक्त अरब अमीरात की है। हम भारतीय इस पर टीका-टिप्पणी कर सकते हैं। इसकी विवेचना कर सकते हैं। हमारे देश में खिसियाए हुए नैतिक-सैद्धांतिक दिव्यात्माएं तीन तलाक की बहस में पड़े हुए हैं।
इस वातावरण में मैं अरब के इस तलाक को विवेचित करना चाहूंगा।

पहले आते हैं माननीय मियां साहब पर। उनमें भौतिक सुंदरता के प्रति इतना आग्रह था कि पत्नी को अपने मन-मुताबिक न पाकर फौरन रास्ते अलग करने का फैसला कर लिया। अब इसमें उनकी बेगम की कितनी गलती थी? कुदरत ने उन्हें जैसा बनाया, वे वैसी नहीं पसंद की जातीं, सो सामंजस्य बिठाते हुए उन्होंने गैर-कुदरती साधनों का सहारा लिया। कास्मेटिक्स ने उन्हें नया रूप दिया।

गलती उन्होंने भी की। उनसे पूरी सहानुभूति रखते हुए यह कहना चाहूंगा कि पहला धोखा उन्होंने किया। उन्होंने यह कबूल भी किया है कि वे अपने शौहर को सच बताना चाहती थीं मगर देर हो चुकी थी। खबर में चुटीलापन समंदर में बेगम का मेकअप उतर जाने का किस्सा जोड़ देने से आता है। लेकिन यह खबर का सच नहीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि तलाक का कारण केवल शारीरिक खूबसूरती नहीं रही होगी। हमें चेहरों पर मानसिकता नहीं दिखती। तलाक की कतार के खड़े जोड़ों के अंतर्मन को पढ़ा नहीं जा सकता। खबरों में निजता को परिभाषित नहीं किया जा सकता। जाहिर है कि तलाक का मूल कारण स्पष्ट नहीं किया जा सकता। यह मानसिक रुढिय़ों से पैदा  होता है।

 हो सकता है मियां साहब को  हमसफर का फरेब पसंद न आया हो। वे स्वयं को दुनिया का सबसे सच्चा आदमी मानते हों। मेकअप से असली चेहरा छिपाना उन्हें छलावा मालूम हुआ हो। मियां साहब को अरब के तेल और सोने से छलावे को अलग करना आता हो!

हर आदमी अपने ढंग से रिश्ते के बारे में सोचता है। इसमें भरोसे से अधिक सहूलियत का ख्याल रखा जाता है। मान-मर्यादा देखकर सैद्धांतिक बातें जोड़ दी जाती हैं। शादी के साथ एक टैगलाइन जुड़ी हुई है 'जनम-जनम का साथ।'  प्रैक्टीकली सोचें तो जनम-जनम के साथ में शारीरिक-मानसिक ईमानदारी के आजाद तकाजे होते हैं। संभावना इसकी भी है कि मियां साहब ने सोचा हो कि वे बेगम के साथ रिश्ता निभा नहीं पाएंगे, सो उन्हें धोखे में रखने की बजाय  उनसे अलग हो गए।

अरब की यह खबर इस अजीब तलाक के सार्वजनिक हो जाने से नहीं बनी है। बेगम साहिबा ने डॉक्टर को अपनी कहानी सुनाई और डॉक्टर साहब ने दुनिया को, नतीजन खबर बनी। अमानवीय सिद्धांतों के पैरोकार कहेंगे " बेगम को उस मर्द को पहले ही तलाक दे देना चाहिए था जिसने खूबसूरती के लिए शादी की थी।"
 पर क्या सभी के लिए यह साहस मुमकिन होता है? बेगम क्या जानती नहीं रही होंगी कि उनका शौहर उनके लुक्स पर फिदा है।

इस तलाक की तहकीकात करें तो बात शादीशुदा जोड़ों के आपसी लगाव पर आकर टिकती है। कितना सैद्धांतिक और नैतिक लगता है यह कहना कि शादी को पूरी शिद्दत से निभाना चाहिए। तलाक ने उस अरब महिला को अवसाद में डाल दिया । इसलिए वह डॉक्टर के पास पहुंची थी। डॉक्टर ने उसे समझाया होगा कि  उसे शादी में रहकर भी अवसाद होता। उसका पूर्व पति खूबसूरती मन में बिठाए बैठा था, वह उससे सही व्यवहार नहीं करता।

इधर हमारे देश में तीन तलाक पर अभी बहस चल रही है। सभी इसके हिस्सेदार हैं। हिंदू और मुस्लिम विवाह का कानून अलग-अलग होने पर विचार बंट गए हैं।

अरब की इस घटना को ध्यान में रखते सोचिए क्या तलाक एक निहायत ही निजी निर्णय नहीं है? निजता में धर्म को लाकर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। किसी भी धर्म ने अलगाव को सही नहीं बताया है। हमें तलाक को दो पक्षों की ज्याती जिंदगी के नजरिए से देखना चाहिए। दुनिया के पुराने अफसाने कहते हैं कि सारे मजहबों के मर्दों ने अपनी सहूलियत को ध्यान में रखकर सामाजिक कानून बनाए। अदालतों में ज्यादातर जज मर्द ही होते हैं। अब क्या हम इस पर ही बहस करने लग जाएं कि अदालतों में भी 50 फीसदी महिला न्यायाधीश बैठें।

बहस विवाह के कानूनों में महिलाओं के अधिकार पर होनी चाहिए। यूनिफार्म सिविल कोड भावना के आधार पर नहीं बनाया गया है। किसी भी प्रकार का सामाजिक कायदा जज्बात नहीं देखता। एक  संवाद है- "अदालत जज्बात नहीं सबूत देखती है।"
तलाक भौतिकता से अधिक मानसिकता से प्रेरित हो सकता है। 'जाकी रही भावना जैसी।'  हालांकि अच्छी मानसिकता रहने पर तलाक अस्तित्व में ही नहीं आता। महान मानसिकता संत-फकीरों की होती है और आमतौर पर वे शादी नहीं किया करते।

बदलते परिवेश में लडक़ी या लडक़े के लिए विवाह नामक सामाजिक संस्था आजादी का प्रतीक होनी चाहिए। शादी का नतीजा तलाक नहीं हो सकता बशर्ते रिश्ता झूठ और दिखावे पर न टिका हो। जैसा कि उस अरब जोड़े का प्रकरण हुआ। बेगम ने चेहरे पर झूठ लगाया और शौहर को दिखावा पसंद था। 'माइनस'-'माइनस'  प्लस होने की थ्योरी यहां उल्टी पड़ गई। 'माइनस' प्लस 'माइनस' बराबर तलाक हो गया। इससे ज्यादा बेहतर ढंग से कह सकते हैं कि शायद बेगम ने मेकअप का झूठ ही इसलिए लगाया क्योंकि शौहर को खूबसूरती के दिखावे पर यकीन था।

 हमारे देश में इस प्रकार के प्रकरण सामने नहीं लाए जाते। हम सुनते रहते हैं कि लडक़ेवालों ने इलेक्ट्रिकल इंजीनियर बताकर शादी की, बारहवी में तीन बार फेल लडक़ा घरों में बिजली फिटिंग करनेवाला निकला। इसी तरह मायकेवालों ने लडक़ी को शांत बताया, उसने ससुराल की शांति भंग कर दी।

तलाक पर चर्चा में शामिल सभी विशेषज्ञों को अपनी शादीशुदा जिंदगी में झांककर पैनल पर आना चाहिए। तलाक को पति-पत्नी का नितांत निजी निर्णय रहने दिया जाए। नैतिकता का ढोल नहीं पीटना चाहिए। पुरुष अधिकार-महिला अधिकार की बहसों ने स्त्री-पुरुष के बीच खाई खड़ी कर दी है।

जो मुझे पता है वो आपको बता दूं कि भारत में तीन बार तलाक कह देने भर से तलाक नहीं हो जाता। क्यों इस पर बहस चल रही है? बहस करनेवालों का धर्म नहीं, सामान्य ज्ञान जांचा  जाए। कानून की आंख में बंधी पट्टी उसके कानों से होकर गुजरती है। यानी वह देखकर और सुनकर न्याय नहीं करता। उसे वाजिब तथ्य की दरकार होती है।  तीन बार तलाक सुनकर सामाजिक और धार्मिक अदालतें भी फैसला नहीं देतीं। सुनवाई हर जगह मुमकिन है।

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