Wednesday 14 September 2016

अखिलेश ने क्या बुरा किया? कोई बताए जरा



मुलायम सिंह यादव अपने भाई को ज्यादा प्यार करते हैं? अपने बेटे को ज्यादा प्यार करते हैं? अपनी पार्टी को ज्यादा प्यार करते हैं? या खुद को सबसे ज्यादा प्यार करते हैं?

समाजवादी पार्टी में एक ही नेता है, मुलायम सिंह यादव। उत्तरप्रदेश की रेलमपेल राजनीति की जड़ों में फैले परिवार के मुखिया, जिन्होंने समाजवाद और परिवारवाद के दायित्वों को हरसंभव प्रयास कर निभाया है। उन्होंने समाजवाद के भाव को भौतिक बनाते हुए उसे समाजवादी पार्टी बना दिया। परिवार के हर आदमी को काम देने की खातिर उन्होंने इस समाजवादी पार्टी में अपने हर रिश्तेदार को कुछ न कुछ बना दिया। बेटे को मुख्यमंत्री, भाई को मंत्री और कल मंगलवार को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। उनके परिवार में जिस बच्चे का जन्म अभी नहीं हुआ है, वो भी अपनी लांचिंग से पहले सपने बुन रहा होगा कि उसे कौन सा पद मिलेगा। समाजवादी यादव परिवार में पैदा होनेवाला बच्चा पहले मां..पापा.. नहीं बोलता, उसका पहला शब्द होता है 'नेताजी'। समाजवादी पार्टी असल में यादव समाज पार्टी है। सुना है उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह के आदेश पर सरकारी नौकरियांं यादवों को ही मिलती हैं। सबसे बड़े प्रदेश की राजनीति इसी तरह चलती है। वहां समाज की प्रथम इकाई परिवार को सत्ता में दाखिला दिला देने की क्षमता रखनेवाला 'नेताजी' होता है। लोग गर्व से कहते हैं नेताजी।

यह देश की सरकार तय करनेवाला प्रदेश है, जहां हिंदी अपने वास्तविक रूप में मिलती है। सपा का अंग्रेजी नाम एसपी है, खांटी उत्तरप्रदेश का आदमी कहता है - यसपी। अंग्रेजी को उसकी औकात बताई जाती है। मुलायम सिंह यादव ने एक बार संसद में हिंदी की पुरजोर हिमायत की थी। मुझे लगता है कि राष्ट्रस्तर पर वह उनका अनुकरणीय कदम था। पहलवान से नेता बने मुलायम ने अपने कट्टर समर्थकों को सरकारी नौकरियां दिला-दिलाकर पार्टी का एक स्थायी वोट बैंक तैयार किया है। भाई शिवपाल यादव ने उनका संघर्ष देखा है। सरकार बनाने की उनकी जुगत में बराबर का साथ दिया है। बेटा अखिलेश यादव अलग ही निकला। वह न तो पूरा समाजवादी है और न परिवारवादी।



उत्तरप्रदेश में यह नहीं चलेगा। समाजवादी पार्टी में यह नहीं चलेगा। नेताजी की पार्टी में स्वतंत्र सोच मान्य नहीं है। अमर सिंह मान्य हैं। आजम खान मान्य हैं। मुख्तार अंसारी मान्य हैं। स्वतंत्र सोच मान्य नहीं है।
देखिए हमारे कुछ राष्ट्रीय समाचार चैनलों की बहस। बहस का मुद्दा है- "अब नेताजी कौन सा कदम उठाएंगे! उनका निर्णय किस पक्ष में होगा! चाचा-भतीजे में नहीं पट रही। परिवार की लड़ाई का कारण हम बताते हैं!"
इन बहस कार्यक्रमों का विषय तैयार करनेवाले, इन्हें प्रस्तुत करनेवाले और इनमें बैठे वरिष्ठ पत्रकारों को उत्तरप्रदेश से मतलब नहीं है। उन्हें अपना 'मजीठिया' मिल चुका है इसलिए चाचा-भतीजे की लड़ाई में मजा आ रहा है। वे मुलायम सिंह की कर्मगाथा बयान कर रहे हैं, जैसे उन्होंने उत्तरप्रदेश को अंग्रेजों से आजादी दिलवाई हो।
एक संवाददाता कह रहा था- "अभी एक आदमी अखिलेश यादव और शिवपाल यादव से मिलेगा। उससे पता चलेगा कि आगे क्या होगा!"
क्यों भाई वो जो चाचा-भतीजा से एकसाथ मिलेगा, तुम्हारी मौसी का लडक़ा है क्या? जो दो अलग-अलग बैठे लोगों से एक ही वक्त पर मिलेगा। यहां न्यूज एंकर कह रहा है- "हां ठीक है, हमारे साथ लाइन पर बने रहिएगा। अब हम चलते हैं दिल्ली के अकबर रोड स्थित मुलायम सिंह के बंगले पर।"
वहां का संवाददाता कह रहा है-" यहां तो अंदर मुलायम सिंह यादव गायत्री प्रसाद प्रजापति से बैठक कर रहे हैं। कैमरे की मनाही है। ये वही प्रजापति हैं जिन्हें अखिलेश ने अपने मंत्रिमंडल से बाहर निकाल दिया है। "
न्यूज एंकर पूछ रहा है- "नेताजी क्या सोच रहे होंगे, पता कीजिए।"
संवाददाता कह रहा है-" जी, मैं पता करता हूं। "
क्यों भाई तुम बंगले के सीसीटीवी कैमरों का लिंक ले लिए हो क्या? मुलायम की सोच तक दिख जाएगी तुमको।


मुद्दा यह है: समाजवादी पार्टी किन तत्वों से बनी है, बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। मुलायम सिंह यादव का निर्णय सर्वमान्य होगा, बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। मुद्दा यह है कि अगर अखिलेश यादव ने बाहुबली (अपराध माफिया चलानेवाले) मुख्तार अंसारी की कौमी एकता पार्टी के सपा में विलय की खिलाफत की तो क्या बुरा किया? अंसारी ने उत्तरप्रदेशभक्ति, देशभक्ति का ऐसा कौन सा काम किया है? अंसारी अगर सबसे ताकतवर यादव परिवार में फूट पडऩे की वजह हैं तो मुलायम सिंह को संन्यास ले लेना चाहिए। शिवपाल सिंह की नजर में अंसारी वोट बैंक बढ़ाएंगे। अखिलेश मानते हैं, अंसारी जैसे अपराधजनित नेता उनकी सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाएंगे।

बिना एक क्षण सोचे, मेरे पढऩेवाले समझ गए होंगे कि कौन सही है, कौन गलत।

 शिवपाल यादव उस राजनीति के पक्षधर हैं, जिसमें जैसे भी हो, वोट मिलने चाहिए। यह उत्तरप्रदेश की बाहुबलीचरित राजनीति का सच है। आधार है। अखिलेश यादव अनुभवहीन सही, बच्चे सही, लेकिन वे इस मामले में सही है।

शहाबुद्दीन को लालू प्रसाद ने इस्तेमाल किया। आज वही लालू सफाई देते फिर रहे हैं। अंसारी कोई शहाबुद्दीन से अलग नहीं हैं। क्या उत्तरप्रदेश के नेताओं के लिए इसलिए तालियां बजती रहनी चाहिए कि वे अपराध से निकलकर राजनीति में आते हैं। मिथक है या सच कि वहां ग्राम प्रधान होने के लिए भी एक धारा 307 का केस जरूरी है। अखिलेश यादव यदि इस परंपरा की मुखालफत करते दिख रहे हैं तो वे शिवपाल और मुलायम से ज्यादा सही हैं। आरोप मढ़ा जा रहा है कि उन्हें अपनी छवि की चिंता है। अगर कोई मुख्यमंत्री अपनी पार्टी में किसी गुंडे को नहीं देखना चाहता, तो किस नजरिए से गलत हुआ?  बहस अंसारी जैसे बाहुबलियों के सीधे सत्ताधारी पार्टी में प्रवेश पर होनी चाहिए।

नेताजी का परिवार उत्तरप्रदेश को नहीं चलाता, जो उस परिवार में फूट से वहां गंगा का बहना रुक जाएगा।



Tuesday 13 September 2016

कांग्रेस नेतृत्व की प्रतिक्रियाओं से लगता है आज-कल में चुनाव होने को है.. .

देश की सबसे पुरानी पार्टी मीडिया मैनेजमेंट का अपना गुर भूल गई है। कांग्रेस का मीडिया विभाग अप्रशिक्षित और पिछले जमाने का व्यवहार करता है। हाईटेक हो रहे राजनीतिक प्रचार तंत्र में कांग्रेस चाय-समोसे के उबासी मारते ढर्रे पर कायम है। जैसे, छत्तीसगढ़ कांग्रेस में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के बाहर चले जाने के बाद एक हड़बड़ाहट दिखती है। सियासी घटनाक्रम पर प्रतिक्रियाएं इतनी तेज होती हैं मानो दो-चार दिन में विधानसभा चुनाव होने को है। कांग्रेस ने अपना शुरू किया फार्मूला ही बिसरा दिया है, जो कहता है: - राजनीति में नेतृत्व की त्वरित प्रक्रियाएं ठीक नहीं होती। (नरसिंह राव, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने सर चढ़ आए विवादों पर टिप्पणियां नहीं दी। राहुल गांधी मामूली बातों पर बरसते हैं। नतीजा सामने है।) - बगावत छोटी हो तो लीडर को ठंडा रहना चाहिए। (उत्तराखंड में हरीश रावत ने इसी तरह काम किया। स्टिंग आपरेशन में फंसने के बाद उन्होंने प्रतिक्रियाओं से दूरी बना ली। संगीन मामला दब गया। ) मैं जब बड़ा हो रहा था, राजनीति को दीवार पर लिखे नारों से समझता था। अटल सरकार के गिरने के बाद कांग्रेस ने एक नारा अपनी पहचान के रूप में अपनाया था ‘जन-जन से नाता है सरकार चलाना आता है’। परिणाम में उन्हें दस साल की केंद्रीय सत्ता मिली। अब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार के कार्यकाल के अंत में विधानसभा चुनाव के माहौल को याद कीजिए। लग रहा था जैसे जोगी की वापसी पत्थर पर लिखी अमिट इबारत है। याद कीजिए: - मीडिया तब क्या कहता था? कांग्रेस तब क्या कहती थी? और भाजपा की क्या स्थिति थी? त्वरित प्रक्रियाएं कहां थीं? - रमेश बैस कहां थे? प्रदेश में भाजपा के सबसे कद्दावर नेता होने के नाते! - रमन सिंह कहां थे? नेतृत्वकर्ता के रूप में लगभग नकारे गए भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष! - बृजमोहन अग्रवाल कहां थे? संभावित सबसे लोकप्रिय चेहरे के रूप में! - तीसरा धड़ा उस समय भी था, विद्याचरण शुक्ल के वन मैन शो वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी। नारे, प्रतिक्रियाएं, नेता और सत्ता बदलती रहती है। यह अनिश्चितता साधी नहीं जा सकती। इसे केवल और अनिश्चित बनाया जा सकता है। कांग्रेस से प्रतिक्रिया नहीं विजन चाहते हैं लोग : दिल्ली विधानसभा चुनाव में हाथ आजमाने के पहले ही प्रयास में आम आदमी पार्टी को 28 या 29 (मुझे याद नहीं) सीटें आ जाने पर राहुल गांधी ने कहा था, हम उनसे सीखने का प्रयास करेंगे। कांग्रेस ने आप को बिना शर्त समर्थन दिया। आज उसका दिल्ली में एक विधायक नहीं है, जहां उसके पास शीला दीक्षित की मैराथन पारी का इतिहास था। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस इतनी बुरी स्थिति में नहीं पहुंच सकती पर उसे सरकार बनाने का सबसे मजबूत दावा करनेवाली पार्टी भी नहीं माना जा सकता। छत्तीसगढ़ कांग्रेस के मीडिया सेल ने अपने नेतृत्व को आम लोगों के सामने रखने हाईटेक तैयारी नहीं की है, इससे शहरी वोटरों के सामने पार्टी के पास विजन नहीं होने का संदेश जाता है। गांव के मतदाता को भी अब राजनीतिक पार्टियों का क्लीयर विजन चाहिए। कांग्रेस इस मामले में सबसे पीछे है। कांग्रेस का अंदरुनी प्रबंधन इस पर काम करता नहीं दिखता। विजन क्या है: जरूरी नहीं कि पार्टी का विजन बयानों और प्रचार साधनों में साफ हो। विजन में हिडन एजेंडा (जो वोट बैंक को बढ़ाने का सबसे कारगर तरीका है) मुख्य कारक होता है। भाजपा ने लोकसभा चुनाव में अपना विजन स्पष्ट रखा। वह यह दिखाने में कामयाब रही कि युवाओं को रोजगार मिलेगा, कालेधन की वापसी होगी और घोटालों से मुक्ति मिलेगी। उसने यूपीए के मुकाबले भाजपा को अधिक मजबूत बताया। भाजपा के विजन का गुप्त एजेंडा ध्रुवीकरण था। आज छत्तीसगढ़ के स्तर पर भाजपा ने विकास और सुविधाओं के विस्तार को अपना विजन बताया है। भाजपा सरकार का कामकाज देख चुके वोटर के सामने क्लीयर है कि सत्ता पर काबिज पार्टी किस तरह के विजन की बात कह रही है। खुश रहिए कि यहां ध्रुवीकरण के समान छिपा हुआ एजेंडा नहीं है। चतुर अजीत जोगी ने भावनात्मक रूप से बाजी मार ली है। जोगी को मालूम हो गया कि छत्तीसगढिय़ावाद एक बढिय़ा मुद्दा हो सकता है। छत्तीसगढिय़ा को प्राथमिकता उनका चुनावी विजन है। वे इससे अधिक की बात नहीं कर रहे। कांग्रेस के नेतृत्व से पूछ लीजिए, उनके पास स्पष्टता-निश्चितता नहीं होगी। वे वही कहेंगे जो पिछले तीन चुनावों से कहते आ रहे हैं। आज विजन का अर्थ है , आप हमें भविष्य में क्या नया दे सकते हैं।

पंजाब चुनाव में आम आदमी पार्टी का मेनीफेस्टो दिन के सपने जैसा

 मैंने एक कहानी पढ़ी थी किसी पत्रिका में- एक किसान था, नाम था भारत। वो अपनी जमीन हर पांच साल के लिए किसी जरूरतमंद को खेती के लिए दे दिया करता था। इसके लिए वह चुनाव की प्रक्रिया काम में लाता था। भारत ने जमीन से अपने लिए कभी कुछ नहीं चाहा। यही वजह रही कि चुने हुए जरूरतमंद आकर पांच-पांच साल तक उसकी जमीन पर खेती करते रहे। भोले-भाले और बेचारे भारत की स्थिति जस की तस बनी रही। भारत अथाह जमीन का स्वामी होकर भी गरीब होकर रह गया। उसकी जमीन पर खेती करनेवाले अमीर हो गए। खेती में उसका साथ देनेवाले मजदूर भुखमरी में जीते रहे। भारत की जमीन पर खेती करनेवालों ने इस व्यवस्था को नाम दिया प्रजातंत्र।
किसान देश के सबसे उन्नत किसानों की धरती पंजाब में आम आदमी पार्टी का घोषणापत्र दिन के सपने के समान है। मेरी जानकारी में यह भारतीय अंधविश्वास है कि दिन में देखा हुआ सपना सच होता है।  हो सकता है आप भोपाल की दोपहरी में एक सपना देखें वो ढाका की शाम में सच हो जाए। लेकिन भोपाल में रहकर यह असंभव है। अरविंद केजरीवाल की पार्टी मेरी बातों से इत्तफाक नहीं रखती। उसे भारतीय अंधविश्वास पर यकीन है। जैसे न्यूज चैनल यह मानते हैं कि उन्हें देख रहा हर आदमी उनकी खबरों पर यकीन करता है।
पंजाब में मजदूरों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। आम आदमी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में वायदा किया है कि उसकी सरकार बनने पर हर गरीब को (मजदूर ही मानें) काम नहीं मिलने तक दस हजार रुपए महीना भत्ता प्रदान किया जाएगा। एक तरह से बेरोजगार पेंशन। मजदूर को काम नहीं मिलने का पैमाना कैसे तय होगा? यह आम आदमी पार्टी का घोषणा पत्र नहीं बताता। तथ्यपूर्ण पत्रकारिता के हिमायती हर सवाल पर भडक़ने को लालायित आशुतोष इस घोषणा पत्र को लिखे जाने के दौरान मौजूद नहीं रहे होंगे! वे तब संदीप कुमार के सेक्स कांड में फंसने के संबंध में एक आर्टिकल तैयार कर रहे होंगे। रहे भी होंगे। हमें उनके किसी आर्टिकल का इंतजार करना चाहिए।
यह सही है कि पंजाब में मजदूर तंगहाली में जान देने पर उतारू हैं। पर क्या उन्हें दस हजार रुपए महीने दिए जाने का लालच घोषणापत्र में शामिल किया जाना जरूरी था! एक गरीब के लिए पेंशन सिवाय रोजी-रोटी के जुगाड़ के लालच के अलावा कुछ नहीं है। यह क्यों नहीं सोचा गया कि हम सीधे काम देंगे! काम मिलने तक दस हजार देंगे, यह खुला प्रलोभन है।
- क्या आम आदमी पार्टी प्रत्येक बेरोजगार मजदूर को काम दिलाएगी? आवेदन कीजिए कि मैं बेरोजगार मजदूर हूं। आपको दस हजार रुपए मिलेंगे। (यह तो यूपीए के मनरेगा की नकल की है आप ने)
- क्या वह मजदूर को वही काम दिलाएगी जो उसे आता है?  मिट्टी का काम करनेवाला अकुशल मजदूर (मनरेगा और खेतों काम करनेवाला तबका)सीमेंट प्लांट जैसे क्षेत्रों में कौन सा काम करेगा!
- दस हजार रुपए देने का पैमाना क्या होगा? क्या अकुशल, अर्धकुशल और कुशल सभी का वर्ग एक ही होगा! इन तीन प्रकारों के मजदूरों को समान रूप से दस हजार रुपए दिए जाएंगे!
- यह कैसे तय किया जाएगा कि यह मजदूर केवल इसलिए बेरोजगार है क्योंकि इसे काम नहीं मिल रहा?  क्या पता वो काम ही नहीं करना चाहता हो? वह कुछ और करना चाहता हो।
आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र में अनेक विरोधाभास हैं। एक वायदा है- साहूकारों से किसानों की संपत्ति छुड़वाई जाएगी।  पढक़र लगता है मानो आप की पंजाब कार्यकारिणी का एक सदस्य भी किसी किसान से नहीं मिला है। केजरीवाल और उनके सलाहकारों ने मदर इंडिया फिल्म देखकर यह घोषणा लिख ली। किसान ने किन परिस्थतियों में किस तरह किसी साहूकार को, बैंक को जमीन दी थी, यह साबित करना भी मजदूर के बेरोजगार होने जैसा मसला है। प्रमाणीकरण की जरूरत पड़ेगी। फिर कागजात पर बात आएगी। कोर्ट-कचहरी होगी। राज्यपाल-केजरीवाल होगा। अजीब (नजीब के पैरेलल) जंग होगी। पंजाब में दिल्ली-दिल्ली होगा। मीडिया मजा लेगा। हम अंजना ओम कश्यप, रवीश कुमार  और सुधीर चौधरी को उनके तरीकों से झेलेंगे।
मैं अपने लिखे में पतला सा यू-टर्न लूं तो आम आदमी पार्टी की अपरिपक्वता उसकी ताकत भी है। उसके मेनीफेस्टो का असर अन्य दलों के घोषणापत्रों में साफ नजर आएगा। दूसरे दलों की तरफ से भी इस तरह के कागजी वायदे किए जाएंगे।
बात केवल आम आदमी पार्टी की नहीं है। सभी राजनीतिक दलों के मेनीफेस्टो का प्रमाणीकरण पहले होना चाहिए। मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में जाना चाहिए। निर्वाचन आयोग को एक नियम बनाने पर विचार करना चाहिए- राजनीतिक दल अपने मेनीफेस्टो में घोषणाओं के साथ-साथ उनके अमल में लाए जाने की प्रक्रिया भी स्पष्ट करें।
हवाई घोषणाओं से खुश होनेवाले हम, निराश होते हैं उनके पूरा न होने पर। जबकि हमें उनका सच मालूम होता है। मीडिया समूहों द्वारा कराए गए सर्वे कहते हैं देश में दो ही नेता लोकप्रिय हैं। मोदी और केजरीवाल। मैं बिना सर्वे के यह कह सकता हूं कि लोग निराश भी इन्हीं दोनों से अधिक हैं।
हम भारतीय ऐसे ही हैं। हमें वायदे पसंद हैं। जय जवान-जय किसान।

Thursday 8 September 2016

मैं सैलानी हूं फकीरों सा, देख लिया करो मुझे बादलों के पार.. . नदी के संग

मैं सैलानी हूं फकीरों सा, देख लिया करो मुझे बादलों के पार.. . नदी के संग


मैं बादल हूं.. . तुम नदी हो .. .मैं तरसता बादल हूं.. .तूफान के आने से डरा हुआ .. .जाने कब बह जाऊं.. . जाते-जाते जब हाथ छूटते हैं हमारे .. . दिल फंसा धक्क सा रह जाता है.. .  एक बहती हुई नदी रुक जाती है मेरे अंदर.. . मेरी परछाई चमकती है बिजली की कौंध में.. . तुम चली जाती हो तो परछाई रह जाती है.. . मैं नहीं होता.. . मुझसे दूर जाते हर कदम पर देखती जाया करो मुझे.. .नजर नहीं छूटनी चाहिए .. .

मैं सैलानी हूं फकीरों सा, देख लिया करो मुझे बादलों के पार.. . नदी के संग

देखो खिडक़ी पर अपनों से पीछे छूटा कोई बादल निकल रहा होगा.. .देखो उस बादल से मिलकर आई ठंडी हवा तुम्हारे गले को चूम रही होगी.. . देखो उन पत्तों को जो कांप रहे हैं तुमसे लिपट जाने को.. .देखो तुम कैसी लग रही हो आईने में.. .देखो दीवार पर झरना बह रहा है.. . देखो वहां एक इंद्रधनुष है.. . देखो वहां तलहटी में हम लेटे हैं किसी चट्टान पर आसमां को देखते हुए.. .. अब मेरी जान.. . देखो खिडक़ी से दूर होते अकेले बादल को.. .उसकी अपनी मर्जी नहीं है.. . तेज हवा ले जा रही है उसे तुमसे दूर

मैं सैलानी हूं फकीरों सा, देख लिया करो मुझे बादलों के पार.. . नदी के संग

मैं तुम्हें रोता हुआ दिखना चाहता हूं.. .रातों को खालीपन का दर्द फूटता रहता है मेरी आंखों से.. . बांहों में पसर आए अपने आंचल को झटको.. .मेरे आंसू निकलेंगे.. .तुम्हारे आंचल में मैंने अपने आंसू भरे हैं तुमसे छिपाकर.. .बता न सका.. .और कुछ था भी नहीं तुम्हें देने को... नींद नहीं आती मुझे .. .भले झूठा सपना हो.. .तुम आगोश में आ जाया करो.. .तुम्हारी गोद पर सर रखकर फफकना चाहता हूंं जोर..जोर से.. .तब आवाज मेरी गंूजे उमड़ते बादलों जैसी.. .किनारे तोडक़र बौराती नदी के उफान सी.. .अपनी हथेलियां भीगते तक रोने देना मुझे.. . मेरे चेहरे को सहलाती तुम्हारी ऊंगलियां नहीं रुकनी चाहिए.. . उन ऊंगलियों ने रोक रखा है मुझे.. .नहीं तो मैं गुम हो जाऊंगा.. .

मैं सैलानी हूं फकीरों सा, देख लिया करो मुझे बादलों के पार.. . नदी के संग



Wednesday 7 September 2016

आई कान्ट लिव विदाउट आईफोन


भारत सेमी अंग्रेजों का देश है। हम काले हैं, भूरे हैं, आत्मप्रशंसा से भरे हुए गोरे हैं। उतने गोरे नहीं हैं जितने कि गोरे (अंग्रेज), गोरे हैं लेकिन रिश्तेदारों-दोस्तों से गोरे हैं तो गोरे हैं। दिल से इंडियन हैं, जुबान से अंग्रेज। अंग्रेज चालू चीज थे। हमको बता गए कि अंग्रेजी नहीं बोल पाओगे तो ..घंटा.. !! घंटा बजाओगे। सामंतवादियों के आदी हम। हम हीनता को हिंदी मान बैठे और अंग्रेजी को हिमालय। हमारे आज के बच्चे ऐसी अंग्रेजी बोलते हैं जैसे लंदन में घंटा .. .बज रहा है। देखो अंग्रेजों बज रहा है तुम्हारा.. . घंटा। देखो हमारे बच्चे सेमी अंग्रेज हो गए हैं। उनके माता-पिता भी हो गए हैं। तुम यही चाहते थे। पहले पाकिस्तान अलग किया। अब हमारे बच्चों को। अॅवर किड्स को।
सेमी अंग्रेज बच्चों की लिखी पोयम की दो पंक्तियों पर (बाबूलाल) गौर फरमाइए :
अंग्रेजी... अंग्रेजी ...यस पापा
हिंदी... हिंदी ...नो  पापा
एक और है, इस पर भी गौर फरमाइए (इस बार बाबूलाल नहीं):
ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार
उसका हबी अक्षय सुपर स्टार
इन पंक्तियों को व्याकरणसम्मत नहीं पा रहे हैं? मत पाइए। आप अंग्रेजी पर आइए। अंग्रेज चले गए। अमेरिकी आ रहे हैं। उनका कोई तो मंत्री अभी दिल्ली में घूम रहा था। जाम में फंस गया था। ओह मॉय गॉड हो गया था। किसी ने सोचा था एपल बेच कर कोई बंदा दुनिया का सबसे बड़ा प्रेरक व्यक्तित्व बनेगा। हमारे यहां भी एपल बिकता है- सौ रुपए में एक किलो नहीं मिलेगा साहब। शिमला का है। नब्बे तो अपन को खरीदी लग जाता। ऊपर से माल भाड़ा ज्यास्ती।
एपलवाला- स्टीव जॉब्स। कोई ज्यास्ती नई रे बाबा। हमारे यहां तो चाय पर आकर बात खत्म। चायवाला- नरेंद्र मोदी। ज्यास्ती है रे बाबा। स्टीव जॉब्स ने बताया कि कैसे एक एपल से दुनिया बनी (एडम और ईव)और आज वही एपल (मोबाइल)दुनिया चला रहा है। महान जॉब्स चले गए। एक के बाद एक एपल आ रहे हैं।  टिम  कुक एपल को आगे ले जा रहे हैं। हम फाइव-एस खरीदने की सोच रहे हैं। ये उसके पहले ही सेवन और सेवन एस ला रहे हैं।
सेमी अंग्रेज बच्चे फिर चिल्ला रहे हैं- पापा एपल चाहिए। आईफोन सेवन यू नो। पापा कह रहे हैं- घंटा....!!!घंटाभर हुए हैं लांचिग को। इंडिया के मार्केट में आने तो दो। जाओ तब तक चेतन भगत को पढ़ो। वो नहीं मिले तो गेम ऑफ थ्रोन्स देख लेना। वो भी ना हो तो घंटा.. ...!!! घंटाभर टीवी देख कर सो जाना।
मोदी बार-बार अमेरिका जा रहे हैं। इधर विरोधी उन पर आरोप लगा रहे हैं। सातवें वेतनमान की सिफारिशों की आईफोन सेवन की लांचिंग से सेटिंग बता रहे हैं। शंका सही है। दोनों सेवन इस साल एक साथ कैसे? सातवें वेतनमान का पैसा आईफोन सेवन की खरीदी में जाएगा क्या? मोदी का अमेरिका दौरा बार-बार क्यूं? मोदी का मोबाइल कौन सा है? आईफोन है कि माइक्रोमैक्स?
टेणेन.. टेणेन.. सबसे बड़ा सवाल- क्या उनके हरिद्वार के मेले में बिछड़े भाई (जिन्होंने जरूरत से ज्यादा बड़ा हो जाने पर एक-दूसरे को दाढ़ी से पहचाना था) बाबा रामदेेव आईफोन ही चलाते हैं या पतंजलि लाएगी स्वदेशी फोन? आईफोन के पीछे दांत से कटा सेब है। उनके फोन में आधा खाया केला होगा। फोन में होंगे अस्सी प्रकार की जड़ी-बूटियों के एप। योगा करता हुआ कैमरा। दांत कैसे भी हों कैमरे में नजर आएंगे चमकीले। दंतकांति वापरें। एक बात तो हम बताना भूल ही गए। माइक्रोमैक्स के मालिक ने गजिनी की हीरोइन से शादी कर ली है। बारात का स्वागत। हंय.. सस्पेंस.. !!!!!!  टेणेन.. टेणेन.. कहीं बारात का स्वागत आईफोन से तो नहीं किया गया  होगा!!!! अरे यार अब ये बात कहां से आ गई। विषय से भटको मत।
 ठीक है..ठीक है..
सेमी अंग्रेज भारतीयों से निवेदन है कि वे अक्टूबर तक इंतजार करें। आईफोन का नया अवतार आएगा। उसके बाद आपके सारे दुख दूर हो जाएंगे। आप चैन का घंटा बजाएंगे। आप उसके नए फ्रंट एचडी कैमरे से अपनी सेल्फी लेकर लिखना- ऑवसम। माई आईफोन सेवन इज बेस्ट। आई कान्ट लिव विदाउट मॉय आईफोन।
घंटा..
अरे घंटाभर हो गया लिखते हुए। अब बंद। हम सैम के संग।

क्यों थक रहे हो



क्यों थक रहे हो
कहां पड़े हो? सिटी में। प्रेशर कुकर की सीटी में। मेट्रो में। क्यों पड़े हो? किसने कहा पड़े रहो? गांव गए हो कभी..! गाय देखी है? एकदम बिंदास किस्म की। पूंछ को इंडीकेटर बनाकर चलती है। शहर में पैदा हुए हो? यहीं मरोगे! यहां गाय नहीं देखी। उसका इंडीकेटर नहीं समझा। शहर की गाय गांव की गाय की मौसेरी बहन है। आईक्यू अलग है दोनों का। यहां की गाय जगह मिलने पर भी साइड नहीं देती। उसको शहर का ट्रैफिक पता है। वो साइड देगी। तुम अंधाधुंध हो जाओगे। गांववाली रिसपेक्ट देती है। तुम भक्त हो जाओगे। इन गायों के पापा रिश्ते में साढ़ू हैं। घूमते रहते हैं पहलवानी का गोल्ड मैडल लेकर। गांववाला सांड मस्त तगड़ा है। जाओ देखो ‘कैटल क्लास’ को। सुनकर अब भी गांव नहीं जाओगे। चलो जाओ गांव। ठीक है। आदमी देखना है। बता दें तुमको वहां आदमी ही रहते हैं। केवल आदमी।  देखना है! अभी निकलो। जाते हुए शहर को यहीं छोड़ जाना। गांव में शहरी होकर न दिखाना। तुम किसी फिल्म के हीरो नहीं हो। फुटपाथ का स्वीटकार्न खाकर हाईलाइफ जी रहे हो। तुम्हारे बाप-दादा, वो नहीं तो उनके बाप-दादा, सब गांव से शहर आए थे। झपाझप। धकाधक। तुम शहर से गांव जाओ। झपाझप। धकाधक।
क्यों थक रहे हो!
क्या कहा! तुम्हारा कोई गांव नहीं है। तुमने तालाब में भैंस को बटरफ्लाई बने नहीं देखा। शाम में नहर किनारे की बैठी हुई पंक्तियां नहीं देखी। वैसे अब बंद हो गई है बैठकी। एक बात बताओ। शिट समझते हो। समझते क्यों नहीं होगे! और बुलशिट समझते हो! तुम गांव निकल लो यू बुलशिट। सही बोल रहे हो..सवाल ये सही है। तुम वहां रुकोगे कहां? गांव में दो-चार घर यूं ही जज्बाती होकर खाली पड़े रहते हैं। सरपंच से बात-वात करके आक्यूपाई कर लेना। देख लेना उसमें कुंआ जरूर हो। इमरजेंसी में वही काम आएगा। सुबह तालाब में नहाना। बटरफ्लाई स्विमिंग विथ भैंस। मांग-वांग के खा लेना। गांव में सब चलता है। रात में पत्ते पीटना। बीड़ी फूंकना। पौव्वा मार लेना। चौपाल में दोस्त बनाकर उसके घर जाकर कस के खाना। फैल के कहीं चबूतरे पर सो जाना।
क्यों थक रहे हो!
पिया बसंती रे गाना सुना है। ये गाना डाउनलोड कर लेना। कान में इयरफोन ठूंस लेना। सुनना। ये पिया बसंती की प्रजाति शहर में नहीं मिलती। गांव में जाओ। पिया बसंती वहीं हवा में घूमती रहती है। लडक़ी नहीं है वो। उससे कम भी नहीं है। उसे छेड़ लेना। जान में जान आ जाएगी। ये क्या!! कनाट प्लेस के पालिका बाजार में खरीदा हुआ बरमूडा पैक करने की जरूरत नहीं है। वहां सब मिलेगा। गिरधारी, राजेंद्र, गुरुदेव, रहमान क्लाथ स्टोर्स में। वहां यहीं का बरमूडा जाता है। सिलाई खुले तो मुन्ना दर्जी बैठा रहता है अपने बरामदे में। दिव्या भारती और संजय दत्त की फोटो लगाए। सलमान जैसी जींस भी सीता है। सारे गांव की कहानी सुना देगा तुमको। अजनबीपन नहीं लगेगा। जाओ निकलो।


क्यों थक रहे हो!
गांव में हर चीज बड़ी खास है। वहां मेट्रो नहीं है। सिटी बस नहीं है। ये टटह..टटह..टैंपो कम रिक्शा नहीं है। ठेले नहीं हैं। ठेका नहीं है। है तो देसी है। लगा नहीं पाओगे। पौव्वा मारने की सलाह को सीरियली नहीं लेना। वहां दिन कटता नहीं। रातें लंबी होती हैं। दो-चार दिन बाद सब बोरिंग लगता है। हफ्तेभर में धीमा-धीमा सा महसूस होगा। बस बेटा!! यहीं थम जाना। जानोगे अपने अंदर को। पूस की रात को। मैला आंचल को। नोट में छपे गांधी से अलग गांधी को। वहां चौक पर बापू हैं। हंसते रहते हैं। तुम ये जो चमगादड़ का ईगो लिए फिरते हो। गांव में जाकर असली चमगादड़ देखो बेटा। तुम्हारी पहनी हुई बैटमैन की टी शर्ट और शॉर्ट्स  गीली हो जाएंगी। जब बिल्ली घप्प से तुम्हारे सामने कूदकर बाड़ी में चली जाएगी। डरने के मजे लो। शहर छोड़ दो। गांव जाओ।
क्यों थक रहे हो!




Tuesday 6 September 2016

हमारे बीच कोई जी ‘रियो’ है

reliance jio के लिए चित्र परिणाम.
(हरियाणावाले महान हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा से प्रेरित, वे तुलसी मैं उनका दास)

भाई हम बूढ़े टाइप के जवान हैं। दिमाग नोकिया है। मोबाइल सैमसंग। हम अपनी मैडम संग। हमारी मैडम यानी पत्नी। हम शादी के पहले सर हुआ करते थे। अब भी हैं। लेकिन केवल सर हैं। पहले सर सरीखे सर थे। आजकल सर..सर..हैं। क्योंकि हमारी एक मैडम है। मैडम का मोबाइल महंगा है। हम उनके मोबाइल से भी सस्ते हैं। स्मार्ट कार्ड (छत्तीसगढ़ में इलाज का खर्चा सरकारी कार्ड से होने का फार्मूला)बनवाने के इंतजार में मोबाइल स्मार्ट नहीं हो पाए। 
अब देखो मैडम को जियो चाहिए। हमसे कहा उन्होंने- हमको जियो चाहिए। हमने तनकर कहा- अब लगा कि तुम और हम एक हैं। अपनी भी यही फिलॉसपी है। जियो और जीने दो। 
पत्रकार हैं ना। फिलॉसपी जुबान के नीचे से निकलने को छटपटाती रहती है। 
मैडम चिढ़ गईं- जियो का सिम चाहिए। फोर जी है। फ्री है। तुम तो बड़ी-बड़ी बात करते हो। दिलाओ जियो। 
मैंने कहा कि मैंने तो इस हफ्ते एक ही बड़ी बात कही है। वो ये है कि सैमसंग के संग कौन था? और जब वो सैम के संग था, तो वो कौन था? आखिर सैम किसके संग था? 
मैडम भडक़ गई। कहा- मसखरी ना करो। मैंने कहा- मैं मोबाइल से डरता हूं लेकिन तुम पर मरता हूं। वो नहीं मानी। कहा-जियो चाहिए मतलब चाहिए। 
मेरा टैरिफ प्लान खत्म हो चुका था लेकिन फोन लगाना ही पड़ा। 
- कैसे पिचकारी.. जियो है बे? (पिचकारी मेरे दोस्त का नाम है। इंजीनियरिंग करने के बाद एमबीए किया। बेंगलुरु-पुणे में रहा। अब बस स्टैंड में मोबाइल कम गुटखा दुकान चलाता है। शॉप नंबर 5 में उसकी दुकान है और उसके मुंह में गुटखे की। इसलिए उसका नाम पिचकारी रखा दोस्तों ने) 
- उसने कहा यार पहले तो तुम इंट्रो में कोष्टक लगाकर इतना लंबा ब्रीफ मत किया करो। अपने में इनवर्टेड लगाते हो। देखी तुम्हारी दोस्ती। तुम लेखक क्या हुए हो दुनिया भूल गए। जियो ट्रेंड है बे। बड़े अंबानी ने फोकट प्लान वाला पुर्जा मार्केट में उतारा है। 
मैंने कहा- हमको दिलाओ एक!  उसने कहा-पता था फोकटिये। तेरे टाइप लोगों के लिए ही बड़े अंबानी ने जियो लाया है। बचा नहीं है एक भी। देखते हैं। निकला तो तुम्हारा। 
मैंने फोन काट दिया। मैसेज आया कि तीन रुपए दस पैसे कटे हैं पिचकारी से पिचपिचाने में। माथा गरम हो गया। मैंने मैडमजी को ओर प्यारभरी निगाह से देखा। कहा- हो गया जियो का इंतजाम। जियो और जीने दो। 
मैडम मेरा सच जानती थीं, कहा- कब मिलेगा? मैंने कहा- कल सुबह। 
उन्होंने पड़ताल की- किसे फोन लगाया था? मैं भरभराया - अंबानी को। बड़े अंबानी को। 
दूसरे दिन सुबह मैडम चाय के साथ अपना हैंडसेट लेकर आईं थीं, जिसके दोनों सिम बाहर थे। साफ था कि वो चाय के साथ बिस्कीट का भान देते हुए एसएमएस में शेड्यूल पूछ रही हैं- कहां है मेरा जियो?  मैंने पिचकारी को फिर फोन लगाया। उसने नहीं उठाया। दिनभर नहीं उठाया। अब तो उठा ही नहीं ‘रियो’ है। उसकी दुकान में गए। पता चला कमबख्त आ ही नहीं ‘रियो’ है। दुकान में जमानेभर के मरे हुउ सिम हैं, एक भी नहीं जी ‘रियो’ है। 
मैडम गुस्सा हैं। हफ्तेभर हो गए हमारे बीच ठन ‘रियो’ है। हमारे बीच कोई जी ‘रियो’ है। वो जियो है। हम मर ‘रियो’ है। 





Saturday 3 September 2016

तेरे वायदों पर मैंने एक किताब लिखी है

 तेरे वायदों पर मैंने एक किताब लिखी है।


मोहब्बत वायदों के बनने का नाम है। उनके बिखर जाने का भी। साथ वायदों पर टिका होता है। जानते हुए भी कि हर वायदा किसी वक्त टूट जाएगा। तूने जो वायदे किए थे मैंने उनके टुकड़े संभाल कर रखे हैं।
टुकड़ों से तेरे वायदों पर मैंने एक किताब लिखी है।
सूरज के जागकर अलसा जाने के बाद मेरी नींद खुलती है। कमरे का दरवाजा आधा खुला रहता है, जिसके बराबर की रोशनी कमरे में आती है। बाकी का कमरा उसी रंग में होता है जैसा हमारे प्यार के बाद हुआ करता था। उस रंग को मैं समझा नहीं सकता। बस, जान लो शाम सा रंग। जब सूरज संतरी होकर डूबने की कोशिश में रहता है। प्यार का हर रंग शाम सा होता है। शामें ही रातों में बदल जाती हैं। रातें चलती रहती हैं वायदों को लेकर।
उन रातों से तेरे वायदों पर मैंने एक किताब लिखी है।
 जमाने से डरा करते थे हम। पराई आंखों के घूरने से कांप जाया करते थे। रास्तों पर चलते हुए गले मिलकर रोने का मन करता था। प्यार के टूट जाने का दर्द महसूस होता था। हम फिर एक वायदा कर लेते थे,अपने प्यार को बनाए रखने की खातिर।
उन रास्तों से तेरे वायदों पर मैंने एक किताब लिखी है।
बिछड़ जाने का गम एक सदी की कयामत से ज्यादा बुरा रहा। लगता जैसे मैं किसी समंदर में डूबने की कोशिश में हूं। कमबख्त न मौत आती और न जीने का मन करता। सांसें घुटी हुईं सी अंदर-बाहर होतीं। तेरा हर वायदा तब घुटन से बाहर निकालता मुझको। 
उस घुटन से तेरे वायदों पर मैंने एक किताब लिखी है।
 वायदे रुमानी हुआ करते हैं। उनके वजूद में आने का वक्त याद नहीं रहता। टूटने की घड़ी हर वक्त सीने में अपने कांटे लेकर चलती है। दिल का टूटना इसी घड़ी की टिक-टिक का नाम होगा। हम पहले लहरों में उतरने के ख्वाब पाले बैठे थे। देखो अभी किनारों का सफर अकेले कर रहे हैं। आखिरी वायदा यही रहा कि अब के न मिलेंगे किसी किनारे।
दिल के टूटने की घड़ी से तेरे वायदों पर मैंने एक किताब लिखी है।




Friday 2 September 2016

परिभाषाओं की नैतिकता -संदर्भ: दिल्ली के मंत्री का वीडियो वायरल होना

एक मंत्री का सेक्स वीडियो वायरल हो जाना हमारी चारित्रिक नैतिकता को आइना दिखा सकता है क्या? सुविधाजनक और सोचा-समझा जवाब है ‘नहीं’। हमारे पास नैतिकता की परिभाषाएं हैं।
 दिल्ली के महिला एवं बाल कल्याण मंत्री संदीप कुमार का वीडियो रिलायंस जिओ सिम से भी अधिक मांग में है। जिन्हें यह पढक़र अपने चरित्र पर लांछन महसूस हो रहा हो वे थोड़ी देेर के लिए अपने जीवन का वीडियो जो उनकी स्मृति में अपलोड है, डाउनलोड कर लें। अपने चरित्र प्रमाण पत्र पर उनको स्वयं का हस्ताक्षर करने का मन न होगा। वीडियो देखने के तलबगार सब हैं, बस कहना नहीं चाहते। किसी व्हाट्सग्रुप के जरिए इसे पा जाना चाहते हैं। जैसे सोशल मीडिया में संदीप कुमार अब खबर नहीं हैं। उनका वीडियो मिलना-नहीं मिलना खबर है। जिसे वीडियो मिला वो दूसरों को इसे भेजकर अपनी पहुंच दिखा रहा है। यह भी एक नैतिकता है कि जो अपने पास है, उसे दूसरे को बांटो।
संदीप कुमार के लिए चित्र परिणाम

दरअसल दुनिया में कहीं सद्चरित्र होनेे का तय मापदंड नहीं है। शारीरिक संपर्कों को एक दायरे में स्वीकार लिया जाता है। बिल क्लिंटन के दोष के बावजूद हिलेरी क्लिंटन ने उन्हें स्वीकारा। आज हिलेरी दुनिया की सबसे ताकतवर कुर्सी की प्रबल दावेदार हैं। नैतिकता मानव व्यवहार का गुण है, अनिवार्यता नहीं। यह व्यवहार में लाकर नहीं, दिखाकर साबित की जा सकती है। इसलिए नैतिकता की सुविधाजनक परिभाषाएं उपलब्ध हैं। मसलन, चापलूस होना अनैतिक नहीं है। समाज के लचीले नियम में पद या पैसे के लालच में संपूर्ण व्यक्तित्व का समर्पण समझदारी है। चापलूसी को प्रायोजित करनेवाली एक परिभाषा है कि यह परिस्थिति पर निर्भर है कि कहां जमीर चाहिए, कहां आत्मसम्मान। चापलूसी खुलेआम हो तब भी यह परिभाषा लागू होती है।
ठीक इसी तरह घूस लेना नैतिकता की आर्थिक परिभाषा के अनुरूप बुरा नहीं है। गरीब के लिए यह उपहार की श्रेणी में आता है। अमीर के लिए नजराना। नैतिकता की प्रतिष्ठित परिभाषा कहती है कि पद के साथ मिली प्रतिष्ठा का धन में बदल जाना रिश्वत है। शराबखोरों के लिए बनी नैतिकता की नैनो परिभाषा कहती है कि शराबनोशी आमबात है। आदमी होश में रहे तो नशा नैतिकता के विरुद्ध नहीं है।

संदीप कुमार के लिए चित्र परिणाम

नैतिकता पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने भावुक वीडियो में कहा है ‘हमने पार्टी से एक गंदी मछली को निकाल बाहर फेंका है।’ उन्होंने मनीष सिसोदिया से कहा है कि वे (अरविंद) भी कहीं इस तरह के किसी हेय कार्य में संलिप्त दिखें तो उन्हें भी पार्टी से बाहर कर दिया जाए। कांग्रेस और भाजपा को केजरीवाल की यह घोषणा बड़े गौर से सुननी चाहिए क्योंकि उनके पास भी नैतिकता की दलगत परिभाषाएं हैं। कांग्रेस में गांधी सरनेम नैतिकता पर मुहर लगाता है। गांधी के साथ जुड़े तमाम लोग नैतिक हैं। भाजपा में तो भगवा और भगवान श्रीराम हैं, जिनकी काट नहीं हैं। राजनीतिक दलों में नैतिकता चहुंओर है, उनकी बनाई हुई अलग-अलग परिभाषाओं के मुताबिक।
तुम्हारी नैतिकता को ये वाली परिभाषा सूट करती है तो तुम इसे रख लो। समाज कुछ नहीं कहेगा। वो नैतिकता से पहले पद, पैसा और रसूख देखता है।
संदीप कुमार के लिए चित्र परिणाम


नैतिकता की सामाजिक परिभाषाओं में से एक के मद्देनजर दुष्कर्मी का विधायक बनकर मतदाता के घर आना सही है। घर की महिलाओं द्वारा आदरभाव से उसकी आरती उतारी जाती है और विधायक की नजर घर की कमसिन ‘आरती’ पर होती है।
समाज ने धर्म को स्थापित किया है। यह भी सर्वविदित है कि उस समय ही समाज ने धर्म के बीच नैतिकता को समझाने के लिए परिभाषाएं तैयार कर ली थीं। सामाजिक पदों पर प्रतिष्ठित और नैतिकता की सुविधाजनक परिभाषाओं से मान पाए हुए बहुत से महान चरित्र हर रात शराब पीकर पोर्नसाइट में दूसरों का चरित्र तलाशते हैं। दिल्ली के मंत्री संदीप कुमार का चरित्र भी इसी प्रकार का है। वे नैतिकता की परिभाषा बनाते हुए कह रहे हैं ‘मैं दलित हूं इसलिए मुझे फंसाया जा रहा है।’

Saturday 20 August 2016

केजरीवाल चाचा


भारतीय समाज चाचाओं पर बड़ा बिलीव करता है। हमारे गांव-शहर के हर दूसरे घर का पहला आदमी चाचा होता है। सारी रिश्तेदारी बेईमान, अकेले चाचा का ईमान। मैं अपने प्यारे चाचा को याद करता हुआ न्यूज चैनल खोल लेता हूं। अरविंद केजरीवाल की झलक मिल जाती है। जैसे मेरे पिताजी के चाचा नेहरू थे। मेरे टाइम में केजरीवाल उपलब्ध थे। वैसे कन्फर्म बोल-ला हूं भैय्ये (कांग्रेसी माफी दे दें) केजरीवाल का चेहरा चाचा होने के ज्यादा करीब है। चिढ़ा हुआ, सिकुड़ा हुआ, सिंका हुआ और किस्तों में मुस्कुरानेवाला आदमी चाचा होता है।
केजरीवाल को देखकर मेरे अंदर से आवाज आती है ‘रेमटा कका।’ सुडक़ू। ‘एक मंदिर के दो दरवाजा..वहां से निकले..’ वाले। इतना डिफाइन करने के बाद केजरीवाल चाचा के ‘चचत्व’ के बारे में जानकारी देना अतिआवश्यक है। उनके चेहरे पर गौर फरमाइएगा जरा। ‘दुनिया में कितना झंझट है, मुझे ही कुछ करना होगा, कैसे करुं, यहां ये ठीक नहीं होगा, वहां वो बिगड़ेगा’ की मुद्रा उन पर सर्वदा विद्यमान रहती है। टिपिकल चाचा। मान लीजिए मैं आम आदमी पार्टी में शामिल हो जाऊं। केजरी चाचा मिलें तो उनके सामने पूरे उत्साह और मनोयोग से कहूं ‘मैं पार्टी के लिए काम करना चाहता हूं।’ वो कहेंगे ‘इतना आसान नहीं है। बहुत मेहनत करनी पड़ती है। तेल निकल जाता है। चारों ओर भ्रष्टाचार फैला है। अनशन करना पड़ता है। ये लड्डू नहीं है बेटा जो गपक लिए।  रैली निकालनी पड़ती है। प्रैक्टीकल बनो।’
हो गया चाचा.. कर दी ना दिल तोडऩेवाली बात। ईमानदारी का टेंडर निकालो चाचा, हम भी फार्म भरेंगे। भ्रष्टाचार से लड़ेंगे।
 मैं केजरीवाल को तब से जानता हूं जब वे नाना अन्ना हजारे और बड़ी मौसी किरण बेदी के साथ टेंट लगाकर राजनीति में वो क्या तो है?? हां.. . जबरन-लोकपाल; न.. .ना ... जनलोकपाल लाने का भाषण उगला करते थे। मुझे आदर्श-उसूल से भरा भाषण सुनकर समझ आ गया था, ये आदमी एक दिन चाचा बनेगा। हमारे यहां रिश्तेदारी की पहचान में यही चलता है। बिजली के नंगे तारों को जोडक़र चिपकाई जानेवाली काली टेप साइज की मूंछ के अलावा पूरा चेहरा क्लीन शेव्ड। निशानी है आम किस्म का चाचा होने की। चाचा भाषण पेलू हो तो खास हो जाता है। ठीक इसी तरह जिसकी दाढ़ी उसकी छाती से मिलने को बेताब हुई पड़ी हो वो बाबा या स्वामी बनता है। ये इंडिया का फैमिली कल्चर है। सबको अपना गेटअप सेट रखना पड़ता है।
मुझे याद आता है केजरीवाल चाचा के साथ एक 'चिकनी सूरत तू कहां था.. . अब तलक ये बता...' सादा मानव बैठा रहता था। मनीष सिसोदिया। बिल्कुल ताऊ। बड़े पापा। बड़े ददा। सिसोदिया का चेहरा एकदम चमकता है। उनका फोटू देखकर मेरे सेलून साथी ने बताया ‘देखा रोज फेसियल कराने का फायदा। तुम हो कि दो सौ के नाम पर नहीं बोल देते हो।’ अरे ये दूसरे रिश्तेदारों के चक्कर में मैं कहां भटक रिया हूं। चाचा पर आ जाते हैं। चाचा केजरीवाल को खांसी है। जिस माइक पर बोलता है, उसी पर बलगम छोड़ता है। सबके चाचा खांसते हैं। जो खांसे नहीं वो चाचा नहीं। जो बिना बात डांटे नहीं, चाचा नहीं। जो नसीहत न बांटे, चाचा नहीं। जो कम नंबर आने पर डांटे नहीं, चाचा नहीं। जो क्रांतिकारी न हो वो चाचा नहीं। .. और जो अपने सारे किए-कराए का हिसाब सिर्फ चाची को ही दे..समझो यही चाचा है सही।
केजरीवाल चाचा का चश्मा उनकी शराफत, ईमानदारी और उनका पकाऊ होना बयां करता है। कसम उड़ानझल्ले की इस भले मनुष्य ने कभी रे बैन फ्रेम ट्राई ही नहीं किया होगा। चाचा को यह प्लेन-पकाऊ चश्मा ही सूट करता है। वो थकेले लगते जरूर हैं, हैं नहीं। बेचारे चाचा गलत पॉलिटिक्स में आ गए हैं। सोचकर आए थे। ‘सरदार (ओ गुरु)खुश होगा। शाबासी देगा।’ सरदार शाबासी को भी घुमा-घुमाकर देता है। चाचा का कैल्कुलेटर खराब चल रहा है। सीट नहीं गिन पा रहे। पंजाब में जनसमर्थन परखने के नाम पर कपिल शर्मा का शो देखते हैं और सोचते हैं सरदार के पास जबर्दस्त समर्थन है। केजरीवाल चाचा को चांदनी चौक रोड की हालत दिख नहीं रही और पंजाब के खेतों में कैल्कुलेटेड रिस्क उठा रहे हैं। उनका कैल्कुलेटर ससुरा चाइनीज है। भगवंत मान ने खरीदा था। वो ही संसद का वीडियो बनानेवाला मान। पहले कामेडियन था। उसको दारुबाजी के लिए बदनाम कर रखा है। ठेके पर कोई लालबत्ती रुकी नहीं कि आवाज आती है.. ‘अंदर मान बैठा है।’ मैं भी उससे मिला हूं कभी बंदे ने सामने से नहीं कहा कि भाई मैंने ढकेल रखी है। चाचा को मान के बारे में पता है। लेकिन चाचा आजकल पहले वाला नहीं रहा। चाचा एडजेस्ट करने लगा है। कुदरत का सिद्धांत भूल गया चाचा।
चाचा को जब मन का मिल जाए तो वह चाचा नहीं रहता। बाप का भी बाप हो जाता है। 
चाचा को राजनीतिज्ञ बनते देख अच्छा लगा था। नेता बनता देख बुरा लगता है। चाचा अपने लाल-नीले सरकारी मिडिल स्कूल के बच्चों जैसे स्वेटरों के बीच से गर्दन निकाले कैसा झांकते हुए जनलोकपाल-जनलोकपाल बोलता था। इधर अपन सोचते थे इसको अपने कॉलेज के लाइब्रेरियन का नाम कैसे पता! जनलोकपाल को उधर जंतर-मंतर और रामलीला मैदान बुलाकर कौन सा बुक छपवाएगा। उस टाइम कैसा चाचा टोपी में मफलर लपेटकर नीचे तक खींचता था। कैसा उसका टांग वो लाइट ग्रे ट्राउजर में झूलता था। चाचा अब भी उसी स्टाइल में डे्रस डिजाइन कराता है, ‘पण अंदर का चाचा बदल गया रे सर्किट। अंदर का चाचा बदल गया। मेरे को वो खटारा वैगन आर में नाक सुडक़ता बैठा चाचा अच्छा लगता था रे। ये इनोवा में चाचा नई जमता रे अपुन को।’
पाठकों से क्षमाप्रार्थना है। इस लेख को लिखते समय मुन्नाभाई एमबीबीएस चल रही थी। थोड़ी देर के लिए मुझमें मुन्ना आ गया था। केजरीवाल चाचा को मोदी फूफा से बैर नहीं पालना चाहिए। क्या कहा मोदी फूफा कैसे हुए? अरे हम कह रहे हैं कि हमारी कौन सी बुआ है। जो बुरा मान जाएगी। फूफा एक उपनाम है। फूफा रिश्तेदारों के बीच का डिक्टेटर होता है। बार-बार बुआ आकर समझाती रहती है ‘ तेरे फूफा बुरा मान जाएंगे, हनी सिंह का गाना धीरे बजा। लता मंगेशकर की कोई सीडी नहीं है? .. . समोसे लाया क्या? फूफाजी को इमली की चटनी पसंद नहीं। अलग से दही लाना .. . तेरे फूफा को पनियर चाय मत भिजवा देना, लाल हो जाएंगे.. . उनको सफारी पहनना ही पसंद है..उनका कहीं नाम लिखा हो तो खुश हो जाएंगे।’ मोदी का सूट देखकर फूफाजी यंू उछले थे, मानों हमारे दादा ने उनको शादी में सिंपल सियाराम कटपीस भिजवाकर अपराध कर दिया हो। रिश्तेदारी में फूफाजी स्पेशल आइटम हैं। अपने होकर भी पराए लगते हैं। पकड़-पकड़ कर बताते हैं ‘मैंने ये किया.. मैंने वो किया। देख लो मेरे गांव का हाल। विकास ही विकास है।’  विकास मेरे फुफेरे भाई का नाम भी है।
बैक टू केजरीवाल चाचा। उनकी पार्टी में एक सनकी मौसिया आया हुआ है। आशुतोष। बाल में सामने सफेदा घिस रखा है। लगता है एशियन पेंट्स का वो सामने बाल झुलाकर दीवार पोतने वाला लडक़ा बड़ा होकर पत्रकार बना और फिर बालों में सामने सफेदा रगडक़र आशुतोष। झन्नाटी सनकी है भाई वो। रिपोर्टर लोग को डांटते-डपटते रहता है। अब भी उसको लगता है कि उसका दिया हुआ असाइनमेंट पूरा नहीं हुआ। उसको बताना पड़ता है ‘ मौसा..तुम अब आईबी सेवन में नहीं हो। तुम आईबी चढ़ाए हुए लगते हो, झल्लाते हुए। छोटी मौसी को कहके तुम्हारे सामने की जुल्फों में काला कलर चढ़वाना पड़ेगा। तुम शहंशाह नहीं हो मौसा। तुम आम आदमी हो। आम आदमी डाई करता है। केजरीवाल चाचा को देखो।’
मेरे को वो स्पीच याद आ रही है चाचा। मेरी क्लास में सोशल कम पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर ने बोली थी-
ये देश स्वार्थी मानसिकताओं से भरा हुआ है। पूर्वाग्रह हमारे खून में है। हम शक करना छोड़ नहीं सकते। हमें हर ईमानदार आदमी डबल गेम खेलनेवाला लगता है। खोखला आदर्शवादी लगता है। ढोंगी लगता है। खोट हममें है। आजादी मिलने के बाद हमने अपने को पार्टियों के हवाले कर दिया। पार्टियों ने अंग्रेजों का छोड़ा हुआ सामंतवाद फैलाया। इस प्रथा का विरोध करनेवाला हमारे देश में नायक नहीं बन सकता। हमको नेता का बेटा नेता ही पसंद है। अमीर का बेटा अमीर ही पसंद है। ठेकेदार का बेटा ठेकेदार ही पसंद है। हम अपनी चाबियां पार्टियों को सौंप चुके हैं। वे हमें खोलते और बंद करते हैं। हम खुश रहते हैं कि हम उन्हें चुनते हैं। असल में उन्होंने हमारा चुनाव कर रखा है। वे हमें हमारी जाति-वर्ग, धर्म, रुझान और पैसे के हिसाब से चुनते हैं। खैर.. . उस प्रोफेसर को कॉलेज से निकाल दिया गया चाचा। छात्रसंघ चुनाव में दारु बांट रहे जिला अध्यक्ष के बेटे को उन्होंने रोका था। प्रोफेसर को सरेआम पीटा लडक़ों ने। उसका चश्मा तोड़ दिया। उसके चश्मे का टूटा फ्रेम मैंने उठा लिया था चाचा। प्रोफेसर को बचाने की हिम्मत नहीं थे मेरे में। तुम मेरे को उस प्रोफेसर की याद दिलाते हो चाचा। तुम इकलौते ऐसे हो चाचा जो हर बात को पकड़ते हो। राजनीति में यही एक गांधीवाद है चाचा। हर बात को पकडऩा। उससे होनेवाला अच्छा-बुरा देखना। धारा के विपरीत तैरनेवाला आदमी जुझारू हो जाता है। तुम जूझते रहो चाचा। अपने आसपास के माहौल को संभालो चाचा। तुम्हारी इमेज बिगड़ रही है। हम लोग को परिवारवादी नेताओं की चौखट चूमने की आदत लगी है। तुम जैसा कोई चाचा आकर कड़ाई से सही पर सबक सिखाता है। आड-ईवन मस्त है चाचा।
तुम रेयर देन रेयरेस्ट बने रहो चाचा। जब तक तुम ईमानदार हो। चाचा बने रहोगे।
पंजाब चुनाव में तुम नशे को मुद्दा बना रहे हो चाचा। मैं कहता हूं तुम ईमानदारी को पकड़े रहो। तुमको देश की जनता ईमानदार मानती है चाचा। ईमानदारी को सही पकड़े रहना।




Thursday 18 August 2016

दुनिया का सर्वाधिक लोकप्रिय शब्द


ये ‘मैं’ शब्द किसने बनाया होगा!
आदमी की अपनी आइडेंटिटी होती है। पर भी उससे सवाल पूछती है- तुम कौन हो? वो बताता है - जनाब, सर, महोदय, श्रीमान मैं, ‘मैं’ हूं।
‘मैं’ सभी का प्रिय शब्द है। मगर हर आदमी ‘मैं’ होकर भी दूसरे की नजर में केवल ‘तू कौन’ होता है? क्योंकि दूसरा भी अपने ‘मैं’ की गिरफ्त में होता है। कोशिश करें कि मैं दिनभर में ‘मैं’ नहीं बोलूंगा। कोशिश बेकार जाएगी। जुबान से नहीं पर मन में ‘मैं’ गंूजेगा। 
ऊपरवाले सर्वशक्तिमान ने पहला मनुष्य बनाया। मनुष्य ने अपने से कई और मनुष्य बनाए। और ‘मैं’ हो गया। परमपिता ने उसे ‘मय’ होना बताया था। लाइक- करुणामय, दयामय, ममतामय। स्पेलिंग मिस्टेक हो गया भगवान। मय से ‘मैं’ हो गया। नीलेआसमान के शहंशाह ने तब से बारिश ही दी। कृपा नहीं दी। विश्लेषणशील मनुष्य परेशान हो गया। एप्रोच लगाकर वो ऊपरतक पहुंचा।
ऊपरवाले ने पूछा- ‘ओए. .. तू कौन? ’
दस्तकबाज ने कहा- ‘ओजी लोजी आप ही नहीं पहचान रहे। प्रभु ‘मैं’। देखिए ‘मैं’. . आपके सामने खड़ा हूं।’
मजाक के मूड में सवाल उछालकर दुनिया के रचयिता को जवाब में जो हकीकत मिली। उससे वे भयानक आश्चर्य में आ गए। किवाड़ बंद कर वे चिंतन में डूब गए।
‘मैं’ तो इकलौता मैं ही हूं पूरे सात आसमानों में?
इसके पहले की प्रभु अपने चिंतन को कन्क्लुजन तक पहुंचा पाते। एक और दस्तक हुई। ये ठक-ठक पिछली ठक-ठक से अलग थी। ‘नया बंदा।’ प्रभु दरवाजा खोलतेे उसके पहले आवाज आई-‘ दरवाजा खोलिए दीनानाथ.. . ‘मैं’ आया हूं। ’
इनवर्टेड कॉमा के अंदर इनवर्टेड कॉमा देखकर दीनानाथ ने उस दिन जो कपाट लगाए हैं। बस अब आगे मत पूछना।
अनंतकाल के शोध के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि इंसान को ‘मैं’ बनने के लिए सबूत चाहिए होते हैं।
पहला सबूत- लक। (आप कहां और किस परिवार में पैदा होते हैं। यह तकदीर है। यू नो कुंडली, घड़ी-नक्षत्र, वगैरह। इसे कंट्रोल नहीं किया जा सकता।)
दूसरा सबूत- परफारर्मेंस। (यहां अकार्डिंग टू दी सिचुएशन वाला नियम लागू होता है।)
तीसरा सबूत- अडाप्टेशन। (इसमें वे क्षेत्र और पद आते हैं जिनके जरिए हम रोटी-चावल का इंतजाम करते हैं और इस कैटिगिरी के हिसाब से दूसरे लोग हमें स्वीकारते हैं। सिंपल है कि बेटर विन्स। मतलब कि जो ज्यादा बड़ा है वही स्वीकार्य है।)
इन तीन सबूतों के आधार पर ‘मैं’ की डिग्री प्रदान की जाती है।
उदाहरण देखिए:
 आप किसी मोहल्ले में जाएं। मोहल्ले के सारे लोग गेट पर जमा हैं। आप भीड़ में जाकर अपना परिचय देते हैं- ‘मैं.. .’
मोहल्लावासी आपसे चिपक जाने को आतुर हो जाएं तो जान लीजिए आपके ‘मैं’ में बड़ा दम है।
- ‘अरे आपको कौन नहीं जानता!’
ये ‘आपको कौन नहीं जानता’ वाला फील दुनिया में बेस्ट है। अतुलनीय।
आज के संदर्भ में कहें तो नरेंद्र मोदी या सलमान खान हो जाने वाला फील। मैं बहुत से ऐसे लोगों को जानता हूं। साधु-संतों को भी। जो ‘मैं’ को तजने कहते हैं। वे इस तरह आदेश देते हैं-
-‘मैं चाहता हूं तुम ‘मैं’ का त्याग कर दो।’
कुछ लोग इन महान मनुष्यों से बदतमीजी से पेश आते हैं।
- ‘ढोलकी के.. . मैं क्यूं ‘मैं’ छोड़ूं, तू ‘मैं’ छोड़।
महान मनुष्यों से होनेवाले इस अपव्यवहार से निराश होने की अनिवार्यता सामाजिक व्यवहार में नहीं है। ‘मैं’ को गेटआउट कह चुके लोग भी हैं दुनिया में। दुनिया ने उनके रस्ते लगा दिए यह दूसरा मसला है।
देखा जाए तो ‘मैं’ केवल कठोर नहीं होता। अहमसूचक नहीं होता। इसमें प्रेम भी होता है।
ये दो दृश्य परखिए।
क्लास की सबसे सुंदर लडक़ी को आई लव यू वाला मैसेज देने के बाद-
पहला सीन: लडक़ी- ‘किस कमीने ने यह मैसेज भेजा है?’
सन्नाटा। कोई आवाज नहीं। कोई ‘मैं’ नहीं।
दूसरा सीन: लडक़ी-‘ मैं जानना चाहती हूं कौन मेरे लिए अपनी जान तक दे सकता है।’
पूरी क्लास का एक-एक लडक़ा चिल्ला रहा होता है- ‘मैं.. . मैं..’
इस तरह से वे सभी अपने को ‘मैं’ साबित करने के लिए परफार्मेंस दे रहे होते हैं। (मैं होने का दूसरा सबूत।)
यह सच है कि ‘मैं’ से सच सामने नहीं आ पाता। सच ‘मैं’ नहीं होता। ‘मैं’ सच हो सकता है। ‘मैं’ का सच छिपाने के लिए ‘हम’ शब्द बनाया गया है।
एक टीम लीडर से पूछिए- ‘कप्तान साहब कौन है?’
गर्वभरी आवाज आएगी- ‘मैं हूं जी। ’
आप चमकाइए-‘तो काम इतना घटिया क्यों हो रहा है?’
डूबता स्वर सुनाई देगा- ‘हम कोशिश कर रहे हैं जी।’
‘मैं’ और हम में बस इतना फर्क है। बढिय़ा-बढिय़ा; ‘मैं-मैं’। बेकार-बेकार; ‘हम-हम’।
‘मैं’ को मिटाया नहीं जा सकता। 

Friday 12 August 2016

व्हाट ए इन-टॉलरेंस


शाहरुख खान के इंटरव्यूज पढ़ें तो वे विदेशी शहरों को अपनी पसंदीदा जगह बताते हैं। लंदन उनका प्रिय है। उन्होंने वहां मकान वगैरह खरीदा हुआ है। उनके बच्चे वहीं पढ़ते हैं। वे बार-बार दुबई जाते रहते हैं। अमेरिका भी निश्चित तौर पर उनको खींचता है। आज की फजीहत से पहले पिछली बार उन्हें अमेरिका के एयरपोर्ट पर घंटों बिठाया गया था। तब यूपीए की सरकार थी। उन्होंने पत्रकार से नेता और फिर केंद्रीय राज्यमंत्री बने राजीव शुक्ला को फोन कर अपनी व्यथा बताई। शुक्ला के हस्तक्षेप के बाद शाहरुख को छोड़ दिया गया। चलिए कल्पना करते हैं कि इस बार अमेरिकी इमीग्रेशन डिपार्टमेंट ने उन्हें किस तरह बिठाया होगा। शाहरुख बार-बार उन्हें कह रहे होंगे ‘‘आप गूगल कर लो। माय नेम इज खान एंड आई एम नॉट एक टेरेरिस्ट।’’ शाहरुख ने अपने राजीव शुक्ला टाइप किसी एप्रोच को फोन लगाकर मोबाइल अमेरिकी अधिकारियों को देने की कोशिश की होगी - प्लीज टॉक टू हिम.. ही विल टेल यू हू एम आई (इनसे बात कीजिए, ये बता देंगे मैं कौन हूं)। जैसे हमारे यहां रोड पर चालान कटने पर हम नेता-अधिकारी या पत्रकार को मोबाइल लगाकर हवलदार की ओर बढ़ाते हैं। अमेरिकी अफसर ने मोबाइल नहीं पकड़ा होगा। शाहरुख को इंडिया याद आया होगा। हमारे अधिकारी ना-नुकुर करते हुए भी मोबाइल लेकर बात करते हैं, चाहे सामने शाहरुख हो या समारु। तमाम भारतीय सुरक्षा विभाग सहिष्णु हैं। शाहरुख ने अपने 50वें जन्मदिन पर बड़े न्यूज चैनलों को न्योता भेजकर इंटरव्यू दिया था। जिसमें उन्होंने तकरीबन सभी पत्रकारों से कहा था ‘‘भारत में असहिष्णुता है।’’ उनकी जुबान में इन-टॉलरेंस। वे बड़े गर्व से कहते हैं कि असहिष्णुता वे नहीं बोल पाते। हिंदीभाषी देश में हिंदी फिल्मों से नाम बना चुका सितारा हिंदी के शब्द का मजाक उड़ाता है। उनकी तरह बहुत सी बड़ी हस्तियां उड़ाती हैं। रोमन लिपि में लिखी हिंदी पढ़ती हैं। इससे बड़ी सहिष्णुता दुनिया में कहीं नहीं होगी।  बड़ी हस्तियों के इंटरव्यू फिक्स होते हैं। उन्हें पहले ही बता दिया जाता है कि कौन से सवाल पूछे जाएंगे। अगर सवाल पर ऐतराज होता है तो उसे हटा दिया जाता है। इंटरव्यू के बाद भी कांट-छांट की जाती है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में यह चलन अधिक है। वरिष्ठ पत्रकार पुण्यप्रसून बाजपेयी ने केजरीवाल का साक्षात्कार लेने के बाद ऑफ द रिकार्ड जो बातें की थीं, वो वीडियो के जरिए ऑन द रिकार्ड हो गईं और बाजपेयीजी की खूब खिंचाई हुई। बाजपेयीजी के कहे शब्द ‘क्रांतिकारी..बहुत क्रांतिकारी’ आज मीडिया की बातचीत में मजाक बन गए हैं। मैंने राजदीप सरदेसाई वाला शाहरुख का इंटरव्यू देखा था। शाहरुख अपने बिंदास स्वभाववश तड़ातड़ बोल रहे थे। दूसरे दिन इनटॉलरेंस पर शाहरुख का बयान ब्रेकिंग न्यूज बन गया। सभी चैनलों पर। इसके बाद एक और गजब चीज हुई। बरखा दत्त और उनकी शैली के पत्रकारों ने शाहरुख के सपोर्ट में लेख लिखे। शाहरुख के बयान को ब्रीफ किया गया।
आज कुछ न्यूज चैनलों ने शाहरुख के साथ अमेरिकी दुव्र्यवहार पर पट्टी चलाई- शाहरुख से अमेरिका ने माफी मांगी। हमने सोचा वही पुराना मामला होगा। यह नया निकला। शाहरुख को फिर बिठा दिया गया। इस बार तो हिरासत में लिया गया, ऐसा बताया जा रहा है। शाहरुख ने ट्विट कर इसकी जानकारी दी। उन्होंने कहा ‘‘बार-बार यह होता है। इस दौरान मैं मोबाइल पर पॉकेमोन खेल रहा था।’’ उन्हें अमेरिका के असहिष्णु होने पर ट्विट करना था ‘‘अब मैं यहां नहीं आऊंगा।’’ उन्हें पॉकेमान खेलते हुए याद आया होगा कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए थे तो उन्होंने दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे फिल्म का डायलॉग अपने भाषण में इस्तेमाल किया था ‘‘बड़े-बड़े देशों में छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं।’’ शाहरुख को अमेरिकी अधिकारियों को वो वीडियो क्लिप दिखाना था। और वे बच्चों की तरह पॉकेमान खेल रहे थे जबकि अमेरिकी उनके स्वाभिमान से खेल रहे थे। उन्हें पिछली बार संकट से निजात दिलानेवाले राजीव शुक्ला इस बार मदद नहीं कर पाए। सो कह रहे हैं कि अमेरिका को अपना कंप्यूटर रिकार्ड दुरुस्त करना चाहिए। अब देखिए एक और करामात। कुछ चैनलों ने किस तरह खबरों को पलटा। पहले बताया- अमेरिका ने शाहरुख से माफी मांगी। फिर बताया - शाहरुख को यूएस के इमीग्रेशन दस्ते ने हिरासत में ले लिया था। अंत में बताया -भारत में अमेरिका के राजदूत रिचर्ड वर्मा ने मामले में खेद जताया है।
खेद और माफी में फर्क है। स्पष्ट करें कि यह माफी है अथवा केवल खेद।
आज की खबर से शाहरुख विरोधी खुश हो रहे होंगे। उन्हें खुश होने से पहले मोदीजी को वीजा नहीं दिए जाने के अमेरिकी फैसले के बीते दिन याद करने चाहिए। इस दौर के हमारे महानायक स्व. एपीजे अब्दुल कलाम के साथ अमेरिकी एयरपोर्ट में हुआ अपमानजनक बर्ताव याद करना चाहिए। शाहरुख देश के लिए इतने महत्वपूर्ण शख्स नहीं हैं कि उनके साथ हुआ बर्ताव देश की अस्मिता से जोड़ा जाए। मोदीजी और शाहरुखजी में एक बड़ी समानता है। अमेरिका ने उनके साथ पहले जो भी किया हो, वे वहां जाने के नाम पर खुश हो जाते हैं। व्हाट ए इन-टॉलरेंस।

Wednesday 10 August 2016

अमेरिका, चीन और शोभा डे बिजनेस पॉलिसी में लगे हैं..और हम दूसरे देश की दाल ढूंढ़ रहे !!


ओलंपिक में भारत के हमेशा की तरह बुरे हाल पर शोभा डे का बयान उतना बुरा नहीं है जितना कि हमारे खिलाडिय़ों का प्रदर्शन। फिल्मी सितारों के बारे में लिखकर खुद एक सेलिब्रिटी बन गईं शोभा डे ने भारतीय खिलाडिय़ों के रियो जाने को एक मुफ्त की तफरीह करार दिया है। उन्होंने भारतीय ओलंपिक दल के ऊपर हुए खर्च को बर्बादी कहा है।  शोभा डे को जो लोग जानते हैं, या जिन्होंने उनको पढ़ा है (जिनमें मुझ जैसा गरीब भी शामिल है जिसने आज तक कोई पेज थ्री पार्टी नहीं देखी) जानते हैं कि वे अंदर की खबर रखती (तथ्य उनकी खबरों में नहीं होते)हैं। फिल्मी जीवन पर एक तरह से खोजी खबरों की फाउंडर वे ही हैं। फिल्मी सितारों के जीवन पर हम भारतीय फिदा हैं। शोभा डे ने नपी-तुली व्यावसायिक पत्रकारिता करते हुए फिल्मी सितारों की महंगी पार्टियां अटैंड कर अंदर की सूचनाएं निकालीं। फिल्मी सितारों का पब्लिक रिलेशन (पीआर) मेंटेन करने कंपनियां बनाने का आइडिया शोभा के खबरनुमा आर्टिकल्स से ही आया होगा। देखा जाए तो फिल्म इंडस्ट्री में पर्सनल पीआरशिप के बिजनेस को उन जैसे पत्रकारों की कलम ने खड़ा किया। वे स्वयं सेलिब्रिटी बन गईं। उनकी बातें ही खबरें होने लगीं। किसी पत्रकार का खुद खबरों का केंद्र हो जाना मिथक तोडऩे से भी बड़ी उपलब्धि है। शोभा डे ने अभी तक जितनी फिल्मी पार्टियां अटैंड की हैं, उनमें खर्च हुआ पैसा उतना नहीं होगा जितना अभी हमारे ओलंपिक दल के ब्राजील जाने पर लगा है। मैंने बिना रिसर्च के यह बात कही है, कौन सा शोभा डे यहां मेरा ब्लॉग पढऩेवाली हैं! तो शोभा डे की विराटता का यह एक बहुत मामूली परिचय देने के बाद मैं मुद्दे पर आता हूं। ओलंपिक खेलों के इतिहास में किसी भारतीय ओलंपिक दल ने वाकई में हमारी विशालता के अनुरूप खेल नहीं दिखाया। हमारा ज्ञान तो ओलंपिक के मुख्य खेलों को लेकर इतना कम है कि हमने दीपा कर्माकर के वॉल्ट इवेंट फाइनल में पहुंचने पर ही उन्हें गोल्ड मैडल दिला दिया। फेसबुक और ट्विटर पर उन्हें देश की नई गौरव बताया जाने लगा। हुआ यह था कि दीपा का नंबर वहां इलेक्ट्रिक बोर्ड पर दिखाया गया। सबसे ऊपर। तब वे फाइनल में पहुंचने के लिए मुकाबला कर रही थीं। इतने से ही खुश होकर हमारे सोशल खेल पत्रकारों ने खबरें चला दीं। बिल्कुल उसी तरह जैसे शोभा डे फिल्मी सितारों की खबरें छापा करती थीं। मायापुरी जैसी सस्ती पत्रिका पढऩेवाले उनके फिल्म फेयर के आर्टिकलों को नहीं पढ़ पाए, नहीं तो जानते कि उनकी खबरों को पुष्ट करनेवाला नहीं होता था।  उन्होंने रितिक रोशन और करीना कपूर के साथ हवाई यात्रा की। प्लेन में उनके आगे रितिक और करीना बैठे थे। शोभा डे की सिक्स्थ सेंस इतनी पैनी है कि उन्होंने पीछे की सीट से ही आगे रितिक और करीना के बीच जो हो रहा था उसे महसूस कर लिया। उन्होंने तुरंत एक आर्टिकल लिख दिया कि रितिक और करीना में अफेयर चल रहा है। इसके बाद से रितिक ने करीना के साथ फिल्म नहीं की। जो फिल्में आईं वे रितिक ने इस खबर के हवा में आने से पहले साइन कर रखी थीं। करीना-रितिक के अफेयर को नकारा भी नहीं गया।  वे इस तरह की दिव्यदृष्टि रखती हैं। इसलिए भारत के ओलंपिक खिलाडिय़ों को अपमानित करनेवाली उनकी टिप्पणी को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। वे सुधार की बात कह रही हैं। भारत में खेलों की व्यवस्था को समझनेवाले उनकी टिप्पणी से उबाल खाने की बजाय हमारे खेल संगठनों को कोसें। खेल में मुख्यत: दो तत्व काम करते हैं- तकनीक और मानसिकता। अमेरिका अपनी मानसिकता से जीतता है। उसके जानदार तैराक माइकल फेलप्स इसका उदाहरण हैं। वे 31 की उम्र में अपेक्षानुरूप प्रदर्शन कर रहे हैं। यह तैराकों के रिटायरमेंट की उम्र होती है। आस्ट्रेलिया के महान तैराक इयान थोर्प आज कहां हैं? पता नहीं। वे भी फेलप्स होते किंतु उनकी मानसिकता अमेरिकी नहीं थी। वे अपने समलैंगिक होने और डिप्रेशन में चले जाने जैसे अनचाही खबरों से जूझते हुए रिटायर हो गए। फेलप्स भी बदनामी और नशेड़ी होने की बदनामी से दो-चार हुए। उनके देश की स्पोर्ट्स कम बिजनेस पॉलिसी ने उन्हें अकेला नहीं छोड़ा। दूसरी ओर चीन तकनीक पर काम करता है। चीन की मानसिकता वैसे भी अन्य देशों से श्रेष्ठ होने की है। इसलिए विश्व की दो सबसे प्रभावी आर्थिक और सामरिक शक्तियों के बीच ही आज ओलंपिक खेलों की मुख्य लड़ाई है। रूस का रिक्त स्थान चीन ने भर दिया है। चीन आधुनिक साम्यवादी देश है जो वस्तुत: पूंजीवाद का पालन करता है।
इस मापदंड पर भारत को खेलों की विश्व शक्ति बनने में अभी लंबा समय  है। हमारे पास जुगाड़ की तकनीक है। इसलिए ही एथलेटिक्स में हम पिछड़े हैं। दूसरे देशों की तकनीक हमारे लिए काम की नहीं। हर देश का अपना स्वभाव होता है, खेलों की तकनीक उस स्वभाव के हिसाब से तैयार होती है। चीनी मार्शल आर्ट्स  में माहिर हैं , उन्होंने खेल में इसे ही अपनी तकनीक बना लिया। देखिए चीन कोसों आगे निकल गया। भारत को अपने देश की तकनीक पर ध्यान देना चाहिए। हमारे खिलाड़ी देशी कोचेस से प्रशिक्षण पाकर नेशनल रिकार्ड बनाते हैं। नेशनल लेवल पर आने के बाद उन्हें एक परंपरा के तहत कोचिंग के लिए विदेश भेज दिया जाता है। विदेश से आकर वे उस लेवल का फरफार्मेंस भी नहीं दे पाते जितना उनका नेशनल बेस्ट होता है। हमारे खेल संचालकों ने अपने ही देश में तकनीक नहीं तलाशी। दक्षिण भारत, विशेषकर केरल में देशी तकनीक उपलब्ध है। मुझे ठीक-ठीक नाम नहीं पता पर वे चीनी मार्शल आर्ट्स के बराबर हैं। उदाहरणार्थ महाराष्ट्र में सम्मान रखनेवाली मल्लखंभ तकनीक पूर्णत: भारतीय है। इसे जिमनास्ट में असरकारक रूप से इस्तेमाल करने में हम असफल रहे। हम फॉलोवर ही रह गए। देशी तकनीक से ही जीतने की मानसिकता का जन्म होता है। हमारे पास जो है-उनके पास नहीं, वाला मानसिक बल। जमैका के उसैन बोल्ट को लीजिए। वे अमेरिका के आधिपत्यवाली फर्राटा रेसों के बादशाह हैं। वे अपने कोच को अपनी सफलता का श्रेय देते हैं । एक जमैकन जब अमेरिका के दंभ को हरा सकता है तो हम भारतीय क्यों नहीं? जमैका के बराबर तो हमारा नया राज्य तेलंगाना है।
आलोचना पर हम शोभा डे को अपशब्द कहने लग जाते हैं। खेल संगठनों और इन्हें पोषित करनेवालों को रियायत देते हैं। खेलों से हमारी सोच नहीं मेल खाती। हम राजनीति में माहिर हैं। शोभा डे भी। इधर-उधर। टांग खिंचाई। क्षेत्रीयता, धर्म, समाज, जाति। सोच हमारी यहीं तक सिमटकर रह जाती है। दीपा कर्माकर अगर 14 अगस्त को गोल्ड जीत लाती हैं तो इसे भाजपा सरकार अपनी उपलब्धि बताएगी।  पहलवान नरसिंह को पदक मिलने पर इसका श्रेय खेल मंत्रालय ले लेगा। कहेगा- देखा इस पर डोपिंग का संगीन इल्जाम लगा था, हमने कहा, नहीं ये देशभक्त है, इसे ओलंपिक में जाने से कोई नहीं रोक सकता। पदक नहीं मिला तो कहेंगे- क्या करें प्रेशर था।
 पदक लानेवाले खिलाड़ी अगले पांच से दस सालों में राजनीति में चले आएंगे। राज्यवर्धन सिंह राठौर की राह पर। ओलंपिक कमेटी में वही लोग आते-जाते रहेंगे जो अमेरिका और चीन के एथलीट्स के अलौकिक होने की बात कहते हैं। नरेंद्र मोदी ने व्यापारिक राजनीति के एजेंडे को सक्रिय करते हुए मेक इन इंडिया प्रोग्राम चलाया है। वे अगर अपनी हवाई यात्राओं और फॉरेन अफेयर्स टीम का खर्च मिलाएं तब भी शोभा डे की तरह ओलंपिक दल से आगे ही रहेंगे। मतलब कि मोदीजी की हवाई यात्राओं का व्यय ओलंपिक दल पर लगाई रकम से कम होगा। मोदीजी ने कभी अमेरिका, चीन, आस्ट्रेलिया और रूस की खेल नीति पर गौर नहीं किया है। इन राष्ट्रों की खेल नीति ही उनका -मेक इन प्रोग्राम- है। वे खेलों से दूसरे देशों को प्रभावित करते हैं। चाइना का नाम पदक तालिका में ऊपर देखकर ही निवेशक आकर्षित होते हैं। अमेरिका अपना व्यापार खेलों से फैलाता है। खेलों का सामान बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी नाइकी (हमारे देश में इसे नाइक कहा जाता है) अमेरिका की है। भारतीय क्रिकेट टीम की जर्सी वही तैयार करती है। इसके लिए वो बीसीसीआई को मुंहमांगी रकम देती है। बदले में एशिया को सबसे लोकप्रिय खेल सितारों की छाती पर राइट का निशान नजर आता है। इससे अच्छी बिजनेस पॉलिसी क्या हो सकती है। हम तो नाइकी और एडिडास के इतने मुरीद हैं कि अगर उसके स्पोट्र्स शूज फार्मल पार्टी में भी पहनकर चले जाएं तो उद्धृत करना नहीं भूलते कि नाइकी का है..एडिडास का है।
तात्पर्य है कि ओलंपिक की पदक तालिका से देश की ब्रांडिंग होती है। उसकी अर्थव्यवस्था परिभाषित होती है। हमारा खेल मंत्रालय एक सफेद हाथी है। जिसने आज तक हमें विवादों के पदक परोसे हैं। मोदीजी एक ही वक्त में अनेक काम करने की कोशिश में लगे हैं। वे केवल तीन या चार क्षेत्रों पर फोकस करें तो सुधार संभव है। खेल इनमें से एक होना चाहिए। हमें खेलों पर एक लांग टर्म प्लान बनाना चाहिए। खिलाड़ी बनोगे, एक नेशनल खेलोगे और सरकारी नौकरी मिल जाएगी, के स्पोट्र्स स्ट्रक्चर को तोडऩा होगा। आप खिलाड़ी हैं तो खेल ही खेलें। नौकरी न करें। खर्चा सरकार उठाएगी। लौटते हैं शोभा डे पर। उनका भी बिजनेस चौपट हो गया है। पेज थ्री पार्टीज से निकलनेवाली खबरें अब पीआर कंपनियां जेनरेट करती हैं। हर कंपनी के पास अपनी शोभा डे है। विवादित खबरों से सेलिब्रिटी बनी शोभा डे को अपना यह स्टेट्स बनाए रखने की आवश्यकता है। वे ओलंपिक दल को निशाना बनाकर नई शुरुआत कर रही हैं। मोदीजी को भी व्यक्तिगत आकांक्षाएं त्याग देनी चाहिए। मुझे बार-बार यह लगता है कि वे कहीं शांति के नोबेल का प्रयास तो नहीं कर रहे (पाकिस्तान के सामने उनकी कमजोरी यही बयां करती है)। मेक इन इंडिया की उनकी यात्राओं से इतना ही फायदा हुआ है कि हम उन देशों से ऐतिहासिक बिजनेस कर रहे हैं जो ओलंपिक में हमारी तरह दो-चार पदक लेकर आते हैं। जहां से दाल आनेवाली है ,उस देश का नाम क्या है? पता करना हो तो ओलंपिक चार्ट में भारत का नंबर खोजिए उस देश का नाम पास ही लिखा होगा।

Saturday 6 August 2016

ज़्यादा हरा मुल्क 3 ( अंतिम)


 ज़्यादा हरा मुल्क ३ ( अंतिम)


 5


आतंकियों को मुर्दा देखने से सौ गुना बेहतर उनका जिंदा पकड़ा माना जाता है। अमानत के पकड़े जाने की खबर अंदर ही रखी गई। स्पेशल आपरेशन टीम के चुनिंदा सदस्य ही इस बारे में जानते थे। बल्देव सिंह उनमें से एक था। अमानत को मीडिया से बचाकर रखने की जिम्मेदारी उसकी थी। बंद कमरे में सीएफल को तिरछा लटकाया गया था। रोशनी दीवार में आ रही थी। केंद्र में अमानत था।
उसे बांधा नहीं गया था। उसके हाथ कुर्सी से नीचे झूल रहे थे, जिनमें पट्टियां बंधी थीं।
बल्देव सिंह ने सवालात शुरू किए ‘तूने कलाई चाक्क ली..साइनाइड कैप्सूल नहीं खाया..बाम्ब से नहीं उड़ाया ..गोली नहीं मार ली’
अमानत मरी हुई आवाज में बोला  ‘भूख लगी है जी..खाने को दे दो। ’ 
उसकी कटी कलाई से काफी खून बह चुका था। जिस्म में हरकत नहीं बची थी। कर्नल ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसे रसीद किया ‘तू हमें मारे, हम खाना दें।’
अमानत फरियाद करता हुआ बोला ‘ आपका ’ ज़्यादा हरा मुल्क है जी.. हमारे यहां तो सैलाब आ जाता है। खाना दे दोगे जी..सब बता दूंगा..’
- ‘ खाना खाने आया है यहां! उमर दस्स तेरी?’
- ‘ उमर ..शोला..’
- ‘ शोला! ओ.ओहो. सोल्ला। इत्ती कम उमर।’
- ‘ नाम बोल?’
- ‘ एफ  फोर..अमानत।’
बल्देव सिंह अपने तजुर्बे को इनफारमेशन निकालने का औजार बनाकर अमानत से पूछताछ करने लगा।
अमानत ने बताया कि उसका बाप बेकरी चलाता था। चार भाई थे और एक बहन। अम्मी बीमार रहती थी। सूबे की बाढ़ अब्बू को ले गई। बेकरी का काम नहीं संभला। तीनों भाइयों का निकाह हो गया था। अब्बू की गुमशुदगी के बाद सब अलग-अलग रहने लगे। बहन के निकाह के वक्त बाजार में गोलियां चल गईं। बहन भी गुजर गई। अम्मी का जिम्मा अमानत पर आ गया। अमानत को पैसे एक ही जगह से मिल सकते थे। ट्रेनिंग कैंप।
कैंप पहुंचा तो उसने जाना कि सैलाब को पड़ोसी मुल्क ने साजिशन उसके सूबे में भेजा था।
 अब्बू को इंसाफ जेहाद से मिल सकता था। 
अमानत कैंप में रहने लगा। अम्मी से मिलना नहीं हो पाता था। उसके गांव से आए एक लडक़े ने बताया कि अम्मी को कैंप चलाने वाले मौलाना के आदमियों ने पैसे नहीं भिजवाए थे। उसने मौलाना के बंदों से पैसे मांगे। बंदों ने कहा- अम्मी को पैसे चाहिए या अब्बू के लिए इंसाफ।
बल्देव सिंह ने घुमा-फिराकर बीसियों सवाल कर लिए। अमानत ने ऐसा कुछ नहीं बताया जो इतने दिनों की फौजी नौकरी में उसे नहीं पता हो। सारे घुसपैठिए आतंकी तकरीबन एक सी जानकारियां देते हैं। घंटेभर हो चुके थे। रात के दस बजने लगे। बल्देव सिंह का मोबाइल बजा। जाने से पहले उसने अमानत से सबसे महत्वपूर्ण सवाल किया  ‘तूने गोलियां क्यों नी चलाई हमारे सिपाहियों पर ’
- ‘ मुझे अम्मी के पास जाना था।’
- ‘ तो कलाई किसलिए कट्टी?’
जवाब नहीं मिला। अमानत बेहोश हो चुका था।
घंटेभर बाद बल्देव सिंह अपना टिफिन लेकर कमरे में ही आ गया। पंजाबी खाने की खुशबू फैल गई। बल्देव ने हाथ का कड़ा ऊपर कर सरदारों के विशिष्ट अंदाज में रोटी को तोड़ा। उसने अमानत की तरफ देखा जिसका शरीर हिल रहा था। वो बेहोशी और होश के बीच में लटकी आंखों से टिफिन को देख रहा था। बल्देव सिंह उठकर उसके पास गया। उसने कुर्सी से बाहर झूलते अमानत के हाथों हवा में उठाकर छोड़ दिया। अमानत के हाथ झट से नीचे गिरे और पहले की हालत में झूलने लगे। बल्देव सिंह ने अपना टिफिन रखा स्टूल उस तक खींच लिया।
उसने रोटी का टुकड़ा आलू-मेथी की सब्जी में लपेटा और अमानत के मुंह में डाल दिया।

                                            ............समाप्त ...............



(अमानत मरा, जिन्दा रहा ! बल्देव सिंह ने उसके साथ आगे क्या किया! यह कहानी का हिस्सा हो सकता था मगर अंत यही है। यहां मुल्कों का फर्क है।  अमानत पाकिस्तान की सूरत है और बल्देव सिंह भारत की। फर्क भूख और रोटी का भी है।)



ज़्यादा हरा मुल्क 3 ( अंतिम)


 ज़्यादा हरा मुल्क ३ ( अंतिम)


 5


आतंकियों को मुर्दा देखने से सौ गुना बेहतर उनका जिंदा पकड़ा माना जाता है। अमानत के पकड़े जाने की खबर अंदर ही रखी गई। स्पेशल आपरेशन टीम के चुनिंदा सदस्य ही इस बारे में जानते थे। बल्देव सिंह उनमें से एक था। अमानत को मीडिया से बचाकर रखने की जिम्मेदारी उसकी थी। बंद कमरे में सीएफल को तिरछा लटकाया गया था। रोशनी दीवार में आ रही थी। केंद्र में अमानत था।
उसे बांधा नहीं गया था। उसके हाथ कुर्सी से नीचे झूल रहे थे, जिनमें पट्टियां बंधी थीं।
बल्देव सिंह ने सवालात शुरू किए ‘तूने कलाई चाक्क ली..साइनाइड कैप्सूल नहीं खाया..बाम्ब से नहीं उड़ाया ..गोली नहीं मार ली’
अमानत मरी हुई आवाज में बोला  ‘भूख लगी है जी..खाने को दे दो। ’ 
उसकी कटी कलाई से काफी खून बह चुका था। जिस्म में हरकत नहीं बची थी। कर्नल ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसे रसीद किया ‘तू हमें मारे, हम खाना दें।’
अमानत फरियाद करता हुआ बोला ‘ आपका ’ ज़्यादा हरा मुल्क है जी.. हमारे यहां तो सैलाब आ जाता है। खाना दे दोगे जी..सब बता दूंगा..’
- ‘ खाना खाने आया है यहां! उमर दस्स तेरी?’
- ‘ उमर ..शोला..’
- ‘ शोला! ओ.ओहो. सोल्ला। इत्ती कम उमर।’
- ‘ नाम बोल?’
- ‘ एफ  फोर..अमानत।’
बल्देव सिंह अपने तजुर्बे को इनफारमेशन निकालने का औजार बनाकर अमानत से पूछताछ करने लगा।
अमानत ने बताया कि उसका बाप बेकरी चलाता था। चार भाई थे और एक बहन। अम्मी बीमार रहती थी। सूबे की बाढ़ अब्बू को ले गई। बेकरी का काम नहीं संभला। तीनों भाइयों का निकाह हो गया था। अब्बू की गुमशुदगी के बाद सब अलग-अलग रहने लगे। बहन के निकाह के वक्त बाजार में गोलियां चल गईं। बहन भी गुजर गई। अम्मी का जिम्मा अमानत पर आ गया। अमानत को पैसे एक ही जगह से मिल सकते थे। ट्रेनिंग कैंप।
कैंप पहुंचा तो उसने जाना कि सैलाब को पड़ोसी मुल्क ने साजिशन उसके सूबे में भेजा था।
 अब्बू को इंसाफ जेहाद से मिल सकता था। 
अमानत कैंप में रहने लगा। अम्मी से मिलना नहीं हो पाता था। उसके गांव से आए एक लडक़े ने बताया कि अम्मी को कैंप चलाने वाले मौलाना के आदमियों ने पैसे नहीं भिजवाए थे। उसने मौलाना के बंदों से पैसे मांगे। बंदों ने कहा- अम्मी को पैसे चाहिए या अब्बू के लिए इंसाफ।
बल्देव सिंह ने घुमा-फिराकर बीसियों सवाल कर लिए। अमानत ने ऐसा कुछ नहीं बताया जो इतने दिनों की फौजी नौकरी में उसे नहीं पता हो। सारे घुसपैठिए आतंकी तकरीबन एक सी जानकारियां देते हैं। घंटेभर हो चुके थे। रात के दस बजने लगे। बल्देव सिंह का मोबाइल बजा। जाने से पहले उसने अमानत से सबसे महत्वपूर्ण सवाल किया  ‘तूने गोलियां क्यों नी चलाई हमारे सिपाहियों पर ’
- ‘ मुझे अम्मी के पास जाना था।’
- ‘ तो कलाई किसलिए कट्टी?’
जवाब नहीं मिला। अमानत बेहोश हो चुका था।
घंटेभर बाद बल्देव सिंह अपना टिफिन लेकर कमरे में ही आ गया। पंजाबी खाने की खुशबू फैल गई। बल्देव ने हाथ का कड़ा ऊपर कर सरदारों के विशिष्ट अंदाज में रोटी को तोड़ा। उसने अमानत की तरफ देखा जिसका शरीर हिल रहा था। वो बेहोशी और होश के बीच में लटकी आंखों से टिफिन को देख रहा था। बल्देव सिंह उठकर उसके पास गया। उसने कुर्सी से बाहर झूलते अमानत के हाथों हवा में उठाकर छोड़ दिया। अमानत के हाथ झट से नीचे गिरे और पहले की हालत में झूलने लगे। बल्देव सिंह ने अपना टिफिन रखा स्टूल उस तक खींच लिया।
उसने रोटी का टुकड़ा आलू-मेथी की सब्जी में लपेटा और अमानत के मुंह में डाल दिया।

                                            ............समाप्त ...............



(अमानत मरा, जिन्दा रहा ! बल्देव सिंह ने उसके साथ आगे क्या किया! यह कहानी का हिस्सा हो सकता था मगर अंत यही है। यहां मुल्कों का फर्क है।  अमानत पाकिस्तान की सूरत है और बल्देव सिंह भारत की। फर्क भूख और रोटी का भी है।)



ज्यादा हरा मुल्क 2

jyada hara mulk part 2      ज्यादा हरा मुल्क  2                                                      

 

 


खाना खत्म हुआ। पीठ में बैग बांधकर चारों सावधानी से खड़े होने लगे। इस कोशिश में अमानत पीठ के बल पलटी खाता हुआ गिर गया। उसके पैर हवा में आ गए।
एफ-वन ने उसके कूल्हे पर चिढ़भरी ठोकर लगाई ‘गलती कर दी तुझे लाकर।’
अमानत ने उसे अपना दम दिखाते हुए पैर जमाए और सट से उठ खड़ा हुआ। इससे उसकी एके-47 लबादे के अंदर से नीचे सरक गई और उसके पंजों में सीधी आ गिरी। दमदारी दिखाता अमानत शर्मिंदा हो गया।
एफ-वन की सुर्ख आंखें फैलने लगीं। गुस्सा निगल जाने की कोशिश में चेहरे की नसों में इतना तनाव आया कि नकाब का काम कर रहा मफलर खुल गया। उसकी आंखें सुर्ख होने के साथ-साथ हल्की पीली थीं, जो बता रहीं थीं कि उसे नींद नहीं आती। चेहरा बिखरी हुई दाढ़ी से भरा हुआ था।
उसने थूक निगलते हुए खुद पर काबू पाया और बाएं हाथ को कमर से आगे फेंककर चलने का इशारा दिया।
खेत में खड़ी फसल के बीच कमर से नीचे तक झुककर चारों आगे बढऩे लगे। उनका पहला पड़ाव दरिया का किनारा था। छोर के खेत की मेड़ से दस कदम की दूरी पर दरिया का बहाव था। खेत और दरिया के बीच संकरी नाली बनी हुई थी। खेतों का अतिरेक पानी उससे बहकर दरिया में जाता था। चारों उस नाली के पास बिना रुकावट पहुंच गए। अमानत के खाली पेट से आवाज निकली-
टूंऊऊऊऊऊऊऊऊ..ट्वें..
एफ-वन ने उसे हिकारत से घूरा ‘ खाकर नहीं आया हराम..गोलियों का पट्टा कस ले..तेरे गुर्दों की आवाज काफिरों को हमारे पास बुला लेगी..’
नाली में उन्हें डेढ़ सौ मीटर दूर सडक़ तक उसी तरह सरकना था जैसा उन्होंने सुरंग में किया था। चारों अपने-अपने कोड नेम के क्रम में लेट गए। नाली का पानी और पतला कीचड़ अमानत की नाक में भरा जा रहा था। कैंप में उसे पानी में नाक डालने की ट्रेनिंग नहीं मिली थी। अमानत की नाक से बुलबुले छूटने लगे। बुड़बुड़़ होने लगी। आगे से एफ-थ्री ने उसे नाक और चेहरे को हथेली से ढंकना बताया। अमानत को राहत मिली। मगर अब भी अंतडिय़ां उसे बैचैन कर रही थीं। उसी पल उन्हें नाली में घिसटना बंद करना पड़ा। पुलिया के ऊपर बख्तरबंद गाड़ी आकर रुकी, जिसमें से दर्जनभर जवान कूदे। उन्होंने टार्च लगे हेल्मेट पहन रखे थे। हाथों में एके-103 थी। जवान अत्यधिक सतर्क थे। उनके बूटों की धमक अमानत को पास आती सुनाई देने लगी।
किसी का निर्देश फैलाता भारी स्वर बता रहा था कि फोर्स को खबर हो चुकी है ‘खेत की सुरंग सियारों का काम नहीं है। इंटेलीजेंस से मिली टिप सही है। दूर नहीं गए होंगे वो।’
अगुवाई कर रहे एफ-वन ने खास हल्के तरीके से पैर हिलाया। इससे पानी की सतह में हल्की हलचल हुई। यह हमले का इशारा था! क्योंकि अब बचने का मौका नहीं था। चारों को एक साथ उठ खड़े होकर फोर्स के जवानों पर गोलियां चलानी थीं। 
अमानत को ट्रेनिंग कैंप में आए बड़े पेट वाले लीडर महमूद की बात याद आई। महमूद ने उसकी उम्र के सारे लडक़ों के कांधों में हाथ रख-रखकर यह बात कही थी-
हम कौन हैं..जानते हो ना..हमको तबाह करने की साजिश करते हैं काफिर। उन्हें लगता है ये दुनिया उनके इशारे पर चलनी चाहिए। वो हमको हिकारत से देखते हैं। उनको बताना है कि हमारा ईमान जिंदा है..हम उनका सर उड़ाकर यह बताएंगे..जेहाद ..कुर्बान हो जाओ..
अमानत को अब तक समझ नहीं आया था कि महमूद को कैंप में क्यूं ‘मौलाना’ बुलाया जा रहा था।
तब एफ-वन भी वहां था। उसने महमूद के हाथ चूमे थे। अमानत नहीं चाहता था कि उसे भी यह करना पड़े क्योंकि महमूद उसे बूढ़े भालू का भतीजा दिखता था। ट्रेनिंग कैंप से निकल वो सीधा एफ-फोर के साथ चला आया था। अम्मी से दो मिनट के लिए मुलाकात हो पाई थी। इतने समय में बेचारी कहां से खाना लाती और कहां से टिफिन भरता। अमानत का पेट फिर बजने लगा। लेकिन नाली के पानी में आवाज दबी रह गई। एफ-वन के इशारे बाद भी वो तीस तक की गिनती करना भूल गया था।
 बचपन से उसका दिमाग ऐसा ही था। मौके पर कहीं गुम हो जाता था।
सूबे में सैलाब आया था पड़ा था और वो अपनी अम्मी को गजलें सुनाता रहता। अम्मी अब्बू के गुम हो जाने से बुत बन गई थीं, उसकी गजलों ने ही अम्मी को असली दुनिया में लौटाया था।
एफ-वन, एफ-टू और एफ-थ्री की गिनती पूरी हो चुकी थी। तीनों नाली से उछलकर गोलियां चलाने लगे। फोर्स के जवान तैयार थे। उनकी गोलियों ने दस तक की गिनती से पहले ही तीनों को ढेर कर दिया।

                                                         ४


नाली से तीन लाशें निकाली जा चुकी थीं। सर्चिंग जारी थी। बड़ी-बड़ी मूछोंवाला एक छह फुटा अफसर बल्देव सिंह वहां आया। जवान उसे सैल्यूट देने की कोशिश में अपने शरीर की पूरी ऊंचाई में तन गए। लाशों को देखते हुए उसने अपनी मोटी मंूछों को ताव दिया। उसके बोलने में आह्वान की गंूज थी ‘अभी यहां हमारे पच्चीस बाज (जवान)उतरेंगे। किसी को नहीं हिलना है। दो-तीन घंटे में सुबह होने वाली है। किसी को कोई सवाल पूछना है?’
समवेत स्वर गूंजा ‘नो सर..’
बल्देव सिंह ने आंखों को बड़ा करते हुए हुंकार भरी ‘और जोर से बोलो..आवाज बार्डर पार जानी चाहिए।’
‘नोऽऽऽऽऽऽऽऽसरऽऽऽऽऽऽऽऽ’
जवानों की हुंकार खेत की चोर सुरंग में वापस जा छिपे अमानत के कानों में पड़ी। उसने आंखें बंद ली और चेहरा मिट्टी में धंसा दिया।
सडक़ पर फौज की गाड़ी देखकर ही उसने मौत को महसूस कर लिया था। उसके साथियों को मार गिराने के बाद फोर्स की सर्चिंग दरिया और सडक़ में होने लगी थी। सांस बंद किए देर तक नाली में लेटे रहने के बाद तकदीर उस पर मेहरबान हुई थी। जवान उस तक पहुंचने ही वाले थे कि बल्देव सिंह आ गया। अमानत को नाली से बाहर जाकर सुरंग में घुसने का मौका मिल गया था। किस फुर्ती से वो नाली से सुरंग तक पहुंचा था, उसके फरिश्ते ही जानते थे।
अम्मी की दुआ ने साथ दिया होगा..जो पराए मुल्क के सिपाहियों को आहट न मिली।उसने अपनी अल्पविकसित समझ से यह सोचा था कि सुरंग से वापस वो अपने मुल्क निकल जाएगा। वो सुरंग में आगे बढ़ा। आधी सुरंग तक सरकने के बाद उसे ढेलों का ढेर मिला। उसने पंजों से ढेर को हिलाया। धेले उसकी ओर लुढक़ने लगे। वो जितनी बार ढेर में हाथ घुसाता, धेले लुढक़ते।
उसके मुल्क की ओर से उन चारों के हिस्से की मिट्टी डाल दी गई थी।
कैंप में उसे सिखाया गया था ‘काफिरों के हाथ पडऩे से बेहतर है अपनी गर्दन काट लेना।’ 
उसने चाकू अपनी गर्दन पर टिकाया। चाकू में धार नहीं थी। गर्दन कट तो जाती! दर्द इतना होता कि जान अटक जाती।
दर्द में मौत भी किस काम की, इससे अच्छा तो जीना है। अब्बू ऐसा कहते थे। अब्बू सैलाब के बाद से गुम थे। ऊपरवाले से आखिरी फरियाद है कि उनको दर्द न मिला हो।
उसने चाकू कलाई से लगा लिया। तीन तक गिनकर तीसरी गिनती पर कलाई काटना मंजूर किया।
एक..दो.. .. तीन।
सुरंग के बाहर फोर्स की गश्ती थी। जवान अपनी गनों की नाल से पौधों और झाडिय़ों को टटोल रहे थे।
- ‘ ओए..सुरंग को खुला किसने छोड़ा है? साहब का आर्डर नहीं सुना था तूने। तीनों यहीं से निकले थे। बंद कर इसे अभी।’
- ‘ सोच रिया हूं कोई आ जावे..यहीं गिन दूं.. ओजी..ओजी..अंदर मरा पड़ा है ..अंदर है कोई!’
शक्तिशाली टार्च की रोशनी चोर सुरंग के अंदर फेंकी गई। अंदर कीचड़ सने लबादे में अमानत पड़ा था। आंखें उलटी हुई थीं। उसे खींचकर बाहर निकाला - ‘ ओजी..ओए होए..लॉटरी लाग गी..जिन्दा है। बल्देव सिंह शबासी देंगे।’
                                                        
क्रमशः ...
कहानी का अंतिम हिस्सा जल्द ही ...

Friday 5 August 2016

ज्यादा हरा मुल्क (poori kahani)

                                         ज्यादा हरा मुल्क  

                           [कहानी इस साल की फरवरी में लिखकर मैं बेचैन था, पता नहीं क्यूं ! ] 
       

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कंटीले तारों के पार हरियाले खेत नजर आ रहे थे। खेत इस पार भी थे लेकिन हरापन उस पार ज्यादा था। चार जनों का फिदायीन दस्ता सुरंग में उतरने को तैयार था। सबसे पीछेवाले ने संकरी सुरंग में उतरने से पहले अपने पीछे देखा।

अम्मी दोनों हाथ आगे फैलाकर दौड़ती उसकी ओर आ रही थी 'रुक जा अमानत..रुक जा..’

सबसे सामनेवाले ने उसे डांटा  'क्या देख रहा है एफ-फोर! तेरी अम्मी के सपने खत्म नहीं हुए। ’
अमानत उर्फ एफ-फोर कांपती आवाज में बोला  'गलती हुई जनाब..अम्मी को अब याद नहीं करुंगा।’

-' जनाब नहीं..एफ-वन बोल। मैं तुम सबमें से एक हूं।

चारों सुरंग के अंदर घुस चुके थे। कंबलों से बने मोटे लबादे सुरंग के अंदर पेट के बल सरकने में मदद कर रहे थे। खरोंचें आ रही थीं, मगर लबादा घर्षण को कम कर रहा था। कोहनियों को मोडक़र उनके सहारे आगे बढऩे में सांसें चढ़ रही थीं। अंदर साफ हवा की कमी थी। अमानत को उबकाई आने लगी। खाली पेट में जलन मच रही थी। लबादे के नीचे पेट से बंधी एके-47  की नाल गर्दन और छाती के बीच अडक़र अलग दर्द दे रही थी। उन्हें छह घंटे लग गए इस पार से उस पार सरकने में।

 बाहर निकलने के बाद अमानत ने पाया कि ज्यादा हरे मुल्क का आसमान भी ज्यादा नीला था।

एफ-वन भर्राती फुसफुसाहट में बोला 'यहां की फिजां में खो न जाना, ये कभी हमारी जमीन थी। ’                                                                     

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चारों सुरंग से बाहर निकल आए थे। ज्यादा हरे खेतों के बीच। खेत इतने हरे और लबालब थे कि उन जैसे दस को छिपा सकते थे। सुरंग में से उनके साथ मोटी रस्सी भी सरकती आई थी। एफ-टू उसे पकड़े हुए बाहर आया था।
एफ -वन फुसफुसाया  'खींच ले तोहफा!’
एफ-टू ने रस्सी को खींचना शुरू किया। रस्सी अटक गई। एफ- वन के आदेश पर एफ- थ्री और एफ -फोर ने उसके साथ रस्सी पर जोर लगाया। रस्सी झटके के साथ बाहर आई।

अमानत ज्यादा ही जोर  लगा बैठा और रस्सी ढीली हो जाने से खुद को संभाल नहीं पाया। वो एफ -वन के सीने से पीठ के बल जा टकराया। एफ-वन को जमीन सूंघनी पड़ी। उसने गुर्राते हुए अमानत को परे फेंका।

सुरंग से 'तोहफा’ बाहर आ गया था, जो होल-डॉल जैसी बेल्ट लगी गठरी थी।

उसके अंदर से चार बैग निकले। चारों ने अपने-अपने बैग खोल लिए। तीन बैगों से टिफिन निकले। एफ-वन ने अपना चार खानेवाला टिफिन खोला। पहले खांचे में बिरयानी, दूसरे में रोटियों में दबी सूखी सब्जी, तीसरे में सेवई.. और चौथे में निकला मोबाइल।
उसने लबादे के अंदर हाथ डालकर 'आका के लिखे हुए फरमान’ में लिपटा सिम निकाला।
मोबाइल में सिम फिट किया और आका से बात करने लगा ' खैरियत है भाईजान अभी तक..ये एफ-फोर कमजोर बंदा लग रहा है। देखते हैं.. काम नहीं हुआ तब हमेशा के वास्ते रवाना कर देंगे।’ आका से बात बंद हुई और उसने अपनी अम्मीजान को कॉल लगाई। अम्मी से बात पूरी कर एफ-वन ने टंगड़ी उठाकर मुंह में डाली। उसने अमानत को देखा, जिसके सामने टिफिन नहीं था।
- ' क्या हुआ तेरा खाना नहीं आया बैग में? भूखा जाएगा दुनिया से! ’

फिर एफ-वन ने अपने तीनों सहयोगियों को एक साथ संबोधित करते हुए कहा  'जानते हो मेरी अम्मी का पैगाम..कह रही थी मरने से पहले खाना खा लेना। अम्मी को हमेशा ख्याल रहता है मेरे पेट का। ’ तीनों जल्दी-जल्दी अपना खाना खत्म करने लगे। अमानत उन्हें बोटियां चबाते देख रहा था। उसके मुंह में लार थी और पेट में चूहे घूम रहे थे। किसी ने उसे अपने साथ खाने को नहीं कहा।
                                          

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खाना खत्म हुआ। पीठ में बैग बांधकर चारों सावधानी से खड़े होने लगे। इस कोशिश में अमानत पीठ के बल पलटी खाता हुआ गिर गया। उसके पैर हवा में आ गए।
एफ-वन ने उसके कूल्हे पर चिढ़भरी ठोकर लगाई ‘गलती कर दी तुझे लाकर।’

अमानत ने उसे अपना दम दिखाते हुए पैर जमाए और सट से उठ खड़ा हुआ। इससे उसकी एके-47 लबादे के अंदर से नीचे सरक गई और उसके पंजों में सीधी आ गिरी। दमदारी दिखाता अमानत शर्मिंदा हो गया।

एफ-वन की सुर्ख आंखें फैलने लगीं। गुस्सा निगल जाने की कोशिश में चेहरे की नसों में इतना तनाव आया कि नकाब का काम कर रहा मफलर खुल गया। उसकी आंखें सुर्ख होने के साथ-साथ हल्की पीली थीं, जो बता रहीं थीं कि उसे नींद नहीं आती। चेहरा बिखरी हुई दाढ़ी से भरा हुआ था।

उसने थूक निगलते हुए खुद पर काबू पाया और बाएं हाथ को कमर से आगे फेंककर चलने का इशारा दिया।
खेत में खड़ी फसल के बीच कमर से नीचे तक झुककर चारों आगे बढऩे लगे। उनका पहला पड़ाव दरिया का किनारा था। छोर के खेत की मेड़ से दस कदम की दूरी पर दरिया का बहाव था। खेत और दरिया के बीच संकरी नाली बनी हुई थी। खेतों का अतिरेक पानी उससे बहकर दरिया में जाता था। चारों उस नाली के पास बिना रुकावट पहुंच गए।
अमानत के खाली पेट से आवाज निकली-
टूंऊऊऊऊऊऊऊऊ..ट्वें..
एफ-वन ने उसे हिकारत से घूरा ‘ खाकर नहीं आया हराम..गोलियों का पट्टा कस ले..तेरे गुर्दों की आवाज काफिरों को हमारे पास बुला लेगी..’

नाली में उन्हें डेढ़ सौ मीटर दूर सडक़ तक उसी तरह सरकना था जैसा उन्होंने सुरंग में किया था। चारों अपने-अपने कोड नेम के क्रम में लेट गए। नाली का पानी और पतला कीचड़ अमानत की नाक में भरा जा रहा था। कैंप में उसे पानी में नाक डालने की ट्रेनिंग नहीं मिली थी। अमानत की नाक से बुलबुले छूटने लगे। बुड़बुड़़ होने लगी। आगे से एफ-थ्री ने उसे नाक और चेहरे को हथेली से ढंकना बताया।

अमानत को राहत मिली। मगर अब भी अंतडिय़ां उसे बैचैन कर रही थीं। उसी पल उन्हें नाली में घिसटना बंद करना पड़ा। पुलिया के ऊपर बख्तरबंद गाड़ी आकर रुकी, जिसमें से दर्जनभर जवान कूदे। उन्होंने टार्च लगे हेल्मेट पहन रखे थे। हाथों में एके-103 थी। जवान अत्यधिक सतर्क थे। उनके बूटों की धमक अमानत को पास आती सुनाई देने लगी।

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किसी का निर्देश फैलाता भारी स्वर बता रहा था कि फोर्स को खबर हो चुकी है-
‘खेत की सुरंग सियारों का काम नहीं है। इंटेलीजेंस से मिली टिप सही है। दूर नहीं गए होंगे वो।’

अगुवाई कर रहे एफ-वन ने खास हल्के तरीके से पैर हिलाया। इससे पानी की सतह में हलचल हुई। यह हमले का इशारा था! अब बचने का मौका नहीं था। चारों को एक साथ उठ खड़े होकर फोर्स के जवानों पर गोलियां चलानी थीं। 
अमानत को ट्रेनिंग कैंप में आए बड़े पेट वाले लीडर महमूद की बात याद आई। महमूद ने उसकी उम्र के सारे लडक़ों के कांधों में हाथ रख-रखकर यह बात कही थी-
"हम कौन हैं..जानते हो ना..हमको तबाह करने की साजिश करते हैं काफिर। उन्हें लगता है ये दुनिया उनके इशारे पर चलनी चाहिए। वो हमको हिकारत से देखते हैं। उनको बताना है कि हमारा ईमान जिंदा है..हम उनका सर उड़ाकर यह बताएंगे..जेहाद ..कुर्बान हो जाओ.."
 
अमानत को अब तक समझ नहीं आया था कि महमूद को कैंप में क्यूं ‘मौलाना’ बुलाया जा रहा था।
तब एफ-वन भी वहां था। उसने महमूद के हाथ चूमे थे। अमानत नहीं चाहता था कि उसे भी यह करना पड़े क्योंकि महमूद उसे बूढ़े भालू का भतीजा दिखता था। ट्रेनिंग कैंप से निकल वो सीधा एफ-फोर के साथ चला आया था। अम्मी से दो मिनट के लिए मुलाकात हो पाई थी। इतने समय में बेचारी कहां से खाना लाती और कहां से टिफिन भरता।

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अमानत का पेट फिर बजने लगा। लेकिन नाली के पानी में आवाज दबी रह गई। एफ-वन के इशारे बाद भी वो तीस तक की गिनती करना भूल गया था। कैंप में सबसे पहले 30 तक की गिनती सिखाई जाती है, गिनती खत्म हमला शुरू ।
 बचपन से उसका दिमाग ऐसा ही था। मौके पर कहीं गुम हो जाता था।
 सूबे में सैलाब आया पड़ा था और वो अपनी अम्मी को गजलें सुनाता रहता। अम्मी अब्बू के गुम हो जाने से बुत बन गई थीं, उसकी गजलों ने ही अम्मी को असली दुनिया में लौटाया था।

एफ-वन, एफ-टू और एफ-थ्री की गिनती पूरी हो चुकी थी। तीनों नाली से उछलकर गोलियां चलाने लगे। फोर्स के जवान तैयार थे। उनकी गोलियों ने दस तक की गिनती से पहले ही तीनों को ढेर कर दिया।                                                      

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नाली से तीन लाशें निकाली जा चुकी थीं। सर्चिंग जारी थी। बड़ी-बड़ी मूछोंवाला एक छह फुटा अफसर बल्देव सिंह वहां आया। जवान उसे सैल्यूट देने की कोशिश में अपने शरीर की पूरी ऊंचाई में तन गए। लाशों को देखते हुए उसने अपनी मोटी मूंछों  को ताव दिया। उसके बोलने में आह्वान की गूंज  थी ‘अभी यहां हमारे पच्चीस बाज (जवान)उतरेंगे। किसी को नहीं हिलना है। दो-तीन घंटे में सुबह होने वाली है। किसी को कोई सवाल पूछना है?’
समवेत स्वर गूंजा ‘नो सर..’
बल्देव सिंह ने आंखों को बड़ा करते हुए हुंकार भरी ‘और जोर से बोलो..आवाज बार्डर पार जानी चाहिए।’
‘नोऽऽऽऽऽऽऽऽसरऽऽऽऽऽऽऽऽ’
जवानों की हुंकार खेत की चोर सुरंग में वापस जा छिपे अमानत के कानों में पड़ी। उसने आंखें बंद ली और चेहरा मिट्टी में धंसा दिया।

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 सडक़ पर फौज की गाड़ी देखकर ही उसने मौत को महसूस कर लिया था। उसके साथियों को मार गिराने के बाद फोर्स की सर्चिंग सडक़ में होने लगी थी। सांस बंद किए देर तक नाली में लेटे रहने के बाद तकदीर उस पर मेहरबान हुई थी। जवान उस तक पहुंचने ही वाले थे कि बल्देव सिंह आ गया। अमानत को नाली से बाहर जाकर सुरंग में घुसने का मौका मिल गया था।

किस फुर्ती से वो नाली से सुरंग तक पहुंचा था, उसके फरिश्ते ही जानते थे।
" अम्मी की दुआ ने साथ दिया होगा..जो पराए मुल्क के सिपाहियों को आहट न मिली। "

उसने अपनी अल्पविकसित समझ से यह सोचा था कि सुरंग से वापस वो अपने मुल्क निकल जाएगा। वो सुरंग में आगे बढ़ा। आधी सुरंग तक सरकने के बाद उसे ढेलों का ढेर मिला। उसने पंजों से ढेर को हिलाया। धेले उसकी ओर लुढक़ने लगे। वो जितनी बार ढेर में हाथ घुसाता, धेले लुढक़ते।
उसके मुल्क की ओर से उन चारों के हिस्से की मिट्टी डाल दी गई थी।

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 कैंप में उसे सिखाया गया था ‘काफिरों के हाथ पडऩे से बेहतर है अपनी गर्दन काट लेना।’ 
उसने चाकू अपनी गर्दन पर टिकाया। चाकू में धार नहीं थी। गर्दन कट तो जाती! दर्द इतना होता कि जान अटक जाती।
दर्द में मौत भी किस काम की, इससे अच्छा तो जीना है। अब्बू ऐसा कहते थे। अब्बू सैलाब के बाद से गुम थे। ऊपरवाले से आखिरी फरियाद है कि उनको दर्द न मिला हो।

उसने चाकू कलाई से लगा लिया। तीन तक गिनकर कलाई काटना मंजूर किया।
एक..दो.. .. तीन।
सुरंग के बाहर फोर्स की गश्ती थी। जवान अपनी गनों की नाल से पौधों और झाडिय़ों को टटोल रहे थे।
- ‘ ओए..सुरंग को खुला किसने छोड़ा है? साहब का आर्डर नहीं सुना था तूने। तीनों यहीं से निकले थे। बंद कर इसे अभी।’
- ‘ सोच रिया हूं कोई आ जावे..यहीं गिन दूं.. ओजी..ओजी..अंदर मरा पड़ा है ..अंदर है कोई!’

शक्तिशाली टार्च की रोशनी चोर सुरंग के अंदर फेंकी गई। अंदर कीचड़ सने लबादे में अमानत पड़ा था। आंखें उलटी हुई थीं। उसे खींचकर बाहर निकाला - ‘ ओजी..ओए होए..लॉटरी लाग गी..जिन्दा है। बल्देव सिंह शबासी देंगे।’

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आतंकियों को मुर्दा देखने से सौ गुना बेहतर उनका जिंदा पकड़ा माना जाता है। अमानत के पकड़े जाने की खबर अंदर ही रखी गई। स्पेशल आपरेशन टीम के चुनिंदा सदस्य ही इस बारे में जानते थे। बल्देव सिंह उनमें से एक था। अमानत को मीडिया से बचाकर रखने की जिम्मेदारी उसकी थी। बंद कमरे में सीएफल को तिरछा लटकाया गया था। रोशनी दीवार में आ रही थी। केंद्र में अमानत था।

उसे बांधा नहीं गया था। उसके हाथ कुर्सी से नीचे झूल रहे थे, जिनमें पट्टियां बंधी थीं।
बल्देव सिंह ने सवालात शुरू किए ‘तूने कलाई चाक्क ली..साइनाइड कैप्सूल नहीं खाया..बाम्ब से नहीं उड़ाया ..गोली नहीं मार ली’
अमानत मरी हुई आवाज में बोला  ‘भूख लगी है जी..खाने को दे दो। ’ 

उसकी कटी कलाई से काफी खून बह चुका था। जिस्म में हरकत नहीं बची थी। कर्नल ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसे रसीद किया ‘तू हमें मारे, हम खाना दें।’

अमानत फरियाद करता हुआ बोला ‘ आपका ’ ज़्यादा हरा मुल्क है जी.. हमारे यहां तो सैलाब आ जाता है। खाना दे दोगे जी..सब बता दूंगा..’

- ‘ खाना खाने आया है यहां! उमर दस्स तेरी?’
- ‘ उमर ..शोला..’
- ‘ शोला! ओ.ओहो. सोल्ला। इत्ती कम उमर।’
- ‘ नाम बोल?’
- ‘ एफ  फोर..अमानत।’

बल्देव सिंह अपने तजुर्बे को औजार बनाकर अमानत से पूछताछ करने लगा।

अमानत ने बताया कि उसका बाप बेकरी चलाता था। चार भाई थे और एक बहन। अम्मी बीमार रहती थी। सूबे की बाढ़ अब्बू को ले गई। बेकरी का काम नहीं संभला। तीनों भाइयों का निकाह हो गया था। अब्बू की गुमशुदगी के बाद सब अलग-अलग रहने लगे। बहन के निकाह के वक्त बाजार में गोलियां चल गईं। बहन भी गुजर गई। अम्मी का जिम्मा अमानत पर आ गया। अमानत को पैसे एक ही जगह से मिल सकते थे। ट्रेनिंग कैंप।
कैंप पहुंचा तो उसने जाना कि सैलाब को पड़ोसी मुल्क ने साजिशन उसके सूबे में भेजा था।
 अब्बू को इंसाफ जेहाद से मिल सकता था। 

अमानत कैंप में रहने लगा। अम्मी से मिलना नहीं हो पाता था। उसके गांव से आए एक लडक़े ने बताया कि अम्मी को कैंप चलाने वाले मौलाना के आदमियों ने पैसे नहीं भिजवाए थे। उसने मौलाना के बंदों से पैसे मांगे। बंदों ने कहा- अम्मी को पैसे चाहिए या अब्बू के लिए इंसाफ।

बल्देव सिंह ने घुमा-फिराकर बीसियों सवाल कर लिए। अमानत ने ऐसा कुछ नहीं बताया, जो इतने दिनों की फौजी नौकरी में उसे नहीं पता हो। सारे घुसपैठिए आतंकी तकरीबन एक सी जानकारियां देते हैं। घंटेभर हो चुके थे। रात के दस बजने लगे। बल्देव सिंह का मोबाइल बजा। जाने से पहले उसने अमानत से सबसे महत्वपूर्ण सवाल किया  ‘तूने गोलियां क्यों नी चलाई हमारे सिपाहियों पर ’
- ‘ मुझे अम्मी के पास जाना था।’
- ‘ तो कलाई किसलिए कट्टी?’
जवाब नहीं मिला। अमानत बेहोश हो चुका था।

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 घंटेभर बाद बल्देव सिंह अपना टिफिन लेकर कमरे में ही आ गया। पंजाबी खाने की खुशबू फैल गई। बल्देव ने हाथ का कड़ा ऊपर कर सरदारों के विशिष्ट अंदाज में रोटी को तोड़ा। अमानत की तरफ देखा, जिसका शरीर हिल रहा था। वो बेहोशी और होश के बीच में लटकी आंखों से टिफिन को देख रहा था। बल्देव सिंह उठकर उसके पास गया। उसने कुर्सी से बाहर झूलते अमानत के हाथों हवा में उठाकर छोड़ दिया। अमानत के हाथ झट से नीचे गिरे और पहले की हालत में झूलने लगे। बल्देव सिंह ने अपना टिफिन रखा स्टूल उस तक खींच लिया।
उसने रोटी का टुकड़ा आलू-मेथी की सब्जी में लपेटा और अमानत के मुंह में डाल दिया।

                                            ............समाप्त ...............


Tuesday 2 August 2016

कश्मीर पर उन्माद बनाम देशप्रेम


कश्मीर मुद्दा कैसे हल किया जा सकता है?
बहसों और बल प्रयोग के विकल्प नाकाम दिख रहे हैं। मानवता और देशप्रेम की परिभाषाएं टकराने लगी हैं। भविष्य का आकलन नहीं किया जा रहा। उन्माद हावी है। हम भावनाओं में आकर अत्यधिक उन्मादी हो चले हैं। अधिक लोगों की भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं को एक ही तरीके से पूरा नहीं किया जा सकता। कश्मीर मुद्दे पर यह नियम अनिवार्य रूप से लागू होता है। अपेक्षाएं आलोचना को जन्म देती हैं। अटलबिहारी बाजपेयी के बाद हमने हमारी राजनीति में अपेक्षा को  साधने और आलोचना को सहजता से स्वीकारनेवाला नायक नहीं देखा। वे दो पक्ष नहीं चाहते थे। आज कश्मीर के अंदर और बाहर क्रांति का माहौल तैयार है। विश्व को भारत से जो सन्देश नहीं जाना चाहिए ,वही सोशल मीडिया के माध्यम से फैल रहा है। उम्मीद कायम है  पर हम अंधी और अतिआक्रामक क्रांति के लिए तैयार हैं। न जाने कैसे शांति के इस देश में यह भ्रम पसर गया कि क्रांति को कठोरता से ही लाया जा सकता है। आज़ादी के बाद से देश के पास दो स्थाई और वास्तविक मुद्दे हैं। महंगाई और कश्मीर। हमारे नायक इन मुद्दों को वक़्ती तौर पर सुलझा लेते हैं किन्तु आगे हल ही दिक्कत बन जाता है। कश्मीर के लिए जवाहर लाल नेहरू ने जो हल निकाला वो उस समय के वातावरण में सही था। हम एक पूर्ण और परिपक्व राष्ट्र की छवि बनाना चाह रहे थे। नेहरू ने भारत को जिस तरह दुनिया के सामने उस दौर में प्रस्तुत किया वही पहचान इस दौर तक कायम है। नरेन्द्र मोदी को भी प्रधानमंत्री बनते ही नेहरू की नीति समझ आ गई होगी। वे नेहरू की तरह ही वैश्विक बनने की कोशिश में हैं। उनकी विदेश यात्राएं केवल मेक इन इंडिया के लिए नहीं हैं।  ख़ैर, कश्मीर के भारत में शामिल होने के कुछ अर्से बाद से ही वो नेहरू नीति काम नहीं कर रही, जो परिस्थितिजन्य नैतिकता पर आधारित थी। देश में रहकर कश्मीर को कश्मीर ही रहने दिया गया। भारत का कश्मीर हो गया। कश्मीर भारत का न हो पाया। कश्मीर की अपेक्षा पूरा करने के लिए बनाई गई धारा 370 को  लक्ष्मण रेखा बना दिया गया। जब नीति आलोचना स्वीकार न करे, उम्मीद न बंधाए, वो बदलने की स्थिति में आ जाती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि धारा 370 बदल दी जाए। हमें इस निजात से खड़ी हुई परेशानी का कोई नया हल खोजना होगा। इस दौर में हमारे सामने तीन नेता हैं जिनसे नायक होने की अपेक्षा की जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। क्या इनके पास कश्मीर समस्या का कोई समाधान है?  यह एकदम से हवा में उछाला गया सवाल नहीं है!  हमारे प्रतिनिधि ही कश्मीर को धारा 370 के दायरे से देखते हैं। हम भी वही चश्मा लगाते हैं।
 "कश्मीर का झंडा अलग है। वहां तिरंगा नहीं फहरता। वहां हमारा राष्ट्रगान नहीं गाया जा सकता। " कश्मीर के बारे में हम इस तरह का सतही ज्ञान रखते हैं और दूसरों को इसे बांटते हैं। मानों अभी कश्मीर के लिए एक जंग लड़नी बाकी है। कश्मीर को टालते रहने की वजह से शक्तिशाली मीडिया भी दो भागों में बंटा नज़र आता है। मोदी अपनी दीपावली  श्रीनगर में मनाते हैं। यह प्रतीकात्मक अधिक लगता है। ज्यादा कड़े शब्दों में दिखावा कह सकते हैं। उदारवादी छवि बनाने की कोशिश का एक हिस्सा मात्र। राहुल गाँधी पाकिस्तान बॉर्डर के समीप जाकर भाईचारा लाना चाहते हैं। वे बहुत अधिक प्रबन्धन कौशल के मुरीद हैं। उन्हें ज़मीन या कहें हक़ीक़त से दूर करने के लिए यह काफी है। अंततः केजरीवाल हैं। व्यवस्था का उनसा आलोचक नेता अभी की राजनीति  में नहीं है। संभावनाएं जगाकर वे भटक गए हैं। इसलिए ही अन्ना हजारे उनसे नाराज़ हुए रहे होंगे। क्या पता केजरीवाल ने राजनीति में उतरकर खुद को सीमित नहीं किया होता तो अन्ना के साथ उनकी जोड़ी कश्मीर में अमन के लिए अनशन कर रही होती! फिलहाल कश्मीर राहुल और केजरीवाल के एजेंडे में नहीं होंगे। उन्होंने मोदी के लिए यह मुद्दा छोड़ दिया है। काश वे राजनीतिक लाभ से अधिक की सोच रखते हुए कश्मीर नीति पर खुलकर आगे बढ़ते। उनका एजेंडा 'पहले कश्मीर बाकी सब बाद में' होता। उनके मुख से अभी यूपी और पंजाब चुनाव की ही बात हो रही है। केजरीवाल को कश्मीर में आम आदमी पार्टी का एक कैंपेन शुरू करने में कैसी झिझक है? राहुल को वहां के आक्रोशित युवाओं से संवाद करने के लिए 'रैंप' नहीं मिल रहा क्या?  मोदी को इस 15 अगस्त में कश्मीर में सद्भावना को लेकर भाषण बोलने में संकीर्णता नहीं दिखानी चाहिए। वे कश्मीरी जो किन्ही कारणों से नाराज हैं ,उनसे हमारे ये तीन नेता संपर्क करने की कोशिश करें। जब उनसे पाकिस्तान संपर्क कर सकता है। हाफिज सईद बात कर सकता है। तो ये तीनों क्यों नहीं!  मसला अलगाववादियों अथवा भटके युवाओं के बीच जाने का नहीं , उनसे लगातार बात करने का है। सरकार इस पर सर्वदलीय बैठक बुला सकती है। देशहित की खातिर कश्मीरी नेताओं को इसमें सीधे शामिल किया जा सकता है। मीडिया अधिक सकारात्मक हो सकता है। अभी हम कश्मीर मुद्दे पर संभवतः पहली बार असहिष्णु  दिख रहे हैं। गांधीवाद का संचार कश्मीर में करने पर जोर देने कोई नेता पहल करता है तो उसकी सुनी जानी चाहिए। कश्मीर में  सुलगती-जलती आग को उन्माद जगाकर नहीं रोका जा सकता। राजनाथ सिंह को संसद में घिसी- पिटी शब्दावली का इस्तेमाल करता देख उम्मीद नहीं जागती। हम नरम पड़ रहे हैं ,यह पूर्वाग्रह मिटाकर नेताओं को पहल करनी होगी। कश्मीर मुद्दे से दूर रहने से समस्या देश की अखंडता खतरे में आ सकती है। वो काल न आए, इसके लिए अभी देशभक्ति दिखाने की जरूरत है जिसमें नरमाई हो ,अंधी-बहरी कड़ाई नहीं।