Thursday 29 September 2016

परिस्थितियों को वक्त देने से अच्छा, खुद को बदलना है


पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (उत्तर भारत में इसे गुलाम कश्मीर कहा जाता है) के आतंकी ठिकानों पर हमारी आर्मी का हमला, हमारे आत्मसम्मान की वापसी का कारक हो सकता है। हमारे परिस्थितितुल्य आत्मसम्मान को हुआ कुछ नहीं था, बस वो थोड़ा 'आइसोलेटेड' हो गया था। भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नैतिकता का इकलौता उदाहरण है। नैतिकता को आत्मसम्मान से ही जोड़ा जाना चाहिए। जिन्हें नैतिक होना, अव्यवहारिक लगता है वे आज पाकिस्तान का हाल देख लें। उस देश को अलग-थलग, आइसोलेटेड करने की आवश्यकता नहीं पड़ी।

कई  लोग अपनी जिंदगी को केवल इसलिए सफल मानते हैं क्योंकि उन्होंने वो सब हासिल किया, जिसके बारे में सोचा नहीं था। वे इसे अपना गौरव मानते हैं। हो सकता है मैं और आप भी उसी दर्जे के हों। नहीं भी होंगे, तो हमें इसके लिए सम्मान नहीं मिलनेवाला। मध्यमवर्गीय जीवन में सफल लोग कहते हैं- "आत्मसम्मान परिस्थितियों के मुताबिक होता है। "

मैं पूरे सम्मान के साथ गुरुवार दिनभर टीवी चैनलों के साथ रहा। जरुरी कामों को मैंने छुट्टी पर भेज दिया। वैसे देखा जाए तो जिंदगी में एक ही जरुरी  काम होता है, सांस लेना। और वो मैं बराबर लेता हूं। मैं टीवी के सामने चित पड़ा रहा। समाचारों के ब्रेक में करवटें ले लीं। जब इसकी भी गुंजाइश नहीं बची, तो एक से दूसरे चैनल पर चला गया।

तीस की उम्र पार करने के बाद मुझे महसूस होने लगा था कि अधिक जिम्मेदारी दिखाने का समय शुरू हो चुका है। इसकी कसौटी कहती है, टीवी सोफे पर बैठकर देखनी चाहिए। यह सयाने होने की ओर अनमनी अग्रसरता है।
आज लग रहा है "मैं तीस की उम्र के पहले पहुंच गया हूं।" अब बिस्तर पर पड़े हुए टीवी देखने से मुझे कोई नहीं रोक सकता। आज मैं, मां और बीवी के पसंदीदा सास-बहू सीरियल्स से आजाद इंसान हूं। मां और मेरी बीवी को भी आज न्यूज चैनल पसंद आ रहे हैं। हम तीनों आज एकता दिखा रहे हैं जिसमें आत्मसम्मान है। हमने अपने आत्मसम्मान का बंटवारा नहीं किया। देश हमेशा आत्मसम्मान से बढक़र होता है।

बात तीस पार के होने पर चल रही थी। जवान होने और 'नौ+जवान' होने में ये जो '+नौ ' है, ये बड़ा दिलजलाऊ है। 'मैं जवान हूं' का मतलब है- कुछ दिनों बाद मैं जवान नहीं रहूंगा। 'मैं नौजवान हूं' का मायना सीधा है -आगे मैं इंसान रहूं ना रहूं, जवान तो पक्का रहूंगा।

  तीस पार होकर भी अंडर 30 होने का अहसास एक थ्रिलर नॉवेल के बीच के पन्ने से वापस पहले-दसवें पन्ने पर पहुंच जाने जैसा है। किसी नामी किताब को पढऩे की शुरुआत करते हुए कितना सारा रोमांच कुलबुलाता रहता है। उपन्यासों का मजा यही है। शुुरुआत से ही अपने कयास पाल लेना । क्लामेक्स में कोई तुक्का तीर हो जाए, तो लेखक होने का भ्रम पालना। यह भ्रम मुझे भी है।
 "मैं जिंदगी के क्लाइमेक्स की ओर नहीं बढऩा चाहता। मैं रुक जाना चाहता हूं, बीच के पन्नों पर ही।"

आत्मसम्मान के आवरण में टीवी देखते-देखते शाम होने को आई। याद आया कि मैं ब्लॉगर हूं। टीवी बहुत देख ली। अब आत्मसम्मान के साथ लिखने की बारी है। सोचा एलओसी पर क्या लिखूं? इंडियन आर्मी के एक्शन पर क्या लिखूं? जो हुआ उस पर क्या लिखूं?
इस तरह के टॉकिंग पाइंट्स पर आप तुक्का ही लिख सकते हैं। युद्ध या सीमापार के मामलों में लिखने के लिए तीर आपके पास होता नहीं है। जो मारने की कोशिश करते हैं, वे मुंह की खाते हैं।

मैं सोचने लगा.. .
मैं, अपनी उम्र के बाकियों की तरह आत्मसम्मान के बारे में सोच रहा हूं। हम बार्डर, एलओसी कारगिल, लक्ष्य जैसी फिल्में देखकर बड़े हुए हैं। आज ऐसा लग रहा है, आर्मी ने हमको गदर फिल्म दिखा दी। मुझे लग रहा है, आज बहुत से प्रेमीजन सनी देओल को भी बधाई भेज रहे होंगे।
आज वापसी करते मानसून की बारिश में आत्मसम्मान के छाते के नीचे गंभीरता भी खड़ी है। गंभीरता यह है कि सनी देओल के साथ-साथ बधाई का पात्र हर वो व्यक्ति है, जिसने आतंकियों के कायराना हमलों में शहीद हुए सैनिकों के लिए आंसू बहाए थे। उनके आंसू आंखों में ही आएं हों, जरूरी नहीं। गरजनेवाले बादलों से ज्यादा पानी, गहरे और ठहरे बादलों में होता है।

 गंभीरता तो यह भी है कि हम शहीदों की याद में चौक पर मोमबत्ती जलाते हैं। आज मन में घर के बाहर पटाखे फोडऩे की आकांक्षा कूद  रही है। गंभीरता यह भी है कि आज उन रिश्वतखोरों को खुद पर शर्म आ रही होगी, जिन्होंने कहीं न कहीं, कुछ न कुछ ऐसा किया होगा, जिससे देश को नुकसान पहुंचा होगा। उन्हें शर्म नहीं आएगी, वे बेशर्म हैं। बेईमान का क्या आत्मसम्मान!
गंभीरता यह भी है कि हममें से कुछ हैं, जो  पाकिस्तान की ओर से क्या जवाब आएगा! सोच रहे हैं।
 सोच रहे हैं उन तर्कहीन लोगों के बारे में जो एक निहायत ही परिभाषा के अनुरूप आम आदमी के आत्मसम्मान के पुनर्गामन को राजनीति और बहस में बदलना चाहते हैं।

मैं सोच रहा हूं उनके बारे में, जो इस हमले के बाद उत्तरप्रदेश चुनाव में भाजपा को फायदा मिलने की बात कह रहे हैं। मैं सोच रहा हूं उनके बारे में, जो  गलतियां और कमियां निकालने के लिए स्क्रूड्राइवर लेकर फिरते  हैं। जो कांग्रेस को भडक़ाने की सोच रहे हैं। जो कम्युनिस्टों को ' क्रॉस क्वेश्चन' करने उकसा रहे हैं। जो भाजपाइयों से कह रहे हैं " बताओ जनता को, पिछली सरकारों में दम नहीं था। मोदी ने बदला लिया है।"

मैं सोच रहा हूं उन माता-पिताओं के बारे में जो आर्मी के लिए खुश हैं । मोदी के लिए खुश हैं। देश के लिए खुश हैं । अपने लिए खुश हैं। तालियां बजा रहे हैं । मिठाइयां बांट रहे हैं। लेकिन अपने लडक़े को सेना की वर्दी में नहीं देखना चाहते।

मैं सोच रहा हूं उन विश्लेषकों के बारे में, जो अभी भी माथे पर पाकिस्तान प्रायोजित सवाल लिए घूम रहे हैं।  मैं सोच रहा हूं उन पत्रकारों (संपादकों) के बारे में, जिन्होंने देशहित को ताक में रखकर जरूरी खबरें दबाईं होंगी। जो प्रबंधन की खातिर काले को सफेद, और सफेद को पारदर्शी करते रहे । जिनकी समाजवादी आत्मा को पूंजीवाद के बाजार में बड़े ही सस्ते दामों पर खरीदा गया। वे बिक गए और अपने देश के अंदर के युद्ध पर लिखते रहे।

मैं सोच रहा हूं उन प्रमुखों के बारे में, जो साहस की बात करते हुए निर्णायक होने के पद तक पहुंचे और समझौतावादी हो गए। उन्होंने वैसे ही समझौते किए, जिसके लिए उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों को कोसा था। मैं सोच रहा हूं उस गरीब के बारे में, जिसके घर की मैना किसी सियार के पिंजरे में रोती है। मैं सोच रहा हूं उन पाखंडियों के बारे में, जो आर्मी जवानों सा जिगर रखने का दम भरते हैं लेकिन भीड़ बनकर गरीब को पीटते हैं। मैं सोच रहा हूं उस भीड़ को चुपचाप देखती खड़ी ' भीड़' के बारे में।

मैं सोच रहा हूं उस आत्मसम्मान के बारे में, जिसके साथ जीना आर्मी हमें सिखाती है।  मैं सोच रहा हूं अपने बारे में, "मैंने क्या कर लिया अब तक अपने आत्मसम्मान के लिए! "
आज हमारी आर्मी ने जो किया है, उससे मुझ जैसे असंख्य भारतवासियों को प्रेरणा लेनी चाहिए।
परिस्थितियां बदलती हैं, या तो इंतजार कीजिए या उन्हें बदलने का वक्त न देते हुए खुद को बदलिए। परिस्थितियां कभी आत्मसम्मान से अधिक शक्तिशाली नहीं होती। आत्मसम्मान और नैतिकता को तौला जाए तो  दोनों का वजन बराबर ही निकलेगा। इन दोनों के बिना आदमी हल्का है।
धन्यवाद भारतीय सेना, हमारा आत्मसम्मान, हमारा आत्मगौरव लौटाने के लिए .. .

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