Monday 26 September 2016

अफ्रेड टू बी रॉन्ग part 4 : आत्मा का स्वर


चार मित्रों का एक दल विचार खोज यात्रा के लिए निकलता है। दल का नेतृत्वकर्ता आयन नामक युवक है। गरीब लकड़हारे के बेटे को उसके अंतर्मन में गूंजती आवाज इस कार्य के प्रति प्रेरित करती है। विचार खोजी दल को मार्ग पर एक झूलता हुआ पुल मिलता है, जहां उनका सामना शाशी से होता है। शाशी अत्यंत शक्तिशाली व्यक्ति है। गौरव, शाशी पर आक्रमण करता है। शाशी उसके शरीर के दो टुकड़े कर देता है। शाशी भ्रम की रचना करने में माहिर है। वह भ्रम के संसार को ही जीवन का सच्चा सुख बताता है। शाशी विचार खोज यात्रा के पथिकों को रोकना चाहता है। पुल पर ममंत्र भी प्रगट होते हैं। शाशी और ममंत्र के  के बीच विचार खोजी दल को लेकर एक समझौता होता है। समझौते के अनुसार वत्र्यसेन और वारिका का तत्काल विवाह होना है।

अब आगे.. .

part 4 : आत्मा का स्वर 

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गौरव का शरीर अस्थिर होने लगा। वह करवटें बदलने लगा। सभी का ध्यान पुल पर होते उस अचंभे की ओर ही था। गौरव उठकर बैठ गया- " मैं जीवित हूं। तुम सभी को इस पर आश्चर्य हो रहा है ! "
आयन ने हर्ष दर्शाते हुए कहा- "नहीं मित्र, प्रसन्नता हो रही है।"
- "दायरे में रहो.. विचार खोजी दल के मूर्खों.. . इस मूर्ख की जीवनप्राप्ति का उल्लास विवाह पश्चात भी मनाया जा सकता है। "  हल्की चेतावनी के स्वर में शाशी ने कहा। वह गौरव के ठीक पीछे खड़ा था। गौरव पर उसकी चेतावनी का असर हुआ। उसने अपने मूल स्वभाव के विपरीत शांति दिखाई। आयन को गौरव का चुप हो जाना स्वाभाविक नहीं लगा।

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ममंत्र का सिर झुका हुआ था। वत्र्यसेन, पुल के नीचे देखकर अपनी उधेड़बुन से छुटकारा पाने के प्रयास में था। वारिका का अंतर्मन  शून्य में भटक रहा था। वह उस कहानी को याद करने का प्रयत्न कर रही थी जिसमें एक नदी अपने तटों के न मिलने से खिन्न होकर स्वयं जलरहित हो जाने का संकल्प लेती है। आयन विपत्ति के हल के लिए ममंत्र की ओर ताक रहा था।
-" तो हम परिणय बंध प्रारंभ करें? शाशी ने अपने दाएं हाथ को झटका और हवा में अंगुलियां घुमाते हुए विधि बताई- सुनो वारिका और वत्र्यसेन.. , तुम दोनों को गठबंधन को नाटकीयता बनाने वाले कर्मकांड नहीं करने होंगे। तुम्हें पूर्वजों के तीन प्रतिनिधियों वसु, रूद्र और आदित्य को साक्षी मानकर स्वयं को विवाह की पवित्र संस्था को समर्पित करना है। यही वास्तविक गंधर्व विवाह है। पूर्वजों का साक्षी होने पर ईश्वर का आशीष मिलता है। पूर्वज भी ईश्वर ही हैं। अंतत: मनुष्य मृत्यु के माध्यम से ईश्वर से ही मिलता है। ईश्वर के समीप होना, ईश्वर के समान होना है। "
- " किसका विवाह हो रहा है?"  गौरव ने शाशी के भाषाप्रवाह पर बाधा डाली।
- " लगता है तुम्हें प्राणदान देकर मैंने अभिशाप को जीवित किया है।" आंखें फैलाकर पुतलियां ऊपर की ओर ले जाते हुए शाशी गौरव की ओर पलटा।
निश्चय से भरे हुए आयन ने प्रार्थनापूर्वक कहा- " गौरव मैं तुम्हें पूरा विवरण दूंगा, अभी जो घट रहा उसमें अवरोध न लाओ। यह हमारे उद्देश्य प्राप्ति की प्रक्रिया है। "
शाशी की आंखें सामान्य हुईं। वत्र्यसेन की कमर पर हाथ रखकर आयन उसे लेकर आगे बढ़ा। वारिका की आंखों से अश्रुधार बहने लगी। दोनों ने वसु, रुद्र और आदित्य का क्षीण स्वर से आह्वान किया।
 विवाह हो गया।
इस बीच आयन ने गौरव को पूरा घटनाक्रम बता दिया। वारिका और वत्र्यसेन के अंतर्मन में गूंज  रहे ममंत्र के स्वर ने उन्हें यंत्रचालित बना दिया था।

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" निसंदेह, अब शारीरिक क्रिया प्रारंभ हो, शुभारंभ"..- शाशी ने अट्टाहस किया।
वत्र्यसेन का चेहरा अकाल से सूखी धरती से भी सूखा था। वह पूर्वजों के प्रतिनिधियों वसु, रुद्र और आदित्य की शपथ लेते हुए भी अनिर्णय में था। भाग्य के लिखे को ग्रहण करते हुए वारिका पुल की सतह पर लेट गई। वत्र्यसेन ने उसकी दिशा में पग बढ़ाए। शाशी को छोडक़र सभी ने उनकी ओर पीठ कर ली। आयन की आंखों की किनारियां भीगने लगीं। उसे हृदय के समीप रक्त का थक्का जम जाने की पीड़ा होने लगी। आंखों के सामने काले धब्बे नाचने लगे। पैर लडख़ड़ाने लगे। रोम-छिद्रों से पसीने की बूंदें लगातार फूटने लगीं।

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आयन अपने अंतर्मन में ममंत्र के स्वर सुनने को अधीर हो रहा था। उसकी प्रेमिका एक दुरूह उद्देश्य के लिए अपनी मनोकामना का बलिदान दे रही थी। आयन के अंतर्मन में ममंत्र का स्वर नहीं ध्वनित हो रहा था!
-" हे ममंत्र मुझे आपको सुनना है। मैं विचार की खोज के महान उद्देश्य की ओर अग्रसर होने की स्थिति में नहीं हूं। उद्देश्य प्राप्ति के लिए घट रही यह घटना मेरे लिए प्राणघातक है। मेरे शरीर की क्रियाएं स्थिर हो रही हैं। मैं स्वयं को मृत्यु के द्वार पर पा रहा हूं। पिछली घटना में आपने मुझे जीवनदान दिया था। मुझे आपकी सहायता चाहिए।"
उसके अंतर्मन में ममंत्र का स्वर नहीं गूंजा।
उसकी चेतना ने व्यवहारिकता दिखाई। ममंत्र तो यहीं मौजूद थे।
उसने अपने दोनों ओर दृष्टि घुमाई। ममंत्र दोनों ओर नहीं थे। वह एक संकोच के साथ पार्श्व  में घूम गया। वत्र्यसेन शारीरिक क्रिया में लीन होने की मनोदशा बनाने का प्रयोजन करने में रत था। उसकी क्रियाएं काम-इच्छा के विपरीत प्रतीत हो रही थीं। वारिका के पैर ही दिख रहे थे। उन दोनों के शरीर के ऊपर और चारों ओर शाशी की परछाई पसरी हुई थी। शारीरिक क्रिया में स्वयं का जीवसूत्र स्थापित करने की व्याकुलता से शाशी इधर-उधर हिल रहा था। आयन ने अवलोकन किया। शाशी की परछाई सूर्य प्रकाश से नहीं बनी थी। वह स्याह-नीली थी।

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आयन ने गौरव को जीवित होते देखा था। शाशी ने अपनी माया से उसका सिर, धड़ से जोड़ दिया था। आयन को गौरव का सिर पुल के किनारे धड़ से अलग पड़ा दिखा।
'यह क्या हो रहा है!"
गौरव के धड़ से निकल रहा रक्त फैलकर वारिका और वत्र्यसेन तक पहुंच गया था। दोनों इससे अनभिज्ञ थे। आयन ने कुछ समय पहले बीते घटनाक्रम का विश्लेषण किया।
'अर्थात वारिका और वत्र्यसेन के विवाह के पूर्व गौरव का जीवित होना दृष्टिभ्रम था। गौरव को शाशी ने पुनर्जीवित नहीं किया था। ममंत्र यह क्यों नहीं समझ पाए!'
ममंत्र दोनों हाथ सामने बांधकर सिर झुकाए सेवकों की मुद्रा में खड़े थे।

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आयन ने अपनी सारी शक्तियां एकत्र कर लीं। वह अपना जीवन उद्देश्य नहीं भूला था। विचार खोज यात्रा का नेतृत्वकर्ता कायर होने का क्षोभ लेकर विचार पाने का आकांक्षी नहीं था। उसने अंतर्मन में ममंत्र का स्वर सुनने का अंतिम प्रयास किया। स्वर नहीं गूंजा ।
आयन ने लंबे डग भरकर एक लंबी छलांग लगाई। ऐसा करते हुए आयन की दोनों हथेलियां आपस में जुडक़र संयुक्त मुष्टी में बदल चुकी थीं। उसका शरीर हवा में उछला, लहराया और संयुक्त मुष्टी  का प्रहार शाशी के सिर के पृष्ठ के  ठीक मध्य में हुआ। 
शाशी ने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लिया। उसकी प्रतिक्रिया असाधारण थी। आयन का प्रहार उतना बलशाली नहीं था। शाशी का शरीर स्याह-नीली परछाई में जाकर मिलने लगा। वारिका और वत्र्यसेन के शरीरों पर रजतवर्ण किरणें पडऩे लगीं। किरणें आयन से निकल रहीं थीं। वत्र्यसेन और वारिका भौंचक्के होकर आयन को देख रहे थे। शाशी का पूरा शरीर परछाई में समा गया। परछाई गायब हो गई।

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गौरव के धड़ के समीप खड़े विचार खोज यात्रा के तीनों पथिक पुल की मोटी रस्सियों को पकड़े ममंत्र को देख रहे थे। इससे पहले कि ममंत्र से प्रश्र होता, उन्होंने स्वयं उत्तरों की श्रृंखला की कडिय़ां बिखेर दीं। उत्तर की पहली कड़ी थी-" मैं ममंत्र नहीं हूं।"
आयन और उसके साथी अवाक रह गए।
- "मैं शाशी के भ्रम संसार का एक रहवासी हूं। यह हमारा उपयोग अपने भ्रमजाल को विस्तारित करने के लिए करता है।"
- " हमने जो अभी यहां देखा वह क्या था?"  वत्र्यसेन ने पूछा।
- " शाशी का रचा भ्रम। उसे ज्ञात है कि मनुष्य के अंतर्मन में उसकी आत्मा के स्वर गंूजते हैं। उसने मनुष्य के मंत्र और तंत्र पर वर्षों तक निष्कर्षात्मक शोध किए हैं। वह आयन के बारे में जानता था। वह उन युवाओं की पहचान करने में व्यस्त रहता है जिनके अंतर्मन में गंूज रहे आत्मा के स्वर उन्हें विचार खोज यात्रा के लिए प्रस्थान करने को कहते हैं। शाशी में मानव के अंतर्मन में आत्मा की ध्वनि सुनने की प्रतिभा भी है। ममंत्र, मनुष्य या दिव्यात्मा नहीं है। आत्मा के स्वर का नामकरण करनेवाला भी शाशी है। उसने आयन के अंतर्मन में गंूज रहे शब्दों के मध्य नामकरण का अपना विचार प्रविष्ट करा दिया। चेतन मस्तिष्क ने आत्मा के स्वर को स्वत: ही ममंत्र नाम दे दिया। यह नाम शाशी के विचार ने उसे सुझाया था। इसी तरह विचार खोज मार्ग पर अचानक चल पडऩे का सुझाव भी शाशी की ही देन था। संभवत: इस कारणवश ही बिना पूर्व तैयारी के तुम सभी विचार खोज के अभियान में निकल पड़े। "
आयन उसके व्याख्यान से सहमत दिखा।
- " तुमने हमसे छल किया?" वत्र्यसेन भुनभुनाते हुए बोला।
- " मैं शाशी का दास था। उसने मेरे अंतर्मन पर अधिकार कर लिया था। मेरे अंतर्मन में आत्मा के स्वर नहीं गूंजते। आज इस लडक़े ने साहस प्रदर्शित कर मुझे भी मुक्त किया है।"
उसका धाराप्रवाह बोलना जारी रहा- " शाशी भ्रम का जाल रचता है। उसे भलीभांति ज्ञात है कि मानवजाति सर्वप्रथम अपने को सुरक्षित करने के मानसिक भाव लिए हुए विकसित हुई है। शाशी उस मानवजाति से निकला है। उसने मनुष्य के विकास पर शोध कर यह जान लिया है कि असुरक्षा की भावना से ग्रस्त मानसिकता पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इसलिए उसने भ्रम का संसार रचा। पुल पर आया गैंडा उसके भ्रमजाल की रचना है। वह ब्रह्मांड के रचयिता का अनन्य उपासक है अपितु उसे मनुष्य के विचार खोजी होने से कष्ट है। उसने मुझे ममंत्र के रूप में प्रस्तुत किया। उसने अपने विचार की तरंगों को तुम्हारे मस्तिष्क तक पहुंचाया। आयन के चेतन में यह विचार पहले से ही प्रविष्ट था कि दिव्यात्मा ममंत्र केवल उससे संपर्क साधता है। आयन के चेतन-अवचेतन ने कभी आपस में तर्क नहीं किया कि उस दिव्यात्मा को ममंत्र के रूप में वह कैसे जान गया। पुल में वारिका और वत्र्यसेन के अंतर्मन में तो उसने अपने विचारों का एक गुच्छा ही प्रविष्ट करा दिया। प्रेम, ज्ञान अथवा धन के स्वार्थ में लिप्त लोगों के मन में वह अधिकाधिक विचार प्रविष्ट करा सकता है। उसके विचारों के संचरण से तुम सभी को यह लगने लगा कि तुम्हारे अंतर्मन में गूंज रहे स्वर ममंत्र के हैं। वारिका और वत्र्यसेन के साथ शत-प्रतिशत यही हुआ है। आयन तुम्हारा अपने मन-मस्तिष्क पर इन दोनों की अपेक्षा अधिक नियंत्रण है। "

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ममंत्र का रूप धरनेवाले उस व्यक्ति ने आगे जानकारी दी- "शाशी ने मनुष्य जीवन की भ्रांतियों को अपना अस्त्र बनाकर वत्र्यसेन और वारिका का विवाह करा दिया। आयन ने इसी बीच साहस किया। उसने अपने आत्मा का स्वर सुनने की कोशिश की। स्वर नहीं सुनाई देने पर वह निष्कर्ष पर पहुंच गया कि उसे यह खेल तोडऩा पड़ेगा। उसके साहस का सटीक परिणाम निकला। "
- " और गौरव?" आयन की जिज्ञासा उफान पर थी।
-" गौरव अपनी नियति से वीरगति को प्राप्त हुआ। उसका साहस प्रशंसनीय था। किंतु शाशी यही चाहता है। शाशी चाहता है कि हर कोई उसकी आंखों में देखे। इससे वह अपने समक्ष उपस्थित किसी भी प्राणी का शारीरिक-मानसिक बल खींच लेता है। तुमने रामायण काल के वानर राजा बाली की कहानी सुनी होगी। राजा बाली को वरदान था, वे अपने प्रतिद्वंदी की आधी शक्ति खींच लेते थे। शाशी ने सम्मोहन की विद्या से इस वरदान को साध लिया है। वह शक्ति भंडार को भी सोख सकता है।"
- " शाशी के सम्मोहन में आकर गौरव ने उस पर आक्रमण किया। शाशी ने उसके शरीर के दो टुकड़े कर तुम सभी को अपनी शक्ति दिखाई। तुम में से किसी ने उस पर दूसरा आक्रमण करने का साहस नहीं किया। गौरव तुम सब में सर्वाधिक बलशाली था। इसलिए उसने उसकी हत्या कर तुम पर अतिरेक प्रभाव डाला। सत्य घटनाओं को मिश्रित कर भ्रमजाल रचा जाता है। इससे भ्रम और सत्य में अंतर करना मुश्किल होता है।
अवसाद से निकली वारिका ने झुंझलाकर कहा- "मुझे कुछ भी समझ नहीं आया! "
शाशी के दास होने का दावा करनेवाले उस पुरुष ने कहा-"  युवती, तुम्हें केवल यह समझना होगा कि यहां पुल पर शाशी के आने के बाद हुईं सारी घटनाएं भ्रम पैदा करने के लिए की सृजित की गईं। न यहां गैंडा था, न ही उसकी सींग आयन के पेट में घुसी थी। यह सत्य था कि उसने गौरव की हत्या की। वह असत्य था कि गौरव के सिर और धड़ को जोडक़र उसने उसे पुनर्जीवित किया। मैंने पूर्व में बताया है कि भ्रम रचने के लिए सत्य के मिश्रण की अनिवार्यता होती है। "
- " उसने ममंत्र के रूप में मुझे प्रस्तुत किया, यह अर्धसत्य है। सत्य कि मैं उसके भ्रमजाल और सम्मोहन से हवा में प्रगट हुआ। असत्य यह है कि मैं ममंत्र हूं। भ्रम में पडक़र तुमने उसके कहे का अक्षरश: पालन किया। उसके भ्रमजाल ने तुम्हारे अंतर्मन में घुसपैठ कर ली थी। अंतर्मन में आत्मा का स्वर नहीं शाशी की आवाज गूंज रही थी। विवाह के लिए सरलता से तुम सभी ने हां कर दी।"

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कुछ देर शांति रही। आयन ने ऊंगलियों से भंवों को रगड़ते हुए पूछा- " मैं अपने अंतर्मन में गूंज रहे आत्मा के स्वर से विचार खोज के लिए प्रेरित हुआ। क्या सभी के अंतर्मन में आत्मा के स्वर गूंजते हैं? और यह स्वर तब क्यूं नहीं आया जब मैं वत्र्यसेन और वारिका के विवाह और शारीरिक क्रिया के विषय में सोचकर हृदयाघात की दशा में आ गया था? "
-" हां, सभी के अंतर्मन में आत्मा का स्वर गूंजता है। स्वार्थ में पड़े मनुष्य उसकी ध्वनि को व्यर्थ मानते हैं। उसे महत्व नहीं देते। वे अपनी आत्मा को मूक बना देते हैं। तुम्हें यह बताते हुए मुझे खेद है कि मानवजाति का अधिकांश भाग आत्मा को मूक बना दिया है और भ्रम का शासन फैला है। शाशी की सत्ता भ्रम पर टिकी है। वह आंखों से सम्मोहन रचता है। उसका चेतन अतिसक्रिय है। उसने भी अपनी आत्मा के स्वर को मूक बना दिया है। इससे उसकी संवेदना मर गई। संवेदना नहीं रहने से उसका अवचेतन कमजोर हो गया। शाशी के शरीर के ऊपरी भाग में कहीं भी प्रहार करने पर वह मूर्छित हो जाता है। संयोगवश तुमने तो उसके अवचेतन मस्तिष्क के स्थान पर ही प्रहार किया। यह प्रहार उसके लिए मस्तिष्काघात है। तुम्हारे प्रहार से वह मूर्छित होने लगा था। वह यहां गिरता उसके पहले उसने अपनी स्याह नीली परछाईं की मदद ली और उसमें समाकर गायब हो गया। सदैव ध्यान में रखना कि शाशी को मारा नहीं जा सकता। उसे अपने से दूर भगाया जा सकता है। स्याह-नीली परछाई उसकी रक्षा करती है। उस परछाई को उसने अपने शोध से खोजा है। "
- "वह स्याह नीली परछाईं क्या है, कैसे पैदा हुई? " वत्र्यसेन के अंदर का वैज्ञानिक बोल उठा।
- " वह परछाई ही भ्रम है। भ्रम को मानव जीवन से अलग नहीं किया जा सकता। हमारे निर्णय इससे प्रभावित होते हैं। मानव के निर्णय नहीं लेने के पीछे केवल एक ही कारक होता है- असफलता प्राप्त करने का भय। असुरक्षा का भय। संसार के अन्य मनुष्य द्वारा हास्य का पात्र बनने का भय। इन समस्त भयों का एकमात्र स्रोत है; उत्तर की बर्फीली पहाडिय़ों के पार रहनेवाले जिसे गलत साबित होने का डर कहते हैं। "
-" यह एक भय हमारे उन संकोचों का कारक है जिससे जीवन उद्देश्य धरा का धरा रह जाता है। हम एक सीधा-सपाट जीवन जीते। हमारे जीवन का एकमात्र उद्देश्य सुखद मृत्यु प्राप्त करना हो जाता है। मानवजाति के चिंतन में यह भ्रम होता है कि हमें जीवन वे समस्त सुविधाएं एकत्र कर लेनी चाहिए जिससे मृत्यु का दिन सुखद हो सके। इससे बड़ा भ्रम क्या हो सकता है? इससे अधिक बड़ा भ्रम भी है। वह हास्यास्पद है। मानव जाति जीवन में प्राप्त होनेवाले विलासिता के साधनों के प्रति इतना आसक्त होता है कि वह इसके लिए भी ईश्वर का धन्यवाद करता है। ब्रह्मांड के रचयिता ने जीवन के ज्ञान को सच्चा सुख बताया है। मनुष्य विलासिता को सुख मानकर उसे ईश्वर कृपा की संज्ञा देता है, सबसेे बड़ा भ्रम यही है।"



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तीनों मित्रों को अपरिचित ज्ञानी छलिया नहीं लगा। अपरिचित उनसे जानना चाहा- " मैं शाशी की दासता से मुक्त हो चुका हूं। क्या मैं इस विचार खोज यात्रा में तुम तीनों का सहभागी बन सकता हूं? "
वत्र्यसेन ने उसे टोका- " नहीं.. . हम यह  कैसे मान लें कि अभी जो घट रहा है, वह भ्रम नहीं है.. !"
उसने अतिसामान्य भाव से उत्तर दिया- "अपने अंतर्मन से जान लो, वहां आत्मा का स्वर सुनाई दे तो तुम्हें उत्तर मिल जाएगा।"
तीनों मित्रों के मनोभाव समान हो जाने के चिह्न उनके नेत्रों में नजर आने लगे। उनकी आत्मा के स्वर ने बता दिया था कि अपरिचित व्यक्ति छल नहीं कर रहा है। आयन की आत्मा के स्वर ने कहा था-' अविश्वास का कोई कारण न होने पर शंका नहीं करनी चाहिए। अकारण शंका से नकारात्मक विचार बनते हैं। नकारात्मक विचार कुत्सित होते हैं।'
तीनों अपने अंतर्मन में गूंज रहे स्वर से जान गए कि अपरिचित ज्ञानी सत्य वक्ता है। ममंत्र दिव्यात्मा नहीं है। वह आत्मा का स्वर है। जीवन के उद्देश्य को बताने की मंशा से आत्मा अंतर्मन में गुंजायमान होती है। आत्मा का ब्रह्मांड के रचयिता से सीधा संपर्क होता है।

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आयन को कुछ महीने पहले के पूर्वाभासों का स्मरण होने लगा। पिता के लिए लकड़ी के गोले के टुकड़े करते हुए उसके अंतर्मन में दिव्य स्वर गूंजे थे। उन स्वरों ने उसके अंतर्मन से मस्तिष्क को संदेश भेजा था, विचार खोज यात्रा के बारे में बताया था। आयन ने पहाड़ी से गिरने के बाद मिले जीवन को ममंत्र का चमत्कार माना था, वह आत्मा के स्वर का प्रभाव था। आयन पहाड़ी से सीधा झरने के कुंड में गिरा था। वह पानी में डूबते हुए मूर्छावस्था की ओर जा रहा था। उसका अंतर्मन उस काल में गूंजने लगा था। आत्मा के स्वर गूंज रहे थे - 'उठो आयन तुम्हें जीना है.. .कम से कम अगले एक महीने तक तुम मर नहीं सकते..तुम्हें खोज करनी है..तुम्हें जीवन का उद्देश्य पाना है.. '
और आयन उस अत्यंत गहरे कुंड से तैरकर बाहर आ गया था। वह बाहर ही आया था और जिंग को अपनी ओर दौड़ते हुए पाया। उसने जिंग को बताया कि मैं गिरकर झरने के कुंड में गिरा था लेकिन यह नहीं बताया कि मुझे तैरना नहीं आता।
आत्मा के स्वर ने उसे तैरना सीखा दिया था।

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गौरव का अंतिम संस्कार किया गया। उसकी कमी के बाद भी विचार खोजी दल में चार सदस्य बने हुए थे। गौरव की जगह लेनेवाला नया सदस्य अपरिचित ज्ञानी नहीं रहा था। उसका नाम था- आशुतोष।

आगे क्या हुआ पढि़ए पांचवें खंड में 


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