Thursday 15 September 2016

आज तेरे जाने का दिन है.. . लिखने का मन नहीं है.. .


 मेरे बदन पर तेरे नाखूनों के निशान रुह तक कायम रहें
कांपती जिंदा चिताएं जलती रहें उस अंधेरी झोपड़ी में
जहां उन होठों को चुस्कियों में मैंने गले तक पिया था
 रात तेरे पास कहीं जिंदगी लेटी थी, मैं देर तक जिया था
फडक़ती तेरी पिंडलियों की एक नस खींच ली थी मैंने
लिफाफा बंद मोहब्बत कायदों से आजाद हो रही थी
तेरे जाने से अकेली पड़ीं ऊंगलियां भूल गईं हैं मुडऩा
आज तेरे जाने का दिन है, लिखने का मन नहीं है ।

लौटती बारिशों से सूखे बरामदे में सीलन आ रही है
तेरे गीले पैरों के निशानों को खोज रही है स्मृतियां 
बिखरा पड़ा है संभाली हुई तस्वीर का टूटा कांच भी
गुजरने की बेमानी दस्तक देती बंद घड़ी यहां लेटी है
तेरे सिलसिले टंगे हुए हैं पुराने साल के कैलेंडर में
बेखुदी में चादरें बुढ़ा रही हैं परदों की आड़ लेकर
कोरे कागजों में दस्तखत को तैयार हैं अल्फाज
आज तेरे जाने का दिन है, लिखने का मन नहीं है।
 अकेला कोई पेड़ होता है जलता हुआ जंगल में
जड़ों में उसके किसी नदी का खून उतरा होता है
बगावत है उन जड़ों की आखिरी नजारे के नाम
बागी सिसकारियां थमीं हैं लेकिन वो रो पड़ेंगी
रुका हुआ पानी बढ़ जाएगा तेरे रास्तों की ओर
सूखे गुलाबों के बागीचों में उड़ रही है नम हवा
 अंत में मेरी राख जान लेगी तेरे नहीं होने का पता
आज तेरे जाने का दिन है, लिखने का मन नहीं है।











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