Tuesday 20 September 2016

अफ्रेड टू बी रॉंग पार्ट 3 : दायरे में रहो

 अफ्रेड टू बी रॉंग पार्ट 3

दायरे में रहो

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सफेद कोहरे से निकला गैंडा अपनी पूरी गति से उनकी ओर आ रहा था। गौरव ने उसे पहले देखा था लेकिन आयन सामने था। चारों पथिकों के पास सोचने का वक्त नहीं था। अनहोनी की आशंका और भय से चारों सन्न थे। तेज लुढक़ती चट्टान सा नाक में लंबी नुकीली सींग लिए गैंडा आयन के पास आ चुका था। वारिका चिल्लाई। गौरव ने मुट्ठियां भींच लीं। मित्रों की रक्षा में विशालकाय गैंडे से भिड़ जाने में उसे गुरेज नहीं था। वत्र्यसेन ने पुल की रस्सियों को कसकर पकड़ लिया, उसकी टांगें कांप रहीं थीं। वत्र्यसेन की व्यवहारिक बुद्धि कहती थी, परिस्थिति भयानक होने पर गलत साबित होने का भय जाता रहता है।

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आयन के पेट से उस विशालकाय गैंडे की सींग कुछ इंचों की दूरी पर रह गई थी। आयन के पास बचाव का पैंतरा नहीं था। गैंडे की टक्कर उसे लगने ही वाली थी।
अचानक गैंडे के आगे के दोनों पैर जमीन में रगड़ गए। पैरों में गतिअवरोधक आ गया हो जैसे। लकड़ी के पुट्ठों से बनी पुल की सतह पर गैंडे के खुरों की भारी रगड़ हुई, जिसकी आवाज ने वहां उपस्थितों के कानों को पीड़ा दी। दु्रत गति से दौड़ता गैंडा रुक गया, लेकिन उसकी सींग आयन के पेट में घुस चुकी थी। आयन के हाथ हवा में ऊपर उठ गए, वो कलप गया किंतु दर्द की आवाज नहीं निकली।

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उसी क्षण गैंडे के पीछे पुल के छोर पर फैले सफेद कोहरे से एक लंबा-चौड़ा साया उनकी ओर बढऩे लगा। उस आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी के कंधे फैले हुए थे। बाल हल्के घुंघरालू, बिखरे हुए और स्वर्णिम थे। साफ लंबे चेहरे पर नुकीली नाक और चौड़ा जबड़ा उसे प्राचीन योद्धा की तरह चित्रित कर रहे थे। मटकती नीली आंखें विशेष प्रभाव से युक्त थीं। उसने गहरा भूरा लबादा पहन रखा था। लबादे के सामने का हिस्सा कमर तक  उल्टे त्रिभुज के आकार में खुला हुआ था। कमर पर एक नीली बेल्ट बंधी थी। पैर नुकीले जूतों से सजे थे।
-" नमस्कार.. . विचार खोजी दल.. मुझे शाशी कहते हैं। ये गैंडा मेरा पालतू है। पता है इसका नाम क्या है?"

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उसका लहजा हंसोड़पन लिए था, पर आवाज कठोर थी।
गैंडे की सींग अब भी आयन के पेट में फंसी हुई थी।
अपनी लंबी ऊंगलियां फैलाते हुए उसने एक अंदाज में गर्दन को झटका देते हुए कहा- "ओह..गोबू, तुम कितने बिगड़ गए हो। लडक़े के पेट में अब तक सींग घुसा रखी है तुमने। 
उसने  आंखें उलटाकर नाटकीयता प्रदर्शित करते हुए गैंडे को पुचकारा- " दायरे में रहो.. . "
गैंडा, आयन के पेट से सींग निकालकर पीछे हट गया। विचित्र भाव-भंगिमा वाले उस व्यक्ति ने आयन के पेट पर हाथ फेरा। गैंडे की सींग घुसने से हुआ गहरा घाव गायब हो गया। आयन अचरज में डूब गया।

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उस विचित्र शारीरिक भाषा के प्रदर्शक ने अपनी जीभ होंठों के ऊपर लाते हुए कहा- "आयन नाम है तुम्हारा, बहुत अच्छा नाम है। जब तुम पूरी तरह मर जाओगे तब भी मैं तुम्हारा नाम याद रखूंगा । तुमने अपने साथियों को बताया नहीं, उस दिन पहाड़ी से गिरने के बाद क्या हुआ था..! अपने मित्रों के साथ छल न करो।

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आगे बढक़र वो वत्र्यसेन के पास पहुंच गया। वत्र्यसेन के कंधे पर हाथ रखते हुए उसने अपनी गर्दन को वही विशेष भाव-भंगिमा लिए झटका दिया और वारिका को ऊपर से नीचे तक सूक्ष्मता से देखने लगा - "वारिका.. . बड़ी कुरूप लग रही हो निर्वस्त्र होकर। तुम्हारा शरीर विकास की अवस्था में आ रहा है.. आया नहीं है..  और प्रेम में पागल होकर इस आयन के पीछे चली आई। इसे उस ढोंगी ममंत्र ने एक महीने का जीवन दिया है अपनी माया से। यह 30 दिनों से एक क्षण अधिक नहीं सांस ले सकता। महीनेभर बाद रुदन करना इसके शव पर।"

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गौरव का चेहरा गुस्से से लाल हुए जा रहा था। उसकी नाक सिकुड़ रही थी। शाशी ने भंवें ऊपर उठाते हुए उसे घूरा। गौरव उसकी ओर लपकने को हुआ। वो शाशी पर कूदकर हमला करना चाहता था।  इसके पहले ही शाशी ने गौरव की गर्दन पकड़ ली और उसका सिर धड़ से उखाडक़र हवा में उछाल दिया।
- "मैंने कहा था दायरे में रहो। सुनो वारिका.. . मुझे युवतियों को आवरण में देखना भाता है। आयन और वत्र्यसेन, तुम दोनों अब मेरे अनुचर हो। आवेश में आकर विरोध करने का परिणाम तुमने देख लिया। पहलवान के पुत्र की गर्दन से उसका धड़ अलग हो गया है। "

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वारिका के सामने गौरव का धड़ पड़ा था। सिर पुल के किनारे लुढक़ा हुआ था। आंखें बंद नहीं हुई थीं। लग रहा था कि अब भी वो वारिका की ओर देख रहा है। गौरव अपने जीवनकाल में एक साहसी लडक़ा था। पहलवानों के वंश से होने की वजह से शरीर और मानसिकता से मजबूत।
शाशी ने अपना लबादा उतारकर वारिका पर फेंक दिया।
-" इससे आवरित कर लो अपना शरीर। क्या देख रही हो उस मूर्ख दुस्साहसी के शरीर के दो भागों को? मैं इससे भी वीभत्स मार्ग जानता हूं यमलोक जाने के। तुम आभास करने की कामना रखती हो तो इन दोनों से कहो, मुझ पर आक्रमण करें।"

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शाशी पीछे पलटा। आयन की बंद मुट्ठियों और सिकुड़ते चेहरे से स्पष्ट था कि उसके प्रिय मित्र के मृत होने का शोक, क्रोध में बदल चुका है।
शाशी ने अपनी ऊंगलियां चेहरे के आगे घुमाते हुए उसे संबोधित किया- "अपने मित्र के समान साहस नहीं करना आयन। मुझमें इतना बल है कि मैं अपने एक नाखून से तुम्हारे हृदय का रक्त प्रवाह बंद कर सकता हूं। ब्रह्मांड के रचयिता से विनती है कि तुम्हें सद्बुद्धि प्रदान करें। "

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शाशी ने तीनों पथिकों को सामूहिक संबोधन दिया- "तुम सब पहले यह जान लो कि विचार खोज यात्रा जीवन से पलायन का नाम है। जीवनयापन के साधन जुटाना मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ विचार है। इसके अतिरिक्त अन्य विचार वे खोजते हैं, जिन्हें स्वयं की साधन जुटाने की क्षमता पर संदेह होता है। जीवन एक भ्रम है और यह ब्रह्मांड का सर्वाधिक महान सत्य है। भ्रम बुराई नहीं है। ब्रह्मांड के सत्य को स्वीकारते हुए हमें भ्रम में बने रहना चाहिए। "
"बड़े से बड़े ज्ञानी और विद्वान दूसरों को उपदेश देते हैं किंतु स्वयं के चारों ओर भ्रम रचते हैं। "

- " यह भी सत्य है कि हर काल में कुछ अज्ञानी जन्म लेते हैं जो मानव जाति को भ्रम के दायरे से दूर रहने का मार्ग दिखाते हैं। कष्ट से भरा, त्याग से परिपूर्ण विचार खोज अभियान संचालित करते हैं। मैं घृणा करता हूं इन तत्वों से। जीवन में भ्रम का दायरा सरल और सुखदायक है। यथार्थ से स्वयं को छिपा लेना कष्टकारी नहीं है।
शाशी का स्वर गहराने लगा- ममंत्र के पास सहस्त्र मंत्र हैं। मेरा एक ही मंत्र हैं- स्वयं भ्रम में रहो और विरुद्धार्थियों को इस भ्रम के दायरे में लाओ। जीवन मंत्र यही है। स्थायी विचार यही है। समस्त संसार इसी व्यवस्था से चलता है।"
" जिस मानव ने अपने भ्रम का दायरा जितना बढ़ा लिया, वह उतना ही बलवान, उतना ही शीर्षस्थ है। जबकि तुम उस विचार खोज के अभियान में आगे बढ़ रहे हो, जिसका संसार की अधिकांश मानव जाति को अंशमात्र ज्ञान नहीं है। "
शाशी ने पहलू बदला- " दायरे में रहो। मैंने ये दायरा शब्द उत्तर क्षेत्र के देशों का भ्रमण करते हुए सीखा है। तुम मुझसे सीख लो। दायरा अर्थात सीमा। भ्रम का दायरा बह्मांड से भी अधिक विशाल है। अतएव मेरे अनुचर बनकर, दायरे में रहो.. "
-" तुम नीच हो शाशी।" 
लगा जैसे आकाशवाणी हुई।

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 शाशी के सम्मुख एक चमकीली रोशनी उभरने लगी, जिसने मानव आकार ले लिया। मुख पर दिव्यता, केशरहित शीश व पतला शरीर। सावन मास के काले बादलों से मिलता गहरा रंग। पूरा नग्न शरीर लिए हुए दिव्यात्मा।
शाशी की नीली आंखें चौंधियाने लगीं-" अंतत: तुम आ गए ममंत्र.. इस लकड़हारे के बेटे को जीवन देने के पश्चात तुम लुप्त रह भी नहीं पाते।"
दिव्यात्मा का स्वर स्थिर होकर गूंजा , ध्वनि अब भी ऊपर आकाश से आती लग रही थी-" तुम हीनता की पराकाष्ठा पर हो शाशी। "
- "मैं पराकाष्ठाओं का प्रेमी हूं ममंत्र। चाहूं तो लकड़हारे के बेटे को इस घड़ी समाप्त कर दूं। तुम इसे दूसरी बार जीवन नहीं दे पाओगे। तुम मुझे नहीं मार सकते और न ही मैं तुम्हें। ब्रह्मांड के रचयिता ने हमारे शीतयुद्ध को लचीलेपन के साथ गढ़ा है। चूंकि हम एक-दूसरे का वध नहीं कर सकते तो हमें समझौता करना होगा। यह हम पूर्व से ही करते आ रहे हैं। अन्यथा इनमें से कोई भी जीवित नहीं रहेगा। "
- "और इस समय का समझौता क्या है? "
- " कितना सटीक अभिनय करते हो तुम ममंत्र। मुझसे अधिक पारंगत हो गए हो या इस कच्ची उम्र में स्मरण शक्ति क्षीण हो रही है तुम्हारी! मुझे वारिका के गर्भ में अपना जीवसूत्र चाहिए। तुम तो अवगत हो, मेरी नपुंसकता से। ब्रह्मांड के रचयिता ने मेरी देह की रचना करते हुए सारे अंगों को प्रकृति की सुंदरता से भर दिया। वे मुझे आकार देने में इतने रम गए कि मेरे अस्तित्व को वो अंग ही नहीं दिया जिससे कामनाएं पूरी होती हैं। "

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शाशी ने ममंत्र की ओर ऊंगलियों की नोक बनाते हुए कहा-" तुम्हें देखो, काले-कुरुप, तुम नंगे घूमते हो। काम वासना को जीत लिया है तुमने। तुम्हें जीवसूत्र की आवश्यकता नहीं। तुम अंतर्मन में गुंजायमान होकर मानव को वश में कर लेते हो। "
ममंत्र ने उसकी बात काटी- "मैं उन्हें वश में नहीं करता। मैं उन्हें विचार खोज के लिए प्रेरित करता हूं। "

शाशी ने होंठ भींचते हुए ममंत्र को नकारा-" नर्क में गया तुम्हारा ध्येय। तुमसे जिह्वा युद्ध करने से अच्छा है कि मैं इन पथिकों को अपने ध्येय से परिचित करा दूं। जानती हो वारिका, मैं गर्भधारण की क्रिया के संक्षिप्त काल में ही अपना जीवसूत्र प्रविष्ट करा सकता हूं। मेरी सभी संतानें इसी तरह जन्मीं हैं। वे भी नपुंसक हैं परंतु उन्होंने अपने प्रयासों से भ्रम का साम्राज्य बना लिया है, जिसका सम्राट हूं मैं। तुम सरीखे मूर्ख इस साम्राज्य से नासमझी में विद्रोह करते हैं। ममंत्र से प्रभावित होकर विचारों की तलाश में निकलते हैं तब मुझे क्रोध आता है। देखो मेरी आंखें इसी क्रोध के कारण लाल होकर नीली पड़ गईं। "
-"आह.. इस आपाधापी में एक जानकारी बतानी रह गई। मैं नीली आंखों वाला दृष्टिहीन हूं। मुझे जीवंत अभिनय में गहन रुचि है। अपनी अभिनय क्षमता का उल्लेखनीय प्रदर्शन करते हुए मैं मूर्खों के सामने में दिव्यदृष्टिधारित होने का भ्रम पैदा करता हूं। "

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- "मेरे नेत्रों में ज्योति नहीं है। इनका नीलापन मेरे आंसुओं से बना है। आकाश और समुद्र की नीलिमा मेरे नेत्रों में देखो। ममंत्र यह रहस्य जानता है। देखा मेरा विराट हृदय, मैंने तुम मूर्खों को भी इस रहस्य से जोड़ लिया।
 जानते हो मैं फिर किस तरह संसार, मनुष्य, जीव-जंतु, आग-पानी, उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया और खतरे का अनुभव करता हूं? मेरे नेत्रों का काम मेरे कान करते हैं। मेरे कानों की क्षमता मेरे संपूर्ण भ्रम से अधिक है। मैं तुम्हारे हृदय स्पंदन की ध्वनि का अतिसूक्ष्म स्वर भी सुन सकता हूं। इस तरह मैं एक दिव्यदृष्टियुक्त मानव से अधिक शक्तिशाली हूं। "
-" वारिका मैंने तुम्हारे शरीर को नहीं देखा लेकिन उससे टकरा रही वायु की ध्वनि से जान लिया कि तुम्हारे गुप्त अंग कितने विकसित हैं!"

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वारिका को अपने निर्वस्त्र होने पर अत्यधिक लज्जा आई। शाशी की घृणास्पद बातें सुनकर ममंत्र के मुख पर आग का ताप आ गया। शाशी  को उस ताप का अनुभव हुआ। उसकी गहरी आवाज में बचाव के सुर आने लगे- "तुम इन्हें आज्ञा दो मेरा प्रस्ताव स्वीकारने के लिए अथवा उपाय नहीं बचता। मैं इन तीनों को सदैव के लिए मृत्युनिद्रा देने जा रहा हूं।"
-" रुक जाओ.. शाशी। वारिका और वत्र्यसेन विवाह करेंगे। "
वारिका और वत्र्यसेन, ममंत्र के इस वाक्य को सुनकर सकते में आ गए। वारिका के शरीर में खून की एक बूंद  भी उस वज्राघात से नहीं बची। वत्र्यसेन झुंझला गया। वारिका ने ममंत्र नामक उस दिव्य मनुष्य की ओर देखा और उसे एक अलौकिक आभास होने लगा। उसके अंतर्मन में ममंत्र का स्वर गूंजने लगा।
- "तुम्हारा वत्र्यसेन से विवाह निश्चित है। यह नियति है। इसे ब्रह्मांड के रचयिता ने निश्चित किया है। यह विचार खोज यात्रा में तुम्हारी परीक्षा का पहला भाग है। "
ममंत्र का यही गुण था। वे अंतर्मन में प्रवेश कर सकते थे। एक निर्धन लकड़हारे के पुत्र आयन को उन्होंने इसी माध्यम से विचार खोज यात्रा के लिए प्रेरित किया था।
ममंत्र आदर्श मानव की पहचान कर उसे विचार खोज यात्रा के लिए चुनते थे। शाशी के अंतर्मन में उनका प्रवेश नहीं हो सकता था क्योंकि शाशी का अंतर्मन था ही नहीं। उसने भ्रम को प्राण देने के लिए अपने अंतर्मन की हत्या कर दी थी। उसे अंतर्भाव नष्ट करने की यह कृपा नपुंसकता की भरपाई के रूप में प्राप्त हुई थी।

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शाशी ने वत्र्यसेन का हाथ पकड़ कर उसे खींच लिया - "तुम्हारा और वारिका का विवाह तत्काल होने जा रहा है, इसी पुल पर। यह गंधर्व विवाह होगा। ब्रह्मांड के रचयिता को साक्षी मानकर परिणय बंधन होगा, यहीं इसी पुल पर। तत्पश्चात द्रुतगति  से तुम्हें शारीरिक क्रिया करनी होगी, यहीं इसी पुल पर । "
ऊंगलियां घुमाते हुए शाशी ने तंज में कहा- " तुम दोनों ने वस्त्र नहीं पहने, इससे क्रिया में कठिनाई भी नहीं होगी.. "
वारिका ने ब्रह्मांड के रचयिता से मन ही मन प्रार्थना की- हे परमात्मा मुझे हृदयाघात प्रदान करें। मुझे मृत्यु का आशीष दें।"
उसके अंतर्मन में ममंत्र के स्वर आने लगे - "वारिका.. यह मृत्यु का समय नहीं है। वत्र्यसेन विचार खोज यात्रा का संभावित मार्गदर्शक है। तुम विचार खोज यात्रा के पथ पर आगे बढ़ो। "
-"तुम्हें ईश्वर से साक्षात्कार करना है..उन्हें देखना है.. ब्रह्मांड के रचयिता ने इसके लिए विचार खोज यात्रा का उपाय दिया है..ईश्वर तुम्हें इसी यात्रा के माध्यम से मिलेंगे।  विचार खोज यात्रा का प्रत्येक पथिक अपने जीवनकाल में ही ईश्वर को साक्षात देखता है, अपने सम्मुख। तुम्हें ईश्वर को जानना है, वो कैसे हैं? तो विचार खोज यात्रा की हर बाधा को विधि का विधान मानो, ईश्वर तुमसे मिलेंगे..उन्हें तुम देखोगी.".

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वारिका अनिश्चय में थी। उसने वत्र्यसेन को हल प्राप्त करने की संभावना की दृष्टि से देखा। वत्र्यसेन स्वयं असमंजस में था। उसने ज्ञानप्राप्ति के लिए जीवनभर ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। शारीरिक क्रिया तो उसके इस जन्म की इच्छा सूची में अंतिम स्थान भी नहीं रखती थी। वह हृदयहीनता की सीमा तक व्यवहारिक था।

 वारिका आयन से प्रेम करती थी। भले ही शाशी ने उसे बताया था कि आयन महीनेभर ही जीवित रहेगा।

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अपनी चाल सफल होती देख शाशी प्रसन्न था। उसने ममंत्र के केशरहित सिर पर हाथ फेरा और पुल के उस हिस्से की ओर बढ़ गया जहां गौरव का सिर पड़ा था। उसने सिर को केशों से पकडक़र उठाया और उसे धड़ के समीप ले आया। उसने ममंत्र को गंभीरता से देखा। शाशी ने सिर को धड़ से यथावत जोड़ दिया। गौरव के जीवन के दो छोर मिल गए। मृत शरीर में जीवन जागने लगा।


आगे क्या हुआ.. पढ़ें चौथे एपिसोड में

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